अर्थशास्त्र

प्रो० जे०के० मेहता के आर्थिक विचार | प्रो० जे०के० मेहता की पुस्तके | प्रो० जे०के० मेहता द्वारा प्रतिपादित अर्थशास्त्र की परिभाषा | प्रो० जे०के० मेहता की परिभाषा की आलोचनाएँ  |  Economic ideas of Prof. J.K. Mehta in Hindi

प्रो० जे०के० मेहता के आर्थिक विचार | प्रो० जे०के० मेहता की पुस्तके | प्रो० जे०के० मेहता द्वारा प्रतिपादित अर्थशास्त्र की परिभाषा | प्रो० जे०के० मेहता की परिभाषा की आलोचनाएँ  |  Economic ideas of Prof. J.K. Mehta in Hindi

प्रो० जे०के० मेहता के आर्थिक विचार

प्रो० जे०के० मेहता इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष रहे । सेवा निवृत्ति के पश्चात् चे इसी विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के मानद प्रोफेसर के रूप में, 10 अगस्त 1960 को अपनी मृत्यु होने तक, कार्य करते रहे थे। वह एक सिद्धहस्त लेखक थे और उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। उनका मुख्य योगदान आर्थिक सिद्धान्त के क्षेत्र में है। उनकी गणना भारत के गिने चुने चौलिक विचारकों में की जाती है। “अर्धशास्त्र के मूलाधार” (Foundations of Economics) उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक है। उनके प्रमुख आर्थिक विचार निम्नांकित हैं-

(1) अर्थशास्त्र की परिभाषा एवं क्षेत्र-

प्रो० मेहता ने अर्थशास्त्र की परिभाषा एवं क्षेत्र पर सर्वथा दार्शनिक दृष्टिकोण से विचार किया है। इनके अनुसार उपयोगिता का अधिकतमीकरण (maximisation of utility) अन्य कुछ नहीं वरन् कष्ट का निवारण एवं न्यूनतमीकरण (removal minimisation of pain) है। उनका कहना है कि चूंकि सभी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं की जा सकती है इसलिए कुछ आवश्यकताएँ तात्कालिक सन्तुष्टि के लिए चुन ली जाती हैं। विभिन्न आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से प्राप्त होने वाले सन्तोष की मात्रा उनकी प्रकृति और तीव्रता पर निर्भर होती है। प्रथम सन्तुष्टि हेतु आवश्यकताओं का चुनाव व्यक्ति विशेष के पास प्रसाधनों की उपलब्धता द्वारा शासित होता है। कितनी उपयोगिता मिलने की आशा है यह उस क्रम को निर्धारित करेगी जिसमें कि विभिन्न आवश्यकताओं को रखा जायेगा। यदि बात यहीं तक थी, तो अर्थशास्त्र को निम्न प्रकार परिभाषित करना सही होता कि यह (अर्थशास्त्र) “उपयोगिता के अधिकत्तमीकरण सम्बन्धी प्रयत्नों के रूप में मानवीय व्यवहार का विज्ञान है।” मेहता जी ने बताया है कि “कि उपयोगिता की प्राप्ति आवश्यकताओं की समाप्ति (removal of wants) द्वारा होती है और चूंकि प्रत्येक मामले में उपयोगिता की मात्रा उस कष्ट की मात्रा के तुल्य है जो कि आवश्यकता की अनुभूति के कारण उत्पन्न होता है, इसलिए यह कह सकते हैं कि उपयोगिता कष्ट के निवारण (या समाप्ति) की सूचक मात्र है।” चूँकि समस्त आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं की जा सकती है इसलिए कष्ट को भी शून्य (zero) तक घटाना सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त, आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने की प्रक्रिया में कुछ नयी आवश्यकताओं का भी सृजन हो जाता है और इसलिए उपयोगिता को अधिकतम करने का अन्तिम लक्ष्य (final end) कष्ट में लगातार वृद्धि करता रहता है, जबकि हम सब इसे (कष्ट को) कम करने के इच्छुक रहते हैं।

