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मुस्लिम महिलाओं की स्थिति | मुस्लिम महिलाओं के अधिकार | मुस्लिम महिलाओं की समस्याएँ | मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं के सामधान हेतु प्रयास

मुस्लिम महिलाओं की स्थिति | मुस्लिम महिलाओं के अधिकार | मुस्लिम महिलाओं की समस्याएँ | मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं के सामधान हेतु प्रयास | Status of Muslim women in Hindi | Rights of Muslim women in Hindi | Problems of Muslim women in Hindi | Efforts to solve the problems of Muslim women in Hindi

मुस्लिम महिलाओं की स्थिति

(Status of Muslim Women)-

प्राचीन अरबी समाज में मुस्लिम महिलाओं को वैवाहिक पारिवारिक एवं सम्पत्ति की दृष्टि से अनेक अधिकार प्राप्त थे। सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों ही दृष्टि से उसकी सामाजिक स्थिति श्रेष्ठ थी। अरबी समाज में महिला अपने पति का चुनाव करने में पूर्ण स्वतन्त्रा थी। वह मन चाहे पति को अपने डेरे में बुलाती थी, उससे सम्भोग करती और जब अपनी इच्छा होती, उसे बाहर निकाल देती थी। वह जब भी चाहती, पति से सम्बन्ध विच्छेद कर लेती थी। विवाह-सम्बन्ध अस्थायी थे। महिला की सन्तानों की देख-भाल एवं भरण-पोषण का भार पिता अथवा नाते-रिश्तेदारों को उठाना पड़ता था। अरबी समाज में विवाह का अस्थायी रूप प्रचलित था जिसे बीना’ विवाह के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार के विवाह में महिलाओं को तो बहुत स्वतन्त्राता प्राप्त थी, किन्तु इसके कारण पारिवारिक जीवन सर्वथा और अनिश्चित था। इस कारण धीरे-धीरे इस प्रकार के विवाह की समाप्ति हुई और उसका स्थान आधिपत्य स्थापित हुआ। महिलाओं द्वारा विवाह-विच्छेद कम हुआ और पुरुष एकाधिक पत्नियाँ रखने लगा, महिलाओं को युद्ध में लूट कर बेचा जाने लगा, बाल-विवाह प्रारम्भ हुए और परिवार पर पूरी तरह से पुरुष का एकाधिकार कायम हो गया। धीरे-धीरे महिलाओं की सामाजिक दशा दीन-हीन हो गयी विवाह के लिए महिला के पिता को ‘मेहर’ दिया जाने लगा जिसका अर्थ था कि महिला को वधू-मूल्य देकर लाया गया है। अरब लोग अपने अतिथि का स्वागत करने के लिए उसे अपनी पत्नी तक सौंप देते थे उत्तम सन्तान करने के लिए एक पुरुष अपनी पत्नी को किसी महान पुरुष के साथ रहने और सहवास करने तक की आज्ञा भी देता था। अरबी समाज में पत्नी को सम्पत्ति के समान माना गया था जिसका उपयोग एवं उपभोग करने में व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्रा था। पति बिना किसी पूर्व सूचना के पत्नी को त्याग सकता था और विवाह-विच्छेद के लिए महिला की सहमति आवश्यक नहीं थी। समय के साथ मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आया। मुहम्मद साहब महिलाओं की स्थिति सुधारने के पक्ष में थे। वे बहुपत्नी प्रथा एवं बालिका वध के विराधी थे। उन्होंने महिलाओं की स्थिति को सुधारने का प्रयत्न तो किया फिर भी महिलाओं को सीमित मात्रा में ही स्वतन्त्राता देना चाहते थे। उनके प्रयत्नों से महिलाओं को कई धार्मिक एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त हुए। मुस्लिम महिलाएँ अपने पतियों की आज्ञा से सार्वजनिक स्थानों में नमाज पढ़ सकती थीं और मस्जिद भी जा सकती थीं। कुरान में कहा गया है कि पुरुष के समान महिला भी बहिश्त (स्वर्ग) में जा सकती है। मुस्लिम विधवा को पुनर्निवाह का तथा महिलाओं को तलाक का अधिकार भी प्रदान किया गया। फिर भी पर्दा-प्रथा के प्रचलन एवं शिक्षा के अभाव के कारण महिलाएँ राजनैतिक एवं सार्वजनिक जीवन में बहुत कम आ पायी हैं।

