आर. कोलिंस का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांत | आर. कोलिंस के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत का आलोचनात्मक मूल्यांकन | R. Collins’ theory of social change in Hindi | R. Critical evaluation of Collins’ theory of social change in Hindi
आर. कोलिंस का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांत
सामाजिक परिवर्तन– कोलिंस के संघर्ष के मौलिक तत्व के रूप में तीन मौलिक तत्व धन संपत्ति, शक्ति और प्रतिष्ठा माना है। प्रत्येक समाज में लोग इन तीनों मूल तत्वों को प्राप्त करना चाहते हैं। यह भी होता है कि संपत्ति मिलने पर प्रतिष्ठा व शक्ति अपने आप मिल जाती है जैसे पूँजीपति को प्रतिष्ठा व शक्ति अपने आप मिल जाती है। इसी प्रकार शक्ति मिलने पर धन दौलत व प्रतिष्ठा अपने आप मिल जाती है। उदाहरण के लिए राजनेताओं को धन दौलत व प्रतिष्ठा अपने आप मिल जाती है। अतः इन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए हर व्यक्ति प्रयत्नशील रहता है। इसके परिणामस्वरूप सामाजिक संघर्ष होगा।
कोलिंस का मत है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति लालची नहीं होता है और न ही प्रत्येक व्यक्ति शक्ति को प्राप्त करने के लिये प्रयास करता है किंतु यह भी सत्य है कि शक्ति व प्रतिष्ठा अपने में पूर्ण नहीं होती है। इसी कारण समाज में संघर्ष होना आवश्यक है। कोलिंस का मत है कि हम चाहें या न चाहें संघर्ष तो होना ही है। उनका विचार है कि कई बार ऊपर से देखने पर लगता है कि लोग बड़े मृदुभाषी है किंतु उनका व्यवहार चापलूसी वाला होता है। अंदर से देखने पर पता चलता है कि उनके अंदर ईर्ष्या व्याप्त है। इसी कारण कोलिंस ने दगा फसाद, खून खराबा आदि पर अधिक नहीं लिखा है। उनका मत है कि ऊपर से कोई संघर्ष नहीं होने पर भी अंदर ही अंदर ईर्ष्या की आग सुलगती रहती है जिससे समाज में संघर्ष होता है।
कोलिंस ने संघर्ष सिद्धांत का प्रारम्भ सामाजिक संरचना एवं परिवर्तन के लिए किया है। संघर्ष करने वाला व्यक्ति या समूह किंहीं स्रोतों पर निर्भर होने पर भी संघर्ष करता रहता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी के हाथ पैर तोड़ने की धमकी देता है तो उसे यह विश्वास रहता है कि किसी न किसी स्रोत से उसे मदद मिलेगी। बिना किसी की मदद की आशा के वह धमकी नहीं दे सकता है। कोलिंस का यह मत है कि बिना स्रोत के संघर्ष में कूदना मूर्खता है।
कोलिन्स ने संघर्ष के चार स्रोत निम्नलिखित बतलाए हैं-
(1) भौतिक और तकनीकी स्रोत- इसमें संपत्ति, साधन, शिक्षा दीक्षा, कुशलता, सर्वाधिक हथियार आदि है।
(2) शारीरिक आकर्षण और शक्ति– कभी-कभी पुरुष या स्त्री का शारीरिक व्यक्तित्व, रंग रूप आदि भी सामाजिक संपर्कों में सहायक होता है। सुरीला कण्ठ होना, लंबी गर्दन, गोरा रंग, लंबा कद अपने आप में आकर्षण तत्व है। किसी भी संघर्ष की स्थिति में वैयक्तिक गुण एवं ताकतवर स्रोत का कार्य करते हैं। इतिहास गवाह है कि सुंदर स्त्रियों को लेकर राष्ट्रों के बीच में भी संघर्ष हुए है।