इस प्रकार, वह इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कष्ट से वास्तविक राहत (या मुक्ति) आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में ही नहीं, वरन् यह सुनिश्चित करने में सन्निहित है कि भविष्य में नयी आवश्यकताएँ अनुभव न की जाएँ। जबकि एक अल्पदर्शी व्यक्ति के लिए अर्थविज्ञान किसी समय विशेष पर उपयोगिता को अधिकतम करने के प्रयत्नों से सम्बन्धित मानव व्यवहार का अध्ययन करना है, तब एक दूरदर्शी व्यक्ति के लिए वह (अर्थ विज्ञान) कष्ट को न्यूनतम करने या आवश्यकताओं से मुक्ति पाने के प्रयत्नों से सम्बन्धित मानव व्यवहार का अध्ययन करना होता है। अन्य शब्दों में, अर्थ विज्ञान का क्षेत्र एवं स्वभाव व्यक्ति-प्रति-व्यक्ति तक भिन्न रहेगा किन्तु यह भिन्नता उसी समय तक होगी जिस सीमा तक कि मानव व्यवहार के उद्देश्य व्यक्ति-प्रति-व्यक्ति भिन्न होंगे। यह अन्तर, कोई बुनियादी अन्तर नहीं है और इस तथ्य में निहित है कि कुछ व्यक्ति तात्कालिक परिणामों की सोचते हैं जबकि अन्य व्यक्ति अन्तिम परिणामों की चिन्ता करते हैं। अतः उनका कहना है कि “हमारी क्रियाओं का वास्तविक उद्देश्य आवश्यकता रहित अवस्था को प्राप्त करना है, क्योंकि अन्य किसी भी तरीके में आवश्यकताओं से स्थायी मुक्ति या कष्ट को पूर्ण अनुपस्थिति प्राप्त होना सम्भव नहीं है। इसीलिए अर्थशास्त्र आवश्यकता रहित अवस्था की प्राप्ति के प्रयत्नों से सम्बन्धित मानव व्यवहार का अध्ययन करने वाला विज्ञान बन जाता है।” इस प्रकार, मेहता जी के अनुसार, अर्थशास्त्र में उस विवेक युक्त व्यवहार का अध्ययन किया जाता है जिसका उद्देश्य आत्मा को आवश्यकताओं की दासता से मुक्त करने पूर्ण आनन्द / perfect happiness) प्राप्त करना है। यही अर्थशास्त्र का क्षेत्र है।

(2) व्याज- व्याज के सिद्धान्तों के विषय में प्रो० मेहता का कहना है कि विभिन्न लेखकों ने व्याज देने लेने के विभिन्न कारण बताये हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, वह (व्याज) प्रतीक्षा (waiting) के लिए अथवा पिरति (abstience) के लिए या मुद्रा के ऋण (loan of money) के लिए किया जाने वाला भुगतान है। इस प्रकार एक दृष्टिकोण के अनुसार, ब्याज पूँजी की सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होता है और दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार विरति द्वारा, जबकि तीसरे दृष्टिकोण के अनुसार वह (ब्याज) प्रतीक्षा के लिए चुकायी जाने वाली कीमत है। प्रो० मेहता का विश्वास है कि इन दृष्टिकोणों में कोई मौलिक भिन्नता नहीं है और उन्होंने इन सब सिद्धान्तों को एक सिद्धान्त में एकीकृत (combine) कर दिया है। उन्होंने ब्याज की परिभाषा उस कीमत के रूप में की है जो कि पूँजी के प्रयोग के लिए दी जाती है अथवा जो प्रतीक्षा करने या वितरित रहने का पुरस्कार होती है। संक्षेप में, ब्याज “पूँजी की कमाई” (आय) है। पूँजी की कमाई (earning of capital) अन्तिम प्रयुक्त पूँजी-इकाई (अर्थात् पूँजी की सीमान्त इकाई) की उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है जबकि पूँजी की कितनी मात्रा प्रयोग की जायेगी यह पूँजी की पूर्ति के द्वारा तय होगी और पूँजी की पूर्ति (supply of capital) निर्भर करती है पूँजी का सृजन करने की लागत (cost of creating capital) पर तथा अन्तिम विश्लेषण में पूँजी के सृजन की लागत अन्य कुछ नहीं है वरन् ‘प्रतीक्षा करने या विरत रहने की लागत’ है। यह लागत इस बात पर निर्भर है कि व्यक्ति वर्तमान आनन्द को भावी आनन्द पर कितनी वरीयता (preference) देता है। साम्यं की दशा में पूँजी की सीमान्त उत्पादकता प्रतीक्षा की सीमान्त लागत या सीमान्त पर प्राथमिकता (अर्थात् उपयोग की अपेक्षा वर्तमान उपयोग की दी जाने वाली प्राथमिकता) के बराबर होती है।

