अर्थशास्त्र

रोमेश चन्द्र दत्त के आर्थिक विचार | Economic Thoughts of Romesh Chandra Dutt in Hindi

रोमेश चन्द्र दत्त के आर्थिक विचार | Economic Thoughts of Romesh Chandra Dutt in Hindi

रोमेश चन्द्र दत्त के आर्थिक विचार

रोमेश चन्द्र दत्त का जन्म बंगाल में 1848 ई० में कलकत्ता में हुआ था। 1869 ई० में वे आई० सी०एस० बने तथा 1899 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। कुछ वर्ष पश्चात् लन्दन विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में उन्होंने कार्य किया तथा “Economic History of India” पुस्तक लिखी उनकी दूसरी पुस्तक “Famines in India” है जो 1900 में लिखी गई। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय कृषकों की दशा का इतना सजीव वर्णन किया है कि रूस के युवराज क्रोपोटकिन ने उनको लिखा था कि आपकी कृषक जनसंख्या की दशा रूसी कृषकों के बहुत अधिक समान है, और अब मेरे मस्तिष्क में यह विचार रहेगा कि रूस तथा यूरोप के किसी भाग में भी कृषि सम्बन्धी दोषों के विरुद्ध जागृति उत्पन्न करने के लिए जो कुछ भी हम करेंगे वह अप्रत्यक्ष रूप से उन करोड़ों व्यक्तियों के लिए होगा जिन तक हम बिना स्नेहभाव से नहीं पहुंच सकते।”

दत्त के आर्थिक विचार-

दत्त का मुख्य लगाव भारत को निर्धनता सम्बन्धी समस्या से था। उनके अनुसार भारतीय निर्धनता का मुख्य कारण ब्रिटिश शासन और उनकी नीतियाँ थीं। उसने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि भारत में अकालों का बार-बार उत्पन्न होना भारत की निम्न उत्पादकता और घरेलू उद्योगों का पतन, भारत में ब्रिटिश नीति के परिणाम थे। अकालों तथा अनिश्चित भूमि-कर के कारण ही भारत की दशा इतनी खराब हो गयी थी। यह सच है कि अकाल वर्षा के अभाव के कारण उत्पन्न हुए। किन्तु वास्तव में, उनका मुख्य कारण यह था कि भारतीय किसानों के पास पर्याप्त धन नहीं था। दत्त ने इन विषयों पर विस्तृत रूप से लिखा है। उन्होंने लिखा कि देश में उद्योग के आरम्भ के कारण ही कुटीर उद्योगों का पतन हुआ था और भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ा था। कृषि, जो इस देश में व्यक्तियों का मुख्य व्यवसाय है, सिंचाई सुविधाओं के अभाव तथा अनिश्चित भूमि-करों के कारण पिछड़ी हुई थी। दोषपूर्ण वैयत्तिक प्रशासन से स्थिति और भी खराब हो गयी थी। उनके अनुसार जनसंख्या का ऊँचा घनत्व, कृषि  वस्तुओं के निम्न मूल्य, भूमि अवस्था इत्यादि के कारण ही व्यक्यिों का जीवन स्तर नीचा था। उन्होंने बताया कि ग्रेट ब्रिटेन तथा आयरलैण्ड की अपेक्षा भारतीय करदाता को 40% अधिक कर देना होता था।” इसलिए उन्होंने ब्रिटिश संसद तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीतियों को स्वार्थी कहा था।

रोमेशचन्द्र दत्त ने भारत में निर्धनता को नियन्त्रित करने के लिए अनेक प्रकार के उपाय बताये थे। प्रथम था, भारत में ग्रामीण क्षेत्र में बेकारी तथा अर्द्ध-बेकारी को दूर करने के लिए कुटीर उद्योगों की पुनर्स्थापना । उनका प्रस्ताव था कि सिंचाई सुविधाओं का अधिकाधिक विस्तार किया जाये ताकि वर्षा पर कृषकों को निर्भरता कम हो सके। दूसरे, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सरकार अपने खर्चे को कम करे और इंगलैण्ड में अपनी खरीदारी को कम करे। उनका सुझाव था कि राजकीय ऋण सम्बन्धी ब्याज दर को कम किया जाय। इन सुझावों का मुख्य उद्देश्य भारतीय धन को विदेशों को जाने से रोकना था।

दत्त ने तत्कालीन भूमि व्यवस्था को सुधारने के लिए एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की थी। उनका प्रधम सुझाव यह था कि भूमि व्यवस्था 30 वर्षों से अधिक काल के लिए निश्चित न की जाय। भूमि-कर पर 6% से अधिक दर से कर न लगाया जाय और इससे प्राप्त होने वाली आय को कृषकों के प्रत्यक्ष लाभ के लिए खर्च किया जाय। जिन क्षेत्रों में स्थायी बन्दोबस्त लागू नहीं किया गया था और मालगुजारी राज्य की ओर से जींदारों द्वारा एकत्र की जाती है वहाँ पर मालगुजारी की दर उपज को 15% से अधिक नहीं होनी चाहिए। जिन क्षेत्रों में मालगुजारी राज्य के द्वारा एकत्र की जाती है वहाँ पर मालगुजारी की दर 20% से अधिक नहीं होनी चाहिए और सम्पूर्ण जिले की औसत दर 10% से अधिक नहीं होनी चाहिए। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि भारतीय मिल उद्योगों से उत्पादन कर हटाया जाय, राजकीज ऋण सम्बन्धी ब्याज दर को कम किया जाय, ग्रेट ब्रिटेन में किये गये नागरिक एवं सैनिक व्यय में इंगलैण्ड की सरकार योगदान के नागरिक सेवाओं में अधिकाधिक भारतीयों को नियुक्त किया जाय, मालगुजारी के अतिरिक्त भूमि सम्बन्धी अन्य करों को भंग किया जाय इत्यादि।

रोमेशचन्द्र दत्त पहले भारतीय थे जिन्होंने भारत का आर्थिक इतिहास विस्तार में लिखा था। आज भी इस पुस्तक का उतना ही महत्त्व है जितना उस समय था। कुटीर उद्योग सम्बन्धी उनके विचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वास्तव में, दत के विचार इस विश्वास पर आधारित हैं कि राजनीतिक एवं आर्थिक घटनावृत्तों में पारस्परिक निर्भरता होती है। वह निर्बाधावादी नीति के समर्थक थे किन्तु उन्होंने कुछ विशेष परिस्थितियों में आर्थिक शक्तियों के सुचारु रूप से कार्य करने के लिये राजकीय हस्तक्षेप का भी समर्थन किया।

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Pankaja Singh

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