मुस्लिम महिलाओं के अधिकार

(Right of Muslim Women)

  1. विवाह सम्बन्धी अधिकार- विवाह से सम्बन्धित मुस्लिम महिलाओं को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं-

(i) विधवा पुनर्विवाह का अधिकार- मुस्लिम विधवा को इस्लामी कानून के अनुसार पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त है। पति की मृत्यु होने पर इद्दत’ की अवधि (तीन मासिक धर्म) के बाद मुस्लिम महिलाओं को पुनर्विवाह करने की आज्ञा दी गयी है।

(ii) तलाक का अधिकार- मुस्लिम महिलाओं को शरीयत अधिनियम के अन्तर्गत ‘अला तथा जिहर’ तलाक देने का अधिकार है। मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम 1939 के अनुसार भी मुस्लिम महिलाओं को तलाक देने का अधिकार दिया गया है।

(iii) बाल-विवाह का अभाव- मुस्लामानों में बाल विवाह का अभाव पाया जाता है। 15 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह बिना उसके संक्षरकों की स्वीकृति के नहीं हो सकता। यदि ऐसा विवाह होता है तो बालिग होने पर वर-वधू ऐसे विवाह को रद्द घोषित कर सकते हैं। इस अधिकार को ‘ख्याल-उल-बुलूग (Option of Puberty) कहा जाता है। इस अधिकर से भी मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति ऊँची बनी रही है।

(iv) विवाह से पूर्व स्वीकृति मुसलमानों में विवाह से पूर्व वधू से विवाह की स्वीकृति ली जाती है। इससे भी उसकी सामाजिक स्थिति ऊँची उठ पायी है। इस अधिकार के कारण किसी भी महिला के साथ विवाह में दबाव व जोर-जबरदस्ती नहीं बरती जा सकती और विवाह महिला-पुरुष के बीच एक सम्मानीय समझौता माना गया है। जो दोनों ही व्यक्तियों की स्वेच्छा पर निर्भर होता है।

  1. परिवार सम्बन्धी अधिकार- मुस्लिम परिवार पितृसत्तात्मक एवं पुरुष-प्रधान हैं। परिवार में एकाधिक महिलाएँ होने पर सभी महिलाओं को पति से समान प्रेम एवं व्यवहार पाने का अधिकार दिया गया है, किन्तु बहुपत्नीत्व के कारण महिलाओं को अनेक अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। पर्दा-प्रथा के प्रचलन के कारण महिलाओं को घर की चहारदीवारी तक सीमिति कर दिया गया है। घर में भी मर्दानखाना’ एवं जनानखाना अलग-अलग होता है। पर्दा-प्रथा के कारण मुस्लिम महिलाएँ बाहरी दुनिया से अनभिज्ञ ही रही हैं और सार्वजनिक जीवन में प्रवेश नहीं कर सकी हैं। पुरुष ही परिवार का मुखिया होता है, परिवार के लोगों का भरण-पोषण करता हैं और अन्य सदस्यों को आदेश देता है। विवाह के बाद महिला अपने पति के घर जाकर निवास करती हैं।
  2. सम्पत्ति का अधिकार- सैद्धान्तिक दृष्टि से मुस्लिम महिला को सम्पत्ति में कई अधिकार दिये गये हैं। पति से अपेक्षा की जाती है कि वह उसे ‘खर्च-ए-पानदान’ दे। विवाह के उपलक्ष्य में दिये जाने वाले ‘मेहर’ पर भी महिला का ही स्वामित्व होता है। मुस्लिम महिला को अपने पिता एवं पति की सम्पत्ति में भी अधिकार प्रदान किया गया है। एक मुस्लिम महिला माँ, पत्नी एवं पुत्री के रूप में पारिवारिक सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करती है। एक महिला को अपने मृत पुत्रा की सम्पत्ति में 1/4 से 1/8 के बीच सम्पत्ति मिलती है। पुत्री होने के नाते उसे अपने पिता की सम्पत्ति में अन्य भाइयों के समान ही सम्पत्ति पाने का अधिकार है। महिला अपनी सम्पत्ति को बेचने एवं गिरवीं रखने में पूर्ण स्वतन्त्रा है।

