समाज शास्‍त्र

राज्य का अर्थ एवं परिभाषा | राज्य एक अनौपचारिक अभिकरण | राज्य और शिक्षा

राज्य का अर्थ एवं परिभाषा | राज्य एक अनौपचारिक अभिकरण | राज्य और शिक्षा | Meaning and definition of state in Hindi | State is an informal agency in Hindi | State and Education in Hindi

राज्य का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of State)

सामान्यतः राज्य शब्द का प्रयोग राष्ट्र और सरकार के लिए किया जाता है। परन्तु वास्तव  में राज्य का अर्थ इन दोनों से भिन्न होता है। समाजशास्त्रीय भाषा में राज्य एक सामाजिक समूह होता है जिसकी अपनी भौगोलिक सीमा, जनसंख्या, सरकार और प्रभुसत्ता होती है।

परिभाषाराज्य की परिभाषा निम्नलिखित है-

गिलिन और गिलिन के शब्दों मेंराज्य एक निश्चित गू-भाग में बसे व्यक्तियों का प्रमुखता सम्पन्न राजनैतिक संगठन है। (The state is a sovereign political organization of the individuals occupying a definite territory.)

– Gellin and Gillin

मैकाइवर एवं पेज ने राज्य की परिभाषा और अधिक स्पष्ट रूप में की है। उनके शब्दों में-

“राज्य एक संगठन है जो किसी निश्चित भू-धार पर सर्वशक्तिमान सरकार के माध्यम से शासन करता है। यह समान्य नियमों द्वारा व्यवस्था कायम रखता है। (A state is am organization which rules by means of a supreme government over a territory. It maintains order through cordon law. – Maciever and Page

राज्य एक अनौपचारिक अभिकरण

शिक्षा के सन्दर्भ में राज्य का प्रयोग प्रायः राज्य की सरकार के लिए होता है। कोई भी राज्य सर्वशक्तिमान सरकार के द्वारा अपनी जनता को नियन्त्रण में रखता है, उसे सुरक्षा प्रदान करता है और उसकी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इस उत्तरदायित्व के निर्वाह हेतु उसे अपनी जनता के प्रत्येक नागरिक को कार्य के विभिन्न क्षेत्रों के लिए तैयार करना होता है और इस सबके लिए उसे शिक्षा की व्यवस्था भी करनी होती है। स्पष्ट है कि राज्य अथवा सरकार का गठन केवल शिक्षा की व्यवस्था हेतु ही नहीं होता, उसके अनेक कार्य होते हैं और उनमें एक कार्य अपने क्षेत्र में रहने वालों की शिक्षा की व्यवसथा करना होता है। अपने इस उत्तरदायित्व का निर्वाह भित्र-मित्र राज्य भिन्न-भित्र रूप में करते हैं। अतः राज्य शिक्षा का अनौपचारिक अभिकरण (Informal Afency) होता है।

राज्य और शिक्षा

(State and Education)

राज्य के उत्पत्ति काल पर विचार करने से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में मनुष्यों ने अपनी सुव्यवस्था के लिए सामाजिक समूहों की रचना की और अपने-अपने समूहों का नेता चुना जिसकी आज्ञा का पालन करना समूह विशेष के प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य होता था। आगे चलकर इन्हीं समूह विशेषों को राज्य और नेता विशेषों को राजा की संज्ञा दी गई। तब विभिन्न प्रकार के हथियार बनाने और रण कौशल के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना राज्य अथवा राजा का मुख्य कार्य समझा जाता था। परन्तु जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ राज्य और राजा के सम्प्रत्यय में भी परिवर्तन हुआ। आज संसार में अनेक प्रकार के राज्य है और उनमें से किन्हीं राज्यों में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का कर्तव्य माना जाता है और किन्हीं राज्यों में नहीं। विद्वानों में इस विषय में बड़ा मतभेद है कि शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण हो अथवा न हो। इस सन्दर्भ में तीन मत हैं-

(1) शिक्षा पर राज्य का पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए : समाजवादी विचारक शिक्षा पर राज्य का पूर्ण नियन्त्रण आवश्यक मानते हैं। आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व ग्रीस दर्शनिक अरस्तु ने यह मत व्यक्त किया था कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति करना होना चाहिए और यह तभी सम्भव हो सकता है जब शिक्षा राज्य के पूर्ण नियन्त्रण में हो। निरंकुश शासकों ने अरस्तु की बात को समझा और शिक्षा पर पूर्ण नियन्त्रण रक्खा। आज भी कुछ राज्य शिक्षा पर पूर्ण नियन्त्रण रखते हैं। शिक्षा पर राज्य के पूर्ण नियन्त्रण होने के अपने गुण-दोष है।

शिक्षा पर राज्य का पूर्ण नियन्त्रण होने से सबसे बड़ा लाभ यह है कि उसका स्वरूप निश्चित हो जाता है; उसके उद्देश्य, उसका, ढाँचा, ढाँचे में प्रत्येक स्तर की पाठ्यचर्या और प्रत्येक स्तर के लिए न्यूनतम अधिगम उपलब्धि निश्चित हो जाती है। इसके द्वारा हम राज्य के प्रत्येक नागरिक को वैसा बना सकने में सफल होते हैं जैसा उसे बनाना चाहते हैं। ये नागरिक राष्ट्र के लिए समर्पित होते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में वित्त की समस्या भी उपत्र नहीं होती। शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था भी ठीक रहती है और शिक्षकों की स्थिति भी अपेक्षाकृत अच्छी होती है।

