अर्थशास्त्र

कार्ल मार्क्स | मार्क्स का श्रम मूल्य सिद्धान्त | मूल्य सिद्धान्त की आलोचनाएँ

कार्ल मार्क्स | मार्क्स का श्रम मूल्य सिद्धान्त | मूल्य सिद्धान्त की आलोचनाएँ

कार्ल मार्क्स

“मार्क्स ने अपने युग के और बाद के युग के भी सिद्धान्तवादियों की सामान्य प्रवृत्ति का अनुसरण करते हुए मूल्य के सिद्धान्त को अपनी सैद्धान्तिक संरचना का आधार बनाया।”(शुम्पीटर) विवेचन करिए।

कार्ल मार्क्स को मार्क्सवाद का प्रर्वतक कहा जाता है। वैज्ञानिक समाजवाद के सम्पूर्ण इतिहास में विचारकों तथा लेखकों की सूचि में कार्ल मार्क्स का प्रथम स्थान है। सभी समाजवादी विशेष रूप से मार्क्सवादी समाजवादी, कार्ल मावर्स को अपना पैगम्बर मानते हैं। उनके लिये मार्क्स को पुस्तक Das Capital धार्मिक ग्रन्थ के समान है।

रिकार्डो के समान मार्क्स भी घने विवाद का विषय रहे हैं। किन्तु आज मार्क्स तथा उनके विचारों पर आधारित मार्क्सवाद पहले की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है।

कार्ल मार्क्स पर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों विशेष रूप से डेविड रिकार्डो का बहुत प्रभाव पड़ा था। मार्क्स का मूल्य निर्धारण का सिद्धान्त, बेशी मूल्य का सिद्धान्त, रिकार्डो के लगान तथा मूल्य निर्धारण के सिद्धान्त से बहुत अधिक प्रभावित है। वे माल्थस की भाँति निराशावादी नहीं थे। दूसरी ओर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों जे.बी. से के बाजार नियम को तथा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के मुक्त व्यापार तथा युक्त अर्थव्यवस्था के विचारों को अस्वीकार भी किया था। मार्क्स को यदि वैज्ञानिक समाजवाद का संस्थापक तथा समाजवादियों के प्रेरक तथा मार्गदर्शक और एक युग प्रवर्तक कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा।

मार्क्स का श्रम मूल्य सिद्धान्त

(Marx’s Labour Theory of Value)

जिस प्रकार स्मिथ को पुस्तक Wealth of Nations व्यापारवाद के लिए चुनौती थी, उसी प्रकार मार्क्स को पुस्तक Das Kapital पूँजीवाद के लिए चुनौती है। यों तो उसने अपनी पुस्तक में अनेक सिद्धान्त दिये हैं किन्तु मूल्य सिद्धान्त को केन्द्रीय महत्त्व का स्थान प्राप्त है। मार्क्स का मूल्य सिद्धान्त रिकार्डो के मूल्य सिद्धान्त का तार्किक निष्कर्ष मार्क्स ने मूल्य सिद्धान्त देते समय केवल यह बात ध्यान में रखी थी कि पूँजीपति श्रमिकों के शोषण पर जीवित हैं। लेकिन उसका यह विचार नया नहीं था। इसे उसने एडम स्मिथ और विशेषत: रिकार्डो से प्राप्त किया। अत्यन्त निसंकोच होकर तथा कोई संशोधन किए बिना ही उसने रिकार्डो के मूल्य सिद्धान्त को ग्रहण कर लिया और इसके द्वारा यह तर्क सम्मत निष्कर्ष निकालनेका प्रयत्न किया कि पूँजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण किया जाता है। संक्षेप में, यह सिद्धान्त अग्र प्रकार है-

