समाज शास्‍त्र

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति | हिन्दू तथा मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति की तुलना | महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति | हिन्दू तथा मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति की तुलना | महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन | Status of women in Indian society in Hindi | Comparison of the status of women in Hindu and Muslim societies in Hindi | Change in status of women in Hindi

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति

(Status of Women in Indian Society)

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति, विशेषतः हिन्दू समाज में काफी उच्च रही है। उन्हें शक्ति, ज्ञान और सम्पत्ति का प्रतीक माना गया है और इसी कारण दुर्गा, सरस्वती एवं लक्ष्मी के रूप में उनकी पूजा होती रही है। यहाँ पुरुष के अभाव में महिला को और महिला के अभाव में पुरुष को अपूर्ण माना गया है। इसी कारण हिन्दू समाज में महिला को पुरुष को अर्धागिनी कहा गया है। यहाँ वैदिक और उत्तर-वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति पुरुषों के बराबर रही है तथा उन्हें पुरुषों के समान ही सब अधिकार प्राप्त रहे हैं। धीरे-धीरे पुरुष में अधिकार प्राप्ति की लालसा बढ़ती गयी। परिणामस्वरूप स्मृतिकाल, धर्मशास्त्र कला तथा मध्यकाल में इनके अधिकार छिनते गये और इन्हें परतन्त्र, निस्सहाय और निर्बल मान लिया गया। परन्तु समय ने पलटा खाया। अंग्रेजी शासनकाल में देश में राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में जागृति आने लगी। समाज सुधारकों एवं नेताओं का ध्यान महिलाओं की स्थिति को सुधारने की ओर गया। यहाँ यह बात भी ध्यान में रखनी है कि इस देश में महिलाओं को अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए उतना प्रयत्न करना पड़ा जितनी पश्चिमी देशों में करना पड़ा। यहाँ पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ। भारतीय महिलाओं की स्थिति विभिन्न कालों में भिन्न रही है जिसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-