शिक्षा पर राज्य के पूर्ण नियन्त्रण होने में कुछ हानियाँ भी हैं। इसका सबसे बड़ा दोष तो यह है कि शिक्षा राज्य की दासी होती है, वह एकांगी और संकीर्ण होती है। उसके द्वारा अन्धे राष्ट्रभक्त अवश्य तैयार किए जाते हैं परन्तु स्वतन्त्र चिन्तक नहीं। राज्य प्रायः बच्चों की रूचि, रूझान और योग्यताओं का ध्यान रखे बिना उन सबकों एकसा बनाने का प्रयास करते हैं। और यदि कहीं राज्य (सरकार) का निर्णय गलत हो गया तो पूरा देश चौपट समझिए। वैसे भी राज्य नियन्त्रित शिक्षा प्रगतिशील नहीं होती।

(2) शिक्षा पर राज्य का कोई नियन्त्रण नहीं होना चाहिए: व्यष्टिवादी विचारक शिक्षा पर राज्य के नियनत्रण का विरोध करते हैं। इस सन्दर्थ में पाश्चात्य विचारक लॉक, मिल और बैन्यभ आदि के नाम उल्लेखनीय है। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यष्टित्य होता है, उसे शिक्षा द्वारा अपना विकास करने का अधिकार होना चाहिए। और यह राज्य नियन्त्रित शिक्षा में असम्भव है अतः शिक्षा राज्य के नियन्त्रण से मुक्त होनी चाहिए। परन्तु यदि निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाए तो राज्य के नियन्त्रण से मुक्त शिक्षा के भी अपने गुण-दोष हैं।

गुणों में सबसे बड़ा गुण यह है कि इस शिक्षा द्वारा व्यक्ति को अपनी रूचि, रूझान और योग्यतानुसार विकास करने के स्वतन्त्र अवसर प्राप्त होते हैं। दूसरा लाभ यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी स्पर्धा रहती है, उसमें निरन्तर विकास होता है और वह समय की मांगों को पूरा करती हुई आगे बढ़ती है और राज्य को स्वतन्त्र विचारक प्राप्त होते हैं जो राज्य के स्वरूप को बेहतर बनाने में सहायक होते हैं।

दोष भी इसमें कम नहीं होते। पहली बात तो यह है कि राज्य के नियन्त्रण के अभाव में राज्य विशेष की शिक्षा का स्वरूप ही निश्चित नहीं होता, न उसके उद्देश्य निश्चित होते हैं और न पाठ्यचर्या। इसके अतिरिक्त यह शिक्षा केवल उन्हें ही प्राप्त हो पाती है जो इसे खरीद सकते हैं, जन साधारण को यह सुलभ नहीं हो पाती। उस स्थिति में देश में निरक्षरता बढ़ने की सम्भावना रहती है। और विद्यालयों एवं शिक्षकों की दशा भी प्रायः खराब रहती है क्योंकि शिक्षण संस्थाओं को चलाने वालों का उद्देश्य ही लाभ कमाना होता है।

(3) शिक्षा पर राज्य का अर्द्ध नियन्त्रण होना चाहिए : व्यष्टिवाद और समाजवाद दो विरोधी विचरधाराएँ हैं। व्यष्टिवादी समाज को व्यष्टि के लिए मानते है और समाजवादी व्यष्टि को समाज के लिए मानते हैं। समन्वयवादी व्यष्टि को समाज के लिए और सालको व्यष्टि के लिए मानते हैं। लोकतन्त्रवादी विचारक इसी कोटि में आते हैं। इनके अनुसार राज्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों के लिए निश्चित आयु अथवा स्तर तक की, अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करे और यह शिक्षा इस प्रकार की हो कि यह व्यष्टि के स्वतन्त्र विकास में सहायक हो जिससे व्यष्टि और समाज (राज्य) दोनों का हित हो। यह तभी सम्भव है जब शिक्षा के नियोजन में राज्य (सरकार) और जनता दोनों की भागीदारी हो। राज्य का कर्तव्य हो कि वह शिक्षा की व्यवस्था का उत्तरदायित्व ले और जनता का कर्तव्य हो कि वह राज्य को इस कार्य के सम्पादन में उसका सहायोग करे, चाहे शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करने का प्रश्न हो, चाहे उसकी पाठ्यचर्या निश्चित करने का प्रश्न हो, चाहे उसकी संरचना निश्चित करने का प्रश्न हो, चाहे उसकी व्यवस्था का प्रश्न हो और चाहे उसमें सुधार करने का प्रश्न हो।

कुछ लोग, विशेषकर साम्यवादी इसे दुहरी व्यवस्था कहकर इसका विरोध करते हैं। उनका तर्क है कि इस प्रकार की व्यवस्था में दो प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होती है- एक सरकार द्वारा जन साधारण के लिए और दूसरी निजी संस्थानों द्वारा धनी वर्ग के लिए। परिणामतः धनी लोग शिक्षा को खरीद लेते हैं और ऊँचे-ऊंचे पदों एवं व्यवसायों पर उनका कब्जा बना रहता है। निर्धन लोग ऐसा नहीं कर पाते अतः पिछड़ जाते हैं।

लोकतन्त्रीय राज्य इस खतरे को जानते हैं और निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देकर उन्हें शिक्षा के समान अवसर सुलभ कराते हैं। पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण भी इसी खतरे से निपटने के लिए किया जाता है। थोड़ी सी सावधानी बरतने पर यह मध्यम मार्ग ही श्रेष्ठतम मार्ग हो सकता है अतः हम इसी का समर्थन करते हैं।

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Pankaja Singh

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