(3) संख्या और कौन की विशिष्टता- संघर्ष का प्रमुख स्रोत संघर्ष में भाग लेने वाली कौम की संख्या और उनका मिजाज महत्वपूर्ण होता है। सांप्रदायिक दंगों में प्रायः देखा जाता है कि अमुख संप्रदाय या कौम में हिंसा करने या बहादुरी दिखाने का कोई ऐतिहासिक प्रमाण है या नहीं। हमारे देश सिक्ख, राजपूत आदि समुदाय निर्भीकता एवं बहादुरी के लिए प्रसिद्ध हैं।
(4) संस्कृतिऔर परंपराओं में निहित स्रोत- कई बार संघर्ष में भाग लेने वाले समूहों और व्यक्ति की सांस्कृतिक संपदा को स्रोत के रूप में लाया जाता है। ऐसी स्थिति में संस्कृति का प्रयोग साधन के रूप में किया जाता है और इसके माध्यम से लोगों में संवेगात्मक सुदृढ़ता लाई जाती है। सुदृढ़ता शक्ति का एक स्रोत बन जाती है और लोगों को संघर्ष करने हेतु प्रेरित करती है।
कोलिंस का मत है कि संघर्ष के लिए प्रमुख ताकतवार आधार शक्ति या समूह के स्रोत होते है मौलिक व तकनीकी स्रोत बहुत कमजोर होते हैं। जिस व्यक्ति के पास आधार न हो, दो वक्त की रोटी न हो। यह लोग उच्च लोगों के साथ संघर्ष नहीं कर सकते हैं। जब ऐसे उच्च लोगों के साथ संघर्ष नहीं कर सकते हैं। जब ऐसे दलित समूह संघर्ष की चुनौती बिना किसी भरोसेमंद स्रोत के देते हैं तो उनकी हार निश्चित होती है वास्तव में संघर्ष का निर्णायक तत्व स्रोत हैं।
कोलिंस ने संघर्ष सिद्धांत के बुनियादी तत्वों की बड़े सुंदर ढंग से व्याख्या की है। फिर भी इस सिद्धांत की कुछ त्रुटियाँ हैं। कोलिंस ने कोजर व डेहरनडोर्फ की तरह शब्दों का अंबार खड़ा कर दिया है। स्थान-स्थान पर अंतःक्रिया की चर्चा की है विचारों को यांत्रिक रूप में रखा है तथा राज्य व शिक्षा की व्याख्या की है जो संपूर्ण व्याख्या की रूप रेखा मात्र बनकर रह गई है। फिर भी कोलिंस का सिद्धांत कुछ कमियों के बाद भी संघर्ष विचारधारा में एक महत्वपूर्ण योगदान देता है। कोलिंस ने अपने सिद्धांतों में कार्लमार्क्स, वेबर और दुर्खीम आदि से कुछ न कुछ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ग्रहण किया है। वहीं दूसरी तरफ गॉफमौन एवं गारफिंकल के विचारों का भी अपने लेखन में उपयोग किया है।
संरचनात्मक प्रकार्यवाद तथा प्रतीकात्मक अंतःक्रियावाद की भाँति संघर्ष सिद्धांत भी सैद्धांतिक समाजशास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं। संघर्ष सिद्धांतों ने समाजशास्त्र को एक नई दिशा दी है। यद्यपि कुछ बिंदुओं पर इसकी आलोचना की जाती है।
(1) संघर्ष के सिद्धांतकारों का मानना है कि संघर्ष परिवर्तन को जन्म देता है। संघर्ष नहीं होगा तो समाज में परिवर्तन भी नहीं होगा। यह वास्तविकता की उपेक्षा है।
(2) संघर्ष सिद्धांतकारों ने संघर्ष को केवल एक ही रूप सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने नकारात्मक संघर्ष की उपेक्षा कर दी है।
(3) संघर्ष सिद्धांतों में ऐसे तथ्यों को समाहित किया गया है जो सत्यापन योग्य नहीं है। उपरोक्त कमियाँ तो सूक्ष्म है। वास्तव में संघर्ष सिद्धांतों का योगदान सबसे महत्वपूर्ण है। यह समाजशास्त्रीय चिंतन सबसे उपयोगी पहलू है। संघर्ष का अध्ययन किए बिना परिवर्तन एवं विकास जैसी महत्वपूर्ण समाजशास्त्रीय अवधारणाओं को नहीं समझा जा सकता। इस दृष्टि से सैद्धांतिक समाजशास्त्र में संघर्ष सिद्धांत’ का योगदान महत्वपूर्ण है।
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