  1. प्राचीन काल में महिलाओं की स्थितिप्राचीन कालीन भारतीय समाज में महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था। वैदिक काल में महिला-पुरुषों की प्रस्थिति में समानता थी। पत्नी को परिवार का महत्वपूर्ण अंग माना जाता था तथा उसकी इच्छा के विपरीत गृहस्वामी कोई कार्य नहीं करता था। इस काल की अनेक विदुषी महिलाओं जैसे-घोषा, अपाला, विश्वम्भरा आदि ने वैदिक ऋचाओं एवं भजनों की रचना की थी। लड़कों के समान लड़कियों की भी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता था। पत्नी के रूप में महिला की स्थिति काफी उन्नत थी। अथर्ववेद में कहा गया है कि-नववधु- तू जिस घर में जा रही है, वहाँ की तू साम्राज्ञी है। तेरे सास-ससुर, देवर तथा अन्य व्यक्ति तुझे सामज्ञी मानते हुए तेरे शासन में आनन्दित हों। युवतियों को शिक्षा प्राप्त करने और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन करने के समान अवसर प्रदान किये जाते थे। इस काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था, पति के साथ पत्नी भी सामाजिक समारोहों में भाग लेने जाती थी। प्रत्येक धार्मिक कार्यों में पुरुष के साथ महिला का होना आवश्यक था। इस काल में कन्याओं को स्वयंवर द्वारा अपना पति चुनने का अधिकार था। इस समय दहेज प्रथा का प्रचलन नहीं था। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि समाज में महिलाओं को आवर की दृष्टि से देखा जाता था।
  2. मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति- इस काल में हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के नाम पर महिलाओं पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये, उन्हें अधिकारों से वंचित कर दिया गया और उन पर कई नियन्त्रण लागू किये गये। इस समय महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं रहा। अब 5 या 6 वर्ष तक की अबोध कन्याओं का भी विवाह किया जाने लगा। रक्त की शुद्धता को बनाये रखने और महिलाओं के सतीत्व की रक्षा के उद्देश्य से बाल विवाह को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया गया। इस काल में परदा प्रथा प्रचलित हुई। महिलाओं का कार्य-‘क्षेत्र केवल घर की चहारदीवारी तक सीमित हो गया। अब विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं था। सती प्रथा को बढ़ावा दिया गया और कई विधवाओं को तो सती होने के लिए बाध्य तक किया जाने लगा। पुरुष ने जहाँ विधवाओं को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित कर सती होने तक के लिए विवश किया, वहाँ वह स्वयं एक पत्नी के होते हुए भी दूसरी और तीसरी महिला से विवाह करने लगा। इस काल में महिला पूर्णतः परतन्त्र हो चुकी थीं। पारिवारिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से महिला पुरुष पर निर्भर हो गयी। इस समय पति की इच्छाओं को पूरा करना ही महिला का एकमात्र धर्म रह गया। इस काल में महिला सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार में कुछ सुधार अवश्य हुआ। उन लड़कियों को पिता की सम्पत्ति का उत्तराधिकार मिलने लगा जिनके कोई भाई नहीं था। इस काल में धर्म के नाम पर महिलाओं का सर्वाधिक शोषण हुआ। उन्हें चेतना शून्य, पुरुष की कृपा पर आश्रित और निर्बल बना दिया गया। सती प्रथा के पुनः प्रचलन, पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध, परदा-प्रथा के विस्तार एवंक्षबहुविवाह की व्यापकता ने उसकी स्थिति को बहुत गिरा दिया।
  3. आधुनिक काल में महिलाओं की स्थिति- आधुनिक काल में महिलाओं की स्थिति में कुछ परिवर्तन हुआ, परन्तु आज भी महिलाएं पुर्णरूपेण स्वतन्त्र नहीं हो पाई। इस काल में भी महिलाएँ अपने पिता, भाई, पति तथा पुत्र पर ही आश्रित हैं। उन्हें व्यवहार में पुरुष के समान अधिकार प्राप्त नहीं है। पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, बेमेल विवाह तथा अशिक्षा आदि से भारतीय महिला आज भी पीड़ित है। भारतीय महिला की स्थिति को दहेज प्रथा ने अत्यन्त शोचनीय बना दिया है। वे अपने पतियों का शिकार होती रहती हैं तथा सास-ससुर उनके साथ दासी जैसा व्यवहार करते हैं परन्तु फिर भी उनकी स्थिति मध्यकाल से अच्छी है और उनकी स्थिति में लगातार सुधार होता जा रहा है।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही महिलाओं की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। अब उनकी स्थिति में काफी सुधार हुआ है। पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण तथा जातीय गतिशीलता ने महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक स्थिति को उन्नत करने में काफी योग दिया है। वर्तमान में महिला- शिक्षा का प्रसार हुआ। कई महिलाएँ औद्योगिक संस्थाओं और विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी करने लगी हैं। अब वे आर्थिक दृष्टि से आत्म-निर्भर होती जा रही हैं। उनके पारिवारिक अधिकारों में वृद्धि हुई है। अनेक सामाजिक अधिनियमों में महिलाओं की निर्योग्यत को समाप्त करने और उन्हें सामाजिक कुरीतियों से छुटकारा दिलाने में योग दिया है। अब महिलाओं को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु काफी सुविधाएँ प्राप्त है।

हिन्दू तथा मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति की तुलना

(Comparative Position of Women in Hindu and Muslim Society)

