समाज शास्‍त्र

सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एवं परिभाषा | उपरिमुखी गतिशीलता और अधोमुखी गतिशीलता | समतल गतिशीलता ओर शीर्षात्मक गतिशीलता | सामाजिक गतिशीलता के घटक

सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एवं परिभाषा | उपरिमुखी गतिशीलता और अधोमुखी गतिशीलता | समतल गतिशीलता ओर शीर्षात्मक गतिशीलता | सामाजिक गतिशीलता के घटक | Meaning and definition of social mobility in Hindi | Upward mobility and downward mobility in Hindi | Plane mobility and vertical mobility in Hindi | Components of social mobility in Hindi

सामाजिक गतिशीलता का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Socialk Mobility)

प्रत्येक समाज का अपना एक स्वरूप एवं गठन होता है और उसमें भिन्न-भिन्न व्यक्तियों एवं समूहों के भिन्न-भिन्न सामाजिक स्तर होते हैं। समाज किसी भी प्रकार का क्यों न हो परन्तु उसे व्यक्तित एवं समूहों के सामाजिक स्तरों में परिवर्तन होता रहता है, यह बात दूसरी है कि कुछ समाजों में इस परिवर्तन के लिए अधिक अवसर होते हैं और कुछ समाजों में म। व्यक्ति अथवा समूहों के सामाजिक स्तर में होने वाले परिवर्तन को ही समाजशास्त्रीय भाषा में सामाजिक गतिशीलता कहते हैं। मिलर और बुक के शब्दों में-

व्यक्तियों अथवा समूह का एक सामाजिक ढाँचे से दूसरे ढाँचे में संचलन होना ही सामाजिक गतिशीलता कहलाता है।

(Socialk Mobility is a movement of inviduals or groups from one socialk class stratum to another. – Miller and Wock).

उपरिमुखी गतिशीलता और अधोमुखी गतिशीलता

जब हम व्यक्ति थिवा समेह के सामाजिक स्तर में परिवर्तन की बात करते हैं तो यह परिवर्तन किसी भी दिशा में हो सकता है- व्यक्ति अथवा समूह निम्न सामाजिक स्तर से उच्च सामाजिक स्तर पर भी पहुंच सकता है और उच्च सामाजिक स्तर से निम्न सामाजिक स्तर पर भी आ सकता है। किसी व्यक्ति या समूह के निम्न सामाजिक स्तर से उच्च सामाजिक स्तर पर पहुंचने की प्रक्रिया को उपरिमुखी (Upward) सामाजिक गतिशीलता कहते हैं और उसके उच्च सामाजिक स्तर से निम्न स्तर पर पहुँचने की प्रक्रिया को अधोमुखी (Lownward) सामाजिक गतिशीलता कहते हैं।

समतल गतिशीलता ओर शीर्षात्मक गतिशीलता

हेरोल्ड एल हॉजकिंसन ने सामाजिक गतिशीलता के दो भेद किए है- एक समतल (Horizontal) गतिशीलता और दूसरी शीर्षात्मक (Vertical) गतिशीलता। व्यक्ति अथवा समूह के केवल स्थान में परिवर्तन होने को उसने समतल गतिशीलता की संज्ञा दी है। उदाहरणार्थ पिछड़े एवं छोटे जिले के जिलाधीश से उन्नत एवं बड़े जिले के जिलाधीश के बतादले से दोनों जिलाधीशों के सामाजिक स्तर में होने वाला परिवर्तन मतल गतिशीलता है। इसके विपरीत शीर्षात्मक गतिशीलता से उनका तात्पर्य किसी व्यक्ति अथवा समूह के एक पद से दूसरे पद पर पहुँचने से हैं। उदाहरणार्थ, एक सांसद का मन्त्री परिषद् में आना अथवा मन्त्री का मन्त्रीपरिषद् से हटकर केवल सांसद रह जाना शीषौतक गतिशीलता है।

सामाजिक गतिशीलता के घटक

(Factors Affecting Social Mobility)

भिन्न-भिन्न समाजों में सामाजिक गतिशीलता भिन्न-भिन्न मात्रा में पाई जाती है। इसके अनेक कारण हैं। समाजशास्त्रियों ने इन कारणों को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखा है। उन सब कारणों को हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रख सकते हैं-