(3) स्थैतिक एवं प्रावैगिक अर्थशास्त्र- अर्थशास्त्र के स्थैतिकी एवं प्रावैगिकी दृष्टिकोणों को स्पष्ट करते हुए प्रो० मेहता ने लिखा है कि “यहाँ गणित, दर्शनशास्त्र एवं सामान्य ज्ञान का मिलन स्थान है” (a meeting ground for mathematics, philosophy and common sense)। स्थैतिकी (statics) एवं प्रावैगिकी (dynamics) के सम्बन्ध में दर्शनिक दृष्टिकोण गणितीय दृष्टिकोण से कुछ निम्न है। अधिकांश गणितशास्त्रियों का कहना है कि प्रावैगिकता एक अधिक प्रचलित दशा है जबकि स्थैतिक दशा प्रावैगिकता की एक विशेष दशा है। यह धारणा प्रो० मेहता के अनुसार, सही नहीं है। उनके मतानुसार, प्रावैगिकी का ढाँचा स्थैतिकी की ईटों से बनता है। प्रावैगिकी एक धनात्मक विचार (positive concept) वही है, यह स्थैतिकी का विपरीत विचार (negation of statics) है। यदि इस दृष्टिकोण को स्वीकार करें, तो स्थैतिक विश्लेषण का महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा। हम “समय” (time) को परिवर्तित करके स्थैतिकी को प्रावैगिकी में परिणत कर सकते हैं और जब ऐसा किया है अर्थात् एक परिवर्तनशील चर के रूप में समय को विचार में लिया जाता है, जब प्रणाली में आशा (expectation) का प्रवेश एक समन्वयकारी घटक के रूप में होता है।” एक प्रावैगिक अर्थव्यवस्था के हैरोड, हैब्सन, हिक्स आदि के द्वारा प्रस्तुत कुछ मॉडलों की परीक्षा करने के उपरान्त वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इन सभी में कुछ सामान्य लक्षण (common features) विद्यमान हैं।

(4) कल्याणवादी अर्थशास्त्र- प्रो० मेहता ने कल्याणवादी अर्थशास्त्र (welfare economics) का नया विचार विकसित किया है। उनके अनुसार, कल्याण में सुख (pleasure) और सन्तोष (satisfaction) का समावेश है। ‘सामाजिक कल्याण’ भी एक प्रकार का कल्याण ही है और चूँकि कल्याण का सम्बन्ध मस्तिष्क मन की दशा (state of mind) से होता है इसलिए ‘सामाजिक कल्याण’ कल्याण का वह रूप है जो कि व्यक्ति विशेष के मस्तिष्क या मन में बसा हुआ है। वह कई व्यक्तियों के मतिष्क में एक जैसा नहीं होता क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा अलग-अलग होती है। यदि हम सामाजिक कल्याण को एक समाज में रह रहे रात्री व्यक्तियों के कल्याणों का कुल योग (sun total of the welfares) मान लें, तो ऐसा कुल योग किसी न किसी व्यक्ति के मस्तिष्क में अवश्य विद्यमान होना चाहिए इस प्रकार, सामाजिक कल्याण को अधिकतम करना एक विशेष व्यक्ति के मस्तिष्क में कल्याण को अधिकतम करने की समस्या होती है। किन्तु ऐसे किसी संवेदनशील मस्तिष्क (sensitive mind) का पता लगाना कठिन है जो कि अन्य व्यक्तियों के अनुभव को सही-सही रूप से व्यक्त कर सके। किसी समाज के लिए जीवन मूल्यों का निर्धारण कोई ‘सुपर मैन’ (super man) ही कर सकता है। इस प्रकार, कल्याण एक नैतिक, विचार (ethical concept) है। सामाजिक कल्याण की अन्तर्वस्तुएँ (contents) ऐसे व्यक्ति द्वारा निर्धारण के लिए छोड़ दी जाती है जो कि एक आदर्श मानव (सुपर मैन) हो। यह आवश्यक नहीं है कि उसका विचार (concepts) आवश्यक ही उपयोगी हो, किन्तु निश्चय ही वह विचार कुछ उद्देश्य तो सिद्ध कर ही सकता है और हमें यह अनुभव करा सकता है कि सामाजिक कल्याण एक व्यक्ति के मस्तिष्क में सन्तोषों का योग (summation of satisfaction) होता है। अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने सामाजिक कल्याण की गणना का प्रयास किया है किन्तु ऐसा योग मस्तिष्क से बाहर होने के कारण कठिनाई उत्पन्न कर देता है। मेहता के शब्दों में, “सामाजिक कल्याण के अध्ययन का और इस प्रकार उसे मापने का एकमात्र सन्तोषप्रद तरीका इसे उस व्यक्ति के कल्याण से अभिव्याप्त (identify) करना है जो कि कल्याण को मापने के कार्य को सामाजिक कल्याण की गणना सभी व्यक्तियों के कल्याण को जोड़कर कर नहीं की जा सकती है। यह एक एकीकृत इकाई समाज के कल्याण का विचार है।”