मुस्लिम महिलाओं की समस्याएँ

(Problems of Muslims Women)

  1. बहुपत्नीत्व की समस्या- मुस्लिम समाज में एक पुरुष को चार तक पत्नियाँ खने को सामाजिक एवं वैधानिक स्वीकृति प्राप्त है। अधिक महिलाएँ होने पर पुरुष से समान व्यवहार की अपेक्षा नहीं की जा सकती। उनके प्रति भेदभाव बरता जाता है। और पत्नीत्व का वास्तविक सुख नहीं मिल पाता। महिला की पुरुष पर निर्भरता के कारण भी उनकी स्थिति ऊँची नहीं उठ पाती, सभी महिलाओं के बच्चों को भी परिवार में समान स्थिति नहीं मिल पाती, ऐसी दशा में उसे कभी-कभी संघर्ष भी करना पड़ता है।
  2. तलाक की समस्या- सैद्धान्तिक रूप से तो मुस्लिम महिलाओं को भी पुरुष के समान ही तलाक के अधिकार प्राप्त हैं। किन्तु पुरुष पर आर्थिक निर्भरता, अशिक्षा एवं समाज में पुरुषों की प्रधानता के कारण पुरुष वास्तत्व में इस अधिकार का प्रयोग मनमाने ढंग से करता है, किन्तु महिलाएँ इस अधिकार का प्रयोग करने में अपने को असहाय पाती है।
  3. पर्दा-प्रथा- मुस्लिम समाज में महिलाओं को कुदृष्टि से बचाने के लिए पर्दा करने का आदेश दिया गया है। पर्दा-प्रथा के कारण मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा नहीं हो पायी है। शिक्षा के अभाव में उनमें अज्ञानता एवं रूढ़िवादिता व्याप्त है, वे स्वतन्त्रा रूप से अर्थोपार्जन नहीं कर पाती हैं और राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन में भाग लेने से वंचित रही है। देश की शिक्षित महिलाओं में उनका प्रतिशत बहुत ही कम है।
  4. धार्मिक कट्टरता- मुस्लिम धर्म कठोर अनुशासन एवं नियन्त्राण की माँग करता है। अतः इसमें कट्टरता पाई जाती है। यह नवीनता एवं परिवर्तन को स्वीकार नहीं करता, यही कारण है कि जेट युग में भी अरबी समाज एवं मोहम्मद साहब के युग की नियमों का पालन किया जाता है।

मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं के सामधान हेतु प्रयास

मुस्लिम समाज परम्परावादी है तथा धार्मिक कट्टरता में विश्वास करता है। मुसलमानों के जीवन के सभी क्षेत्रों का संचालन कुरान के नियमों के आधार पर होता है। यही कारण है कि नवीन परिवर्तनों के बावजूद भी मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने एवं समस्याओं के समधान हेतु भारत में कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुए हैं। अंग्रेजी शासनकाल में उनके विवाह से सम्बन्धित दो अधिनियम अवश्य पारित हुए 1. मुस्लिम शरीयत अधिनियम 1937 2. मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम 1939। शरीयत अधिनियम, मुस्लिम महिला को पति के नपुंसक होने और उसके द्वारा पत्नी पर झूठा व्यभिचार का दोषारोपण करने तथा इला व जिहर के आधार पर तलाक की छूट देता है। मुस्लिम-विवाह-विच्छेद अधिनियम मुस्लिम महिला का निम्नांकित आधारों पर तलाक देने की छूट है, जैसे पति भरण-पोषण करने में असमर्थ हो, सात वर्ष से अधिक वर्षों के लिए जेल में हो, नपुंसक, पागल, यौन रोग व कुष्ठ रोग से ग्रसित हो, क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता हो, धार्मिक कार्यों में बाधा डालता हो एवं एकाधिक पत्नियाँ होने पर सबके साथ समान व्यवहार न करता हो।

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Pankaja Singh

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