  1. समाज का स्वरूप- यूँ तो जितने समाज हैं उनके उतने ही प्रकार हैं, परन्तु मोटे तौर पर उन्हें दो वर्गों में बांटा जाता है बन्द समाज में वे समाज आते है जो प्रायः जाति और धर्म पर आधारित होते हैं। इनमें जो परम्पराएं पड़ जाती उनसे ये हटना नहीं चाहते। इसलिए इन्हें परस्परात्मक समाज भी कहा जाता है। इन समाजों में सामाजिक गतिशीलता बहुत कम होती है। उदाहरण के लिए अपने भारतीय ग्रामीण समाजों को लीजिए। ये आज भी परम्परात्मक समाज की श्रेणी में आते हैं। गाँवों में अछूत वर्ग के व्यक्ति ऊंचे-ऊंचे पदों पर पहुँचने के बाद ही सवर्णों से बराबर का सम्मान प्राप्त नहीं कर पाते, उनके सामाजिक स्तर में कोई अन्तर नहीं होता।

खुले समाज वे समाज होते हैं जो जाति, धर्म, परम्पराओं आदि के बन्धनों से मुक्त होते हैं। इनमें कोई व्यक्ति जन्म से उच्च अथवा निम्न नहीं माना जाता। व्यक्ति और समूहों को अपना-अपना विकास करने के पूर्ण अवसर होते हैं। इन समाजों में सामाजिक गतिशीलता बहुत अधिक होती है। उदाहरण के लिए अपने भारतीय नगरीय समाजों को ही लीजिए। ये समाज अब खूले समाजों की कोटि में आते हैं। इनमें व्यक्ति अपने पद एवं आर्थिक समपन्नता की दृष्टि से सम्मान प्राप्त करता है, जाति और धम्र के आधार पर नहीं। यह बात दूसरी है कि आज भी समाज में जाति, धर्म व परम्पराओं के बन्धन जितने कम होते हैं उनमें उतनी ही अधिक सामाजिक गतिशीलता पाई जाती है।

  1. समाज का राज्यतन्त्र- राज्यतन्त्र के भी अनेक प्रकार हैं परन्तु इन्हें भी मोटे तौर पर तीन वर्गों में बांटा जाता है- एक तन्त्र, अल्पतन्त्र और प्रजातन्त्र पहले दो प्रकार के शासनतन्त्रों में शासक वर्ग अपने हितों की रक्षा पर अधिक ध्यान देता है। ऐसे समाजों में शासक वर्ग को अपने विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त होते हैं परन्तु शासित वर्ग को अपने विकास करने के स्वतन्त्र अवसर प्राप्त नहीं होते और वह अपने सामाजिक स्तर को नहीं उठा पाता। तीसरे वर्ग के समाजों में पूरी जनता शासक होती है अतः वह अपने हितों का ध्यान रखती है। इनमें प्रतयेक व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्मान किया जाता है, उसे अपने विकास के समान अवसर प्रदान किए जाते हैं और उसे अपनी योग्यता एवं क्षमतानुसार समाज में स्थान दिया जाता है। परिणामतः व्यक्ति अथवा समूह अपने प्रयत्नों के अनुसार सामाजिक स्थान प्राप्त करते हैं। ऐसे समाजों में सामाजिक गतिशीलता अधिक पाई जाती है।
  2. समाज की आर्थिक व्यवस्था- अर्थोपाजन के साधनों की दृष्टि से आर्थिक व्यवस्था के तीन भेद होते हैं- कृषिप्रधान, वाणिज्यप्रधान और उद्योगप्रधान। यह तथ्य सर्वविदित है कि कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था वाले समाजों में सामाजिक गतिशीलता कम होती हे, वाणिज्यप्रधान समाजों में अपेक्षाकृत अधिक और उद्योगप्रधान समाजों में सर्वाधिक कारण स्पष्ट है और वह यह कि उद्योगप्रधान अर्थव्यवस्था में जैसे-जैसे उद्योगों में विकास होता है तैसे-तैसे अधिक प्रशिक्षित कर्मकारों, उच्च शिक्षा प्राप्त व्यवस्थापकों एवं प्रबन्धको तथा तकनीकी शिक्षा प्राप्त इन्जीनियारों आदि की आवश्यकता पड़ती है। परिणामतः लोग अपनी योग्यता एवं क्षमताओं में विकास करते हैं और उच्च पद प्राप्त करते हैं। योग्यता एवं क्षमता के अभाव में वे उच्च पद से निम्न पद को भी प्राप्त होते हैं। इससे उनके सामाजिक स्तर में परिवर्तन होता है।