वह इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सामाजिक कल्याण की कोई वस्तुनिष्ठ कसौटियां (objective tests) नहीं हैं। किन्तु इससे क्या फर्क पड़ता है? विशुद्ध अर्थशास्त्र (pure economics) के अध्ययन में भी हम एक ऐसे क्षेत्र में विचरते हैं जिसका तथाकथित वास्तविक जीवन से नगण्य सम्बन्ध होता है।”

(5) हिंसा एवं अहिंसा- प्रो० मेहता के अनसार हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध अंतरात्मा से होता है। अर्थविज्ञान आवश्यकता को (Conscience) सन्तुष्ट करने सम्बन्धी क्रियाओं के रूप में व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है। किन्तु एक व्यक्ति के लिए सर्वोत्तम बात ‘आवश्यकता रहित’ (want less) बन जाना है। किन्तु आवश्यकता रहित होने का आशय प्रयत्न रहित (actoiontess) होने से नहीं लगाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति को अपने को वातावरण (environment) के अनरूप ढाल ले, तो कोई आवश्यकताएँ नही होंगी। किन्तु यदि मनुष्य वातावरण के अनुरूप नहीं बनता और उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया करता है, तो उसे आवश्यकताओं का अनुभव होगा। आवश्यकताओं का पूर्ण उन्मूलन तभी हो सकता है जबकि व्यक्ति वातावरण के प्रति समर्पित हो जाए। जब कभी वातावरणों में संघर्ष हो तब व्यक्ति को चाहिए कि वह अन्तर्आत्मा की, आवाज के अनुसार चले। अन्तआत्मा के आदेशों का पूर्णतः पालन करना व्यक्ति को आवश्यकता रहित अवस्था में पहुंचाता है। अतः प्रो० मेहता का कहना है कि हम जिस आवश्यकता रहित अवस्था की चर्चा कर रहे हैं वह सही अर्थ में अहिंसा ही है।”

प्रो० मेहता ने अर्थशास्त्र को व्रत रखने (fasting) से सह-सम्बन्धित (correlatc) किया है। व्रत सम्बन्धी उनको धारणा यह है कि तन और मन दोनों को ही साथ साथ व्रत करना चाहिए। अन्य शब्दों में, शारीरिक व्रत रखने (bodily fasting) के साथ-साथ मानसिक व्रत रखना (mental fasting) भी आवश्यक है। अर्थात्, जब कोई व्यक्ति व्रत रखे, तो उसके शरीर को भोजन का कोई विचार नहीं करना चाहिए। व्रत रखने का सप्रभाव न केवल शरीर से जहरीले तत्वों को समाप्त करने का है वरन् मन में नेक (pious) और स्वार्थ रहित (selfless) विचार उत्पन्न करने का भी है जो कि अच्छी चीजों को आकर्षित करता है। इस प्रकार, वह (व्रत) अांछनीय विचारों को खत्म करता है जो कि बहुधा स्नायु प्रणाली पर भारी दबाव डाला करते हैं। प्रो० मेहता का कहना है कि व्रत की यह धारणा एक फर्म (firm) पर भी लागू की जा सकती है। जब कोई फर्म ऐसा माल बनाती है जो कि आवश्यकता का मेल नहीं रखता और इसलिए अपना माल नहीं बेच पाती है, तब वह जहरीले (या व्यर्थ) उत्पाद संचय कर लेती है। ऐसी परिस्थिति से केवल व्रत रख कर ही बचा जा सकता है। एक फर्म का शारीरिक व्रत तो यह है कि वह उस माल का उत्पादन अब और न करे तथा उसका मानसिक व्रत रखना यह है कि उसके संगठनकर्ता एक प्रतिबन्धित ढंग से विचार करें। व्रत रखने के लिए, संगठनकर्ताओं को ‘नेक’ विचार करने चाहिए अर्थात् अन्य उत्पादकों के बाजारों पर कब्जा करने का विचार नहीं करना चाहिए। अन्य शब्दों में, संगठनकर्ताओं को ‘अहिंसक (non-violent) बनाना चाहिए। अतः प्रो० मेहता का सुझाव है कि आधुनिक उद्योग-प्रणाली की बीमारी को समाप्त करने और उसे स्वस्थ संचालन में समर्थ बनाने हेतु उत्पादकों से व्रत रखने का अनुरोध करना चाहिए।