  1. मूल्य मानवीय श्रम का प्रतिफल मात्र होना- वस्तु के दो मूल्य होते हैं, यथा : प्रयोग मूल्य (Value in use) एवं विनिमय मूल्य (Value in exchange)। मार्क्स का कहना था कि किन्हीं दो वस्तुओं का विनिमय करने के लिए तुलना द्वारा उनके आपसी सम्बन्ध का पता लगाना आवश्यक है। यह आपसी सम्बन्ध प्रयोग-मूल्य (उपयोगिता) के आधार पर मालूम किया जा सकता है या विनिमय मूल्य के आधार पर । यदि विषयगत शाखा (Subjective School) की बात मानकर प्रयोग मूल्य के आधार पर विनिमय किया जाय, तो यह त्रुटिपूर्ण होगा, क्योंकि उपयोगिता का सम्बन्ध हृदय से होने के कारण दोनों वस्तुओं का एक सामान्य आधार (Common Basis) नहीं बनने पाता। अतः विनिमय मूल्य ही विनिमय का आधार होना चाहिए किन्तु विनिमय मूल्य किस पर आधारित है? मार्क्स का विश्वास था कि विनिमय मूल्य प्रम पर आधारित है तब ही तो इन्होंने कहा है कि “मूल्य समरूप मानवीय श्रम का प्रतिफल माल है” (Value in mere consclation of homogeneous human labour)।
  2. मूल्य निर्धारण का तरीका- मार्क्स का मत था कि सब वस्तुओं में श्रम तत्त्व पाया जाता है। यह सभी वस्तुओं में सामान्य तत्त्व (Common) है। इस Common तत्त्व की सहायता से ही वस्तु का मूल्य निर्धारित करना चाहिए। इस विचार को अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि “वह समान चीज क्या है जिनके कारण पलंगों का मूल्य एक मकान के बराबर बताया जाता है। अरस्तू का कहना है कि ऐसी कोई वस्तु यथार्थ में नहीं है। लेकिन क्यों नहीं है? पलंगों से तुलना करने में मकान अवश्य ही किसी ऐसी चीज का संकेत करता है, जो मकान व पलंग दोनों में ही है। यह समान चीज है-मानव श्रम। अन्य शब्दों में, श्रम केवल मूल्य का मापक या कारण ही नहीं है, वरन् इसका सार (essence) भी है।”

मार्क्स के मूल्य-निर्धारण के तरीके को एक सरल उदाहरण द्वारा समझाया जा सकता है कि वस्तु को बनाने में जितना श्रम व्यय हो उसी के बराबर उस वस्तु का मूल्य होता है, जैसे-एक मकान के उत्पादन में किसी श्रमिक को 1,000 घण्टे लगते हैं, जबकि उसी श्रमिक को एक पलंग का निर्माण करने में 5 घण्टे लगते हैं। ऐसी दशा में 1 मकान-200 पलंग। यदि किसी कारण मकान और पलंग का विनिमय मूल्य 1 पलंग-मकान हो जाय, तो मकान कम बनाये जायेंगे, क्योंकि इसके बदले में अब पलंग कम मिल पाते हैं। परिणामतः मकानों की पूर्ति कम हो जायेगी और मूल्य बढ़कर पुनः 1 मकान-200 पलंग हो जायेगा। अन्य शब्दों में, बाजार मूल्य (Market Price) और ‘विनिमय मूल्य’ (Exchange Value) के अन्तर के कारण श्रम एक उद्योग से दूसरे उद्योग में आयेगा-जायेगा। इससे यदि एक वस्तु का उत्पादन बढ़ेगा, तो दूसरी वस्तु का उत्पादन घटेगा तथा अन्त में दोनों मूल्य सन्तुलित हो जायेंगे।