यदि हम हिन्दू एवं मुस्लिम समाज में महिलाओं को दी गयी स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पायेंगे कि कुछ अर्थों में हिन्दू महिला की स्थति अच्छी है तो कुछ में मुस्लिम महिला की। हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों ही महिलाएँ पर्दा-प्रथा का पालन करती है, किन्तु मुसलमानों में इसका कठोर रूप पाया जाता है। हिन्दू महिलाओं में मुस्लिम महिलाओं की तुलना में अधिक शिक्षा पायी जाती है। वे आर्थिक, राजनैतिक एवं सार्वजनिक क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं की अपेक्षा अधिक हैं, किन्तु विधवा पुनर्विवाह एवं तलाक देने की छूट दी गयी है। हिन्दुओं में अब विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 एवं हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के द्वारा विधवा महिलाओं को पुनर्विवाह की एवं महिलाओं को तलाक देने की वैधानिक छूट दी गयी है, किन्तु व्यवहार में इन अधिकारों का प्रयोग कम ही हुआ है। सम्पत्ति की दृष्टि से मुस्लिम महिला को माँ, पुत्री एवं पत्नी के रूप में हिस्सेदार एवं उत्तराधिकारी बनाया गया है और वह अपनी सम्पत्ति का मनमाना उपयोग कर सकती है, किन्तु हिन्दू महिला को सम्पत्ति के अधिकारों से वंचित किया गया है, यद्यपि हिन्दू महिला सम्पत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 एवं हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के द्वारा हिन्दू महिला को भी अब माता, पत्नी एवं पुत्री के रूप में सम्पत्ति के अधिकार प्रदान किये गये हैं, तथापि व्यवहार में इसका प्रयोग नगण्य है। हिन्दुओं में बाल-विवाह का प्रचलन है। मुसलमानों में भी बाल-विवाह होते हैं, किन्तु ख्याल-उल-बुलूग के अधिकार द्वारा मुस्लिम महिला बालिग होने पर ऐसे विवाह को रद्द घोषित कर सकती है, किन्तु हिन्दू महिला ऐसा नहीं कर सकती। मुसलमानों में विवाह के उपलक्ष्य में वर वधू को मेहर देता है, इससे महिला की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। हिन्दुओं में दहेज के कारण महिलाओं की स्थिति निम्न हो जाती है। मुसलमानों में बहुपत्नीत्व की प्रथा के प्रचलन के कारण मुस्लिम महिला की स्थिति हिन्दू महिला की तुलना में निम्न है। मुसलमानों में विवाह से पूर्व लड़की से स्वीकृति ली जाती है, किन्तु हिन्दुओं में ऐसा नहीं होता।

इस प्रकार हम देखते है कि सिद्धान्ततः मुस्लिम महिलाओं को हिन्दू महिलाओं की तुलना में अधिक अधिकार प्रदान किये हैं, किन्तु पर्दा-प्रथा के प्रचलन एवं अशिक्षा के कारण वे अपने अधिकारों का प्रयोग करने में असफल रही हैं और आज भी उनकी स्थिति काफी दयनीय है।

हिन्दू तथा मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति की तुलना

महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही महिलाओं की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। अब उनकी स्थिति में काफी सुधार भी हुआ है। पश्चिमीकरण आधुनिकीकरण, लौकिकीकरण तथा जातीय गतिशीलता से महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को उन्नत करने में काफी योग दिया है। कई महिलाएं औद्योगिक संस्थाओं और विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी करने लगी हैं। वर्तमान समय में महिलाओं की स्थिति में निम्नलिखित परिवर्तन हुए जो इस प्रकार हैं-