(6) लाभ सम्बन्धी विचार-जे०के० मेहता ने लाभ के बारे में जो विचार व्यक्त किये हैं वे अल्फ्रेड मार्शल, जे०बी० क्लार्क तथा फ्रेन्क एच० नाइट के विचारों से काफी मिलते-जुलते हैं। परन्तु लाभ के बारे में जो कुछ उन्होंने कहा है वह किसी सिद्धान्त से कम नहीं है। लाभ के सम्बन्ध में उनके विचारों को हम निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं।

(1) लाभ लागत का भाग होता है और किसी समय लाभ जोखिम की माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित होता है।

(2) लाभ साहसी का प्रतिफल होता है तथा यह सदैव धनात्मक होता है। लाभ किसी प्रकार की बचत नहीं है।

(3) लाभ जोखिम सहन करने का पुरस्कार है जिसको प्रायः साहसी सहन करते हैं। लाभ प्रबन्धक के वेतन से अलग होता है। जोखिम में हानि की संभावना भी हो सकती है। लाभ अनिश्चितता का पुरस्कार भी हो सकता है। एक स्थान पर मेहता कहते हैं कि “लाभ अनिश्चितता के कारण उत्पन्न होता है अथवा अधिक सही यह है कि लाभ अनिश्चितता उठाने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला पुरस्कार है।”.

(4) अर्थव्यवस्था में जोखिम का उदय भविष्य की अनिश्चितता, भविष्य की भिन्नता तथा व्यक्ति की अपूर्ण जानकारी आदि के कारण होता है। दूसरे शब्दों में, जोखिम प्रगतिशील अवस्था में ही होती है।

(5) मूल्य तथा लागत के अन्तर को आकस्मिक आय अथवा आकस्मिक व्यय कहना अधिक युक्तिसंगत है। वास्तविक लाभ से इसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। लाभ एक प्रकार से लगान के समान होता है।

(7) उपभोक्ता की बेशी-मेहता ने उपभोक्ता की बचत के सम्बन्ध में जो विचार दिए हैं वे उल्लेखनीय हैं। प्रो० मेहता ने मार्शल की भाँति वस्तु से प्राप्त उपयोगिता तथा उसके लिए दिए जाने वाले मूल्य को उपभोक्ता की बचत नहीं माना है। मेहता कहते हैं कि वस्तु से प्राप्त होने वाली उपयोगिता और व्यक्ति के द्वारा उसको प्राप्त करने में किए गये त्याग का अन्तर उपभोक्ता की बचत है। मेहता आगे कहते हैं कि उपभोक्ता की बचत एक प्रकार की लगान है।

मेहता कहते हैं कि लगान एक प्रकार की बेशी होती है। परन्तु सभी प्रकार की बेशियों को लगान को संज्ञा नहीं दी जा सकती है। लगान की अनुभूति ठोस पदार्थ के रूप में प्राप्त होती है जबकि उपभोक्ता की बेशी ऐक प्रकार का काल्पनिक लाभ होता है। मेहता कहते हैं कि बेशी केवल उपभोक्ता को ही नहीं वरन् वस्तुओं के सौदों में सभी पक्षों को प्राप्त होती है।