इस प्रकार, मार्क्स ने बताया कि मूल्य सिद्धान्त द्वारा अनजाने ही वस्तुओं का विनिमय- अनुपात, उत्पादन को मात्राएँ और विभिन्न उद्योगों में श्रम का वितरण सब ही एक साथ निर्धारित होते रहते हैं। उन्हीं के शब्दों में “चूँकि व्यक्तिगत पूँजीपति एक-दूसरे से केवल वस्तुओं के स्वामियों के रूप में मिलते हैं तथा उसमें से प्रत्येक अपनी वस्तु जितनी महंगी हो सके उतनीnमहँगी बेचना चाहता है, इसलिए ‘आन्तरिक नियम’ (Internal Law) इनकी पारस्परिक प्रतियोगिता और दबावों के द्वारा अपना प्रभाव दिखाता है, जिससे अनेक विभिन्नताएँ मिट जाती हैं। केवल एक आन्तरिक नियम के रूप में तथा व्यक्तिगत साधक के दृष्टिकोण से एक अन्धे नियम के रूप में मूल्य का नियम अपना प्रभाव जमाता है और आकस्मिक उतार-चढ़ावों के होते हुए भी उत्पादन के सामाजिक साम्य को बनाये रखता है।”

स्पष्ट है कि यह मूल्य सिद्धान्त पूँजीवादी व्यवस्था में व्यक्तियों को एक साथ बनाये रखता है और असंख्य पृथक-पृथक् उत्पादकों के व्यक्तिगत श्रम को प्रभावशाली सामाजिक श्रम शक्ति में बदल देता है।

  1. वस्तुओं के जादू का सिद्धान्त- मूल्य के उक्त सिद्धान्त के आधार पर मार्क्स ने ‘वस्तुओं के जादू का सिद्धान्त’ (Doctrine of Fetishism of Commodities) का प्रतिपादन किया। ऊपरी दृष्टि से यह प्रतीत होता है कि दो भौतिक व जड़ वस्तुओं के परिमाणात्मक सम्बन्ध को मुद्रा में प्रकट करना हो ‘मूल्य’ है। लेकिन वास्तव में, मूल्य समाज के सदस्यों के मध्य विद्यमान सम्बन्धों को सूचित करता है। इस प्रकार, जो वास्तव में मनुष्यों का पारस्परिक सम्बन्ध है वही पूंजीवाद के अन्तर्गत जड़ वस्तुओं का पारस्परिक सम्बन्ध प्रतीत होता है। तरल शब्दों में, एक वस्तु का मूल्य दूसरी वस्तु के आँकते समय आज हम यह भूल जाते हैं कि वस्तुओं के मूल्य-अनुपात उनको बनानेbवाले श्रमिकों पर आधारित हैं। अर्थात् वस्तुओं का आपसी सम्बन्ध तो हमें याद रहता है, लेकिन श्रमिकों का आपसी सम्बन्ध हम भूल जाते हैं। यही वस्तुओं का जादू है। मार्क्स ने इसे Fetishismnof Commodities कहा है। उनका दावा है कि उन्होंने अपने मूल्य-सिद्धान्त द्वारा इस जादू को समाप्त कर दिया है। उनका मत है कि विनिमय मूल्य समाज के विभिन्न सदस्यों के आपसी सम्बन्धों पर आधारित है, वस्तुओं के आपसी सम्बन्धों पर नहीं।
  2. निहित श्रम का द्राव्यिक मूल्य- मार्क्स श्रम को मूल्य का मापक, कारण एवं आधार मानते थे। वस्तु का मूल्य इसे बनाने में लगने वाले श्रम की मात्रा के बराबर होता है, लेकिन इस श्रम की मात्रा का मूल्य अर्थात् श्रम की मात्रा का द्राव्यिक मूल्य किस प्रकार निर्धारित किया जायेगा, इसके लिए भी मार्क्स ने एक उपाय बताया, जो यह कि किसी वस्तु को बनाने में जितना समय लगता है उतने समय के लिए श्रमिक की उत्पादक शक्ति को कायम रखने हेतु उसकी आवश्यकताएँ पूरी करने में जितना धन व्यय हो वही उस समय की श्रमिक की मजदूरी (श्रम का द्राव्यिक मूल्य) होगी।”