  1. सामाजिक जागरूकता में वृद्धि- पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं की सामाजिक जागरूकता में काफी वृद्धि हुई है। अब महिलाएँ पर्दा प्रथा को बेकार समझने लगी हैं। अब बहुत- सी महिलाएँ घर की चहारदीवारी के बाहर खुली हवा में साँस ले रही हैं। आजकल कई महिलाओं के विचारों और दृष्टिकोणों में इतना अधिक परिवर्तन आ चुका है कि अब वे अन्तर्जातीय विवाह, प्रेम-विवाह और विलम्ब-विवाह को अच्छा समझने लगी हैं। जातीय नियमों और रूढ़ियों के प्रति महिलाओं की उदासीनता बराबर बढ़ रही है। अब ते रूढ़िवादी सामाजिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हैं। आज अनेक महिलाएं महिला संगठन को और क्लबों की सदस्य हैं। कई महिलाएँ तो समाज कल्याण के कार्य में लगी हुई हैं।
  2. आर्थिक क्षेत्र में वृद्धि- ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाली करीब 75 प्रतिशत महिलाएँ आर्थिक दृष्टि से कोई-न-कोई कार्य करती हैं। नगरों में भी निम्न वर्ग की महिलाएँ घरेलू कार्यों और उद्योगों के माध्यम से कुछ-न-कुछ कमाती हैं। साधारणतः मध्यम और उच्च वर्ग की महिलाओं द्वारा आर्थिक दृष्टि से कोई काम करना बुरा समझा जाता रहा है, लेकिन औद्योगीकरण एवं आधुनिकीकरण ने महिलाओं की पुरुष पर आर्थिक निर्भरता को कम करने और उनकी स्थिति को उन्नत करने में योग दिया है। शिक्षा के व्यापक प्रसार, नयी-नयी वस्तुओं के आकर्षण, उच्च जीवन बिताने की बलवती इच्छा तथा बढ़ती हुई कीमतों ने अनेक मध्यम एवं उच्च वर्ग की महिलाओं को नौकरी या आर्थिक दृष्टि से कोई-न-कोई काम करने के लिए प्रेरित किया। अब मध्यम वर्ग की महिलाएँ उद्योगों, दफ्तरों, शिक्षण संस्थाओं, अस्पतालों, समाज कल्याण केन्द्रों एवं व्यापारिक संस्थाओं में काम करने लगी है। वर्तमान में भारत में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं का कुछ कार्यशील जनसंख्या में प्रतिशत 19.77 है।
  3. राजनीतिक चेतना में वृद्धि- स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् महिलाओं की राजनीतिक चेतना में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। जहाँ सन् 1937 में महिलाओं के लिए 41 स्थान सुरक्षित थे, वहां केवल 10 महिलाओं ने ही चुनाव लड़ा। भारत के नवीन संविधान के अनुसार सन् 1950 में महिलाओं को पुरुषों के बराबर नागरिक अधिकार प्रदान किये गये। 1952 में 23 महिलाएं लोकसभा के लिए चुनी गयी थीं जबकि 1984 के चुनावों में 65 महिलाओं ने सांसद के रूप में चुनाव में सफलता प्राप्त की। 1999 के लोकसभा चुनाव में महिला सांसदों की संख्या 26 थी परन्तु उनकी राजनीतिक चेतना काफी बढ़ी हुई है। पार्लियामेण्ट और विधानमण्डलों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या और विभिन्न गतिविधियों में उनकी सहभागिता, राज्यपाल, मन्त्री, मुख्यमन्त्री और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री तक के रूप में उनकी भूमिकाओं से स्पष्ट है कि इस देश में महिलाओं में अपने वोट का स्वतन्त्र रूप से उपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। भारतीय महिलाओं ने राज्यपालों, कैबिनेट स्तर के मन्त्रियों और राजदूतों के रूप में यश प्राप्त किया है।
  4. महिला शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति- स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् महिला शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। इसके पूर्व न तो माता-पिता लड़कियों को शिक्षा दिलाने के पक्ष में ही थे और न ही शिक्षा की दृष्टि से समुचित सुविधाएँ उपलब्ध थीं। सन् 1882 में लिखी-पढ़ी महिलाओं की कुल संख्या 2.054 थी जो सन् 1971 में 5 करोड़ 94 लाख तथा 1981 में 7 करोड़ 91.5 लाख से अधिक हो गयी। अब यह संख्या 10 करोड़ से भी अधिक हो चुकी है। 1991 की जनगणना के अनुसार महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत 39.29 तथा पुरुषों में 64.13 है। वर्तमान में लड़कियाँ व्यावसायिक शिक्षा भी ग्रहण कर रही है। शिक्षण से सम्बन्धित ट्रेनिंग कॉलेजों एवं मेडिकल कॉलेजों में लड़कियों की संख्या प्रति वर्ष बढ़ती ही जा रही है। वे अब कला, विज्ञान, वाणिज्य, गृहविज्ञान, शिल्पकला और संगीत की शिक्षा भी प्राप्त कर रही है। महिला-शिक्षा के व्यापक प्रसार ने महिलाओं को अपने व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के समुचित अवसर प्रदान किए हैं, उन्हें रूढ़िवादी विचारों से काफी सीमा तक मुक्त किया है।
समाजशास्त्र / Sociology – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!