(8) उपयोगिता सम्बन्धी विचार-मेहता के विचारानुसार उपयोगिता मापनीय है और इसे मुद्रा के द्वारा मापा जा सकता है। जॉन आर०हिक्स, आर० जी०डी० एलन तथा फ्रान्सिस सीदरो एजवर्थ का कहना था कि उपयोगिता एक मनोवैज्ञानिक धारणा है जो व्यक्ति के बीच अलग-अलग होती है। इसलिए इस अमूर्त तत्व (उपयोगिता) की माप करना संभव नहीं है। परन्तु मेहता कहते हैं कि बहुत सी अमूर्त वस्तुएँ जैसे लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गति, तापक्रम आदि जब मापनीय हो सकते हैं तो उपयोगिता मापनीय क्यों नहीं हो सकती है।

जॉन आर०हिक्स तथा आर०जी०डी० एलन का कहना था कि उपयोगिता तुलनीय है, मापनीय नहीं है। इन अर्थशास्त्रियों ने उपयोगिता अथवा सन्तुष्टि की तुलना अनाधिमान चक्र विश्लेषण के द्वारा की है।

(9)साम्य का विचार- मेहता के अनुसार साम्य किसी समय से सम्बन्धित होता है। बिना समय के इसकी कल्पना करना व्यर्थ है। उन्होंने साम्य को स्थिर एवं गत्यात्मक साम्यों में वर्गीकृत किया है। उनके अनुसार स्थिर साम्य वह होता है जो किसी निर्धारित समयावधि के पश्चात् भी विद्यमान रहता है जबकि गत्यात्मक साम्य वह होता है जो निर्धारित समयावधि के पश्चात् भंग हो जाता है अर्थात् गत्यात्मक साम्य परिवर्तनशीलता का सूचक है और इसमें स्थिरता का अभाव पाया जाता है। किसी. देश की अर्थव्यवस्था में भी स्थिर तथा गत्यात्मक साम्य की स्थिति देखी जा सकती है। यदि एक देश में विकास की स्थिति रुक जाती है तो उसे स्थिर साम्य कहा जायेगा जबकि देश में निरन्तर विकास अथवा असाम्य की अवस्था को गत्यात्मक साम्य कहा जा सकता है।

(10) अन्य आर्थिक विचार- मेहता ने उक्त मौलिक विचारों के अतिरिक्त अन्य आर्थिक विचार भी व्यक्त किये हैं।

(अ) प्रतिनिधि फर्म- मेहता के प्रतिनिधि फर्म सम्बन्धी विचार उनका मौलिक विचार नहीं है। उन्होंने अल्फ्रेड मार्शल के विचार में थोड़ा संशोधन करके प्रतिनिधि फर्म को इस प्रकार परिभाषित किया है:

“प्रतिनिधि फर्म वह फर्म है जिसमें उद्योग के साथ-साथ विस्तृत एवं संकुचित होने की प्रवृत्ति होती है।” मेहता के अनुसार प्रतिनिधि फर्म के स्वरूप से उद्योग का स्वरूप पहचाना जा सकता है। यदि उद्योग विस्तारशील अवस्था की ओर होता है तो प्रतिनिधि फर्म भी उसी के अनुरूप अपना विस्तार कर लेगी। प्रतिनिधि फर्म के विस्तार की प्रवृति उद्योग के लाभ तथा संकुचन की प्रवृति उद्योग की हानि का सूचक होती है। इस प्रकार प्रतिनिधि फर्म अपने उद्योग का सही अर्थों में प्रतिनिधित्व करती है।

(ब) व्यष्टि तथा समष्टि अर्थशास्त्र- मेहता ने व्यष्टि तथा समष्टि अर्थशास्त्र के बारे में भी अपने विचार व्यक्त किये हैं। व्यष्टि अर्थशास्त्र व्यक्तिगत इकाइयों तथा समष्टि अर्थशास्त्र सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का अध्ययन करता है। मेहता के शब्दों में व्यक्ति अर्थशास्त्र वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों के निर्धारण का अध्ययन करता है जबकि दूसरी ओर समष्टि अर्थशास्त्र इस बात का अध्ययन करता है कि अर्थव्यवस्था में रोजगार, कुल उत्पादन तथा विभिन्न साधनों का हिस्सा किस प्रकार निर्धारित होता है। इस प्रकार व्यष्टि अर्थशास्त्र हमें किसी वस्तु के उत्पादन, उपयोग तथा कीमतों में होने वाले परिवर्तनों को बताता है। समष्टि अर्थशास्त्र हमें रोजगार, कुल उत्पादन तथा विभिन्न प्रकार के उत्पादकों की समय-समय पर होने वाली आय को दर्शाता है।”