आर्थिक संरचना की दृष्टि से भी आर्थिक व्यवस्था के तीन भेद होते हैं- पूँजीवादी, समाजवादी और मिश्रित। यह तथ्य भी सर्वविदित है कि सामाजिक गतिशीलता पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सबसे कम मिश्रित से उससे अधिक और समाजवादी में सर्वाधिक होती है। कारण स्पष्ट है और वह यह कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूँजी मुट्ठीभर हाथों में रहती है, शेष जनता का शोषण होता है, उसे अपने सामाजिक अर्थव्यवस्था में राष्ट्र की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर राष्ट्र का अधिकार होता है, उसमें सभी व्यक्तियों अपनी योग्यता एवं क्षमतानुसार पद प्राप्त करने के अवसर प्राप्त होते हैं, परिणामतः योग्य व्यक्ति आगे बढ़ते हैं और अयोग्य पीछे हटते हैं। मिश्रित अर्थव्यवस्था इनके बीच की अर्थव्यवस्था है कि इसलिए उसमें सामाजिक गतिशीलता भी मध्यम गति की होती है।

  1. व्यावसायिक प्रतिष्ठा- भिन्न-भिन्न समाजों में सामाजिक स्तर के मित्र-भिन्न तत्त्व होते हैं। इनमें जाति, धर्म, रंग, आर्थिक स्थिति, पद अधिकार एवं उत्तरदायित्व और व्यगलाय आदि मुख्य होते हैं। जाति, धर्म और रंग में परिवर्तन करना अब असम्भव तो नहीं कहा जा सकता परन्तु कठिन अवश्य है। पद और अधिकारों की प्राप्ति व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार कर सकता है। इसी प्रकार यह अपना व्यवसाय भी बदल सकता है। देखा यह गया है कि जिन समाजों में कुछ ज्यवसाय हेय समझे जाते हैं और कुछ उच्च, उनमें लोग हेय व्यवसायों से उच्च व्यवसायों की ओर भागते हैं और परिणामतः उन समाजों में सामाजिक गतिशीलता अधिक होती है।
  2. पदों और व्यवसायों की उपलब्धि- किसी समाज में सामाजिक गतिशीलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि इस समाज में सरकारी और गैरसरकारी क्षेत्रों में उच्च पदों अथवा व्यवसायों को प्राप्त करने के कितने अवसर है। यदि किसी समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन और प्रशासकों आदि की अधिक माँग होती है तो उस समाज में लोगों को अपने सामाजिक स्तर में परिवर्तन करने के अधिक अवसर होते हैं। इसी प्रकार यदि सगाज में व्यक्ति अथवा समूह को एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय को करने के अवसर अधिक प्राप्त होंगे तो उसमें भी सामाजिक गतिशीलता अधिक होगी।
  3. महत्त्वाकांक्षा- किसी समाज में उच्च पदों को प्राप्त करने तथा उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा वाले व्यवसायों को करने के चाहे जितने अधिक अवसर प्राप्त हो परन्तु यदि उसमें व्यक्ति एवं सामाजिक समूहों में आगे बढ़ने की महत्त्वाकांक्षा नहीं है तो उसमें सामाजिक गतिशीलता नहीं के बराबर होगी। इस प्रकार महत्त्वाकांक्षा सामाजिक गतिशीलता का एक मुख्य घटक होता है। यह देखा गया है कि महत्त्वाकांक्षा अध्यात्मप्रधान समाजों की अपेक्षा भौतिकवादी समाओं में अधिक होती है।
  4. शिक्षा- शिखा सामाजिक गतिशीलता का सबसे मुख्य घटक कारक है। जिन समाजों में शिक्षा की सुविधाएं जितनी अधिक मात्रा में सुलभ होती हैं उन समाहों में सामाजिक गतिशीलता उतनी ही अधिक होती है। यदि और बारीकी से देखा जाए तो सामाजिक गतिशीलता के अन्य सभी घटक भी शिक्षा पर ही निर्भर करते हैं चाहे समाज के स्वरूप को लीजिए, चाहे उसके शासनतन्त्र को और चाहे उसके अर्थतन्त्र को इन सबकी जन्मदात्री शिक्षा है। शिक्षा के अभाव में हम खुले समाजों का निर्माण नहीं कर सकते और न ही शासनतन्त्र में परिवर्तन कर सकते हैं और न ही अर्थतन्त्र में। उचित शिक्षा की व्यवस्था से ही विज्ञानं और तकनीकी ज्ञान का विकास होता है, उसी के आधार पर उद्योग के क्षेत्र में विकास किया जाता है और उसी से वाणिज्य को बढ़ावा मिलता है। शिक्षा ही भिन्न-भिन्न व्यवसायों के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। यह मनुष्य को महत्त्वाकांक्षी बनाती है और उसी के द्वारा वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरी करने योग्य बनते हैं।
समाजशास्त्र / Sociology – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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