मेहता को व्यष्टि तथा समलित अर्थशास्त्र सामन्धी व्याख्या में मौलिकता का अभाव है। उन्होंने इस सभ्य में अपने पूर्व विचारकों की बात को ही दोहराया है।

(स) बाजार- मेहता ने बाजार को परिभाषा तथा बाजार के विभिन्न प्रकारों के बारे में भी प्रकाश डाला है। बाजार को परिभाषित करते हुए मेहता कहते है कि “बाजार उस स्थिति को बताता है जिसमें एक वस्तु उस स्थान पर बिकने के लिए गाती है जहाँ उसकी माँग होती है।”

मेहता के द्वारा बाजार की इस परिभाषा से यह ज्ञात होता है कि बाजार की उपस्थिति के लिए केवल एक फ्रेता तथा एक विक्रेता ही पर्याप्त होते हैं यदि वे फ्रय-विक्रय करने की सामर्थ्य रखते हैं। यदि एक से अधिक क्रेता अथवा विक्रेता होंगे तब बाजार में कुल माँग तथा पूर्ति के आधार पर कीमतें निर्धारित होगी और यह तत्व एक ही बाजार से सम्बन्धित होंगे। इसी प्रकार एक वस्तु की अनेक इकाइयों को भी एक बाजार से सम्बन्धित मानना चाहिए यदि उनका क्रय-विक्रय वे ही क्रेता तथा विक्रेता करते हैं जिसका सम्बन्ध एक बाजार से ही होता है।

प्रो० जे०के० मेहता की पुस्तके

प्रो० जे०के० मेहता ने अपने आर्थिक विचार निम्नलिखित चार पुस्तकों में प्रस्तुत किये हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

(1) Studies in Advanced Economic Theory,

(2) Lectures on Modern Economic Theory,

(3) Foundations of Economics,

(4) Economics of Growth,

(5) APhilosophical, Interpretation of Economis,

प्रो० जे०के० मेहता द्वारा प्रतिपादित अर्थशास्त्र की परिभाषा –

प्रो० जे०के० मेहता ने आवश्यकताओं के न्यूनीकरण से सम्बन्धित निम्नलिखित परिभाषा प्रस्तुत की है-

“Economics is a science that studies human behaviour as a means to the end of wantlessness.”

“प्रो० मेहता ने आवश्यकता विहीनता अर्थात् पूर्णानन्द की प्राप्ति के लिये निम्नलिखित सूत्र दिया है-

QH = 100 X SW/TW

QH = Quotient of happiness (आनन्द की उपलब्धि)

SW = Satisfied wants (सन्तुष्ट आवश्यकताएँ)

TW = Total wants (कुल आवश्यकताएँ)

उपर्युक्त सूत्र के अनुसार कुल आवश्यकताएँ जितनी कम होंगी व्यक्ति अपने सीमित साधनों के द्वारा उतनी ही अधिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि कर पाएगा तथा वह उस व्यक्ति की अपेक्षाकृत जिसकी कुल आवश्यकताएँ अधिक होंगी अधिक सुखी रहेगा। मान लीजिए कि ‘क’ व्यक्ति की कुल आवश्यकताएँ 5 हैं और इनमें से वह 4 की सन्तुष्टि करने में सक्षम है तो उसके आनन्द की उपलब्धि QH = 100×4/5 = 80 होगी जबकि ‘ख’ व्यक्ति जिसकी आवश्यकताएँ 50 हैं

और वह इनमें से केवल 10 आवश्यकताओं की ही सन्तुष्टि कर पाता है तो उसके आनन्द का उपलब्धि QR- 100 x 10/50 = 20 होगी। इस प्रकार ‘क’ व्यक्ति ‘ख’ व्यक्ति की अपेक्षाकृत अधिक सुखी होगा क्योंकि ‘क’ व्यक्ति की कुल आवश्यकताएँ ‘ख’ व्यक्ति की अपेक्षाकृत कम है।

प्रो० जे०के० मेहता की परिभाषा की आलोचनाएँ-

मेहता की अर्थशास्त्र की परिभाषा की आलोचनाएँ निम्नांकित तथ्यों के आधार पर की जाती हैं।

(1) यह कहना त्रुटिपूर्ण है कि प्रत्येक व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य आवश्यकताओं को कम करके अधिकतम सुख की प्राप्ति करना है। वास्तविकता कुछ और ही होती है। अधिकतम सुख की अनुभूति आवश्यकताओं को कम करके प्राप्त नहीं होती है। व्यक्ति सुख-दुःख को जीवन-चक्र की भाँति स्वीकार करके कर्म में लगा रहता है।

(2) मेहता पर भी परम्परावादियों की भांति काल्पनिक मनुष्य की कल्पना का आरोप लगाया जाता है। परम्परावादी अर्थशास्त्रियों ने एक ऐसे आर्थिक मनुष्य की कल्पना की थी जो सदैव स्वार्थहित से प्रेरित होकर कार्य करता है। प्रो० मेहता ने भी एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना की है जो हमारे वास्तविक संसार में तो अपवाद स्वरूप ही देखने को मिल सकता है क्योंकि इच्छाओं से मुक्ति पाना एक साधारण व्यक्ति के वश में नहीं है।

(3) मेहता ने अर्थशास्त्र को आवश्यकताविहीनता की स्थिति तक पहुंचाने वाला शास्त्र बताया है। आलोचकों का कहना है कि जब आवश्यकताएँ ही समाप्त हो जाएंगी तो स्वयं अर्थशास्त्र का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

(4) आलोचक मेहता के विचारों को परस्पर विरोधी बताते हैं। उनके अनुसार अधिकतम सन्तुष्टि को प्राप्त करने के लिए अधिक से अधिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करना आवश्यक है और ऐसा तभी हो सकता है जब आवश्यकताएँ भी अधिक हों। प्रोफेसर मेहता द्वारा अधिकतम सन्तुष्टि आवश्यकताओं को न्यूनतम करके प्राप्त की जा सकती है जो प्रायः त्रुटिपूर्ण है।

(5) आलोचकों का यह भी कहना है कि मेहता की परिभाषा व्यावहारिक नहीं है भले ही यह सैद्धान्तिक एवं हिन्दू दर्शन के अनुरूप हो सकती है। आज अर्थशास्त्र का अध्ययन हमें आवश्यकताविहीनता की स्थिति को बताने वाला नहीं हो सकता है। यह तो हमें यह बताता है कि उपलब्ध भौतिक वस्तुओं के उपभोग द्वारा हम किस प्रकार अधिकतम सन्तुष्टि को प्राप्त कर सकते हैं।

(6) आलोचकों के मतानुसार मेहता के द्वारा अर्थशास्त्र की परिभाषा स्वयं एक परिभाषा नहीं होकर धार्मिक उपदेश का वर्णन करती है। कोई व्यक्ति जो वास्तविक संसार में रहता है उस व्यक्ति पर अन्तःकरण का ही प्रभाव नहीं होता है वरन् बाह्य जगत का वातावरण भी प्रभावित करता है। मेहता के काल्पनिक मनुष्य द्वारा आवश्यकताविहीनता की स्थिति को प्राप्त करना एक सामाजिक एवं व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं है। कोई आदर्श युग पुरुष की आवश्यकताविहीनता की स्थिति को प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है।

(7) आलोचकों का कहना है कि मेहता द्वारा मानसिक सन्तुलन शब्द का अनुचित होने के अतिरिक्त असंगत भी है। मन को प्रभावित करने वाली शक्तियों का बँटवारा धनात्मक एवं ऋणात्मक वर्गों में नहीं किया जा सका।

(8) आलोचकों का कहना है कि मेहता ने इच्छा और आवश्यकता को एक ही समझकर भारी भूल की है। इच्छा और आवश्यकता को दो पृथक् अर्थों में लिया जाता है। एक बीमार व्यक्ति के लिए दवा एक आवश्यकता है चाहे वह व्यक्ति उस दवा को लेने का इच्छुक हो अथवा न हो तथा उसके पास इस दवा रूपी आवश्यकता की पूर्ति करने के साधन हो अथवा न हों।

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Pankaja Singh

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