मार्क्स द्वारा मूल्य सिद्धान्त को महत्त्व देना एक स्वाभाविक बात

यद्यपि मार्क्स के आर्थिक विचार मूल्य सिद्धान्त की अपेक्षा कहीं अधिक हैं तथापि यह कहना सही है कि जिन विविध बातों पर मार्क्स ने अपने विचार प्रकट किये उन सबमें मूल्य सम्बन्धी विचार सबसे अधिक महत्त्व रखता है। किन्तु माक्र्स ने मूल्य निर्धारण करने वाले तत्त्वों को मालूम करने में जो रुचि दिखायी वह कोई आश्चर्यजनक या नवीन बात नहीं है। उसके लिए यह बात बिल्कुल स्वाभाविक थी, क्योंकि उसके समकालीन विद्वान भी मुख्यत: मूल्य समस्या को ही लेकर व्यस्त थे। हेनरी चार्ल्स कैरे (1793-1879) और उसके बाद फ्रेडरिक बास्त्या (Fredric Bastiat) (1801-1856) ने भी मूल्य के श्रम-सिद्धान्त पर काफी गम्भीरता से विचार किया था। जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) ने भी मूल्य के प्रतिष्ठित सिद्धान्त का पुनः कथन किया था। मनोवैज्ञानिक शाखा के अर्थशास्त्रियों (जैसे-जैवन्स (1835-1882) और गौसेन (1810-1858) ने भी मूल्य सिद्धान्त के सम्बन्ध में अपना उपयोगितावादी विश्लेषण प्रस्तुत किया। इसी प्रकार आस्ट्रियन शाखा के अर्थशास्त्रियों ने विशेषतः मैंजर (1840-1921), वीजर (1851-1926) और वॉम बार्वक (1851-1914) ने मूल्य को समस्या के अध्ययन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। यहाँ तक मार्शल ने भी, जो कि मार्शल द्वारा अपना बहुत कुछ कार्य कर लेने के बाद लगभग उसी के समय दृश्य-पटल पर प्रस्तुत हुए थे (1842-1924), अपनी प्रसिद्ध पुस्तक (Principles of Economics) में मूल्य समस्या पर विस्तार से विचार किया था। इस प्रकार, मार्क्स के समकालीन लगभग सभी अर्थशास्त्रियों की प्रवृत्ति अपना सम्पूर्ण ध्यान मूल्य सिद्धान्त के विवेचन पर देने की थी। इस सन्दर्भ में यह कोई अनहोनी बात न थी कि मार्क्स ने अपने समय के तथा अपने युग के अर्थशास्त्रियों की भाँति मूल्य-सिद्धान्त को अपने आर्थिक विचारों का प्रमुख स्तम्भ बनाया।

श्रम के शोषण की धारणा से सम्बन्ध

(Relation to Concept of Exploitation of Labor)

मूल्य के श्रम सिद्धान्त में मार्क्स ने यह स्पष्ट किया है कि वस्तु का मूल्य उसमें लगे हुए श्रम के बराबर होता है। किन्तु अतिरिक्त मूल्य अथवा बचत मूल्य सिद्धान्त की विवेचना करते हुए उसने बताया कि पूँजीवादी व्यवस्था में एक विचित्र परिपाटी अपनायी जाती है। वहाँ सम्पूर्ण उत्पत्ति साधन पूँजीपतियों के हाथ में रहते हैं और पूँजीपतियों के द्वारा श्रम को केवल जीवन निर्वाह के बराबर ही मूल्य दिया जाता है भले ही वह अधिक मूल्य के धन का उत्पादन करता है। पूंजीपति एक ओर श्रमिकों को कम मजदूरी देकर उनका शोषण करते हैं जबकि दूसरी ओर उत्पादित वस्त। ऊंची कीमत पर उपभोक्ताओं को बेचकर मनमाना लाभ कमाते हैं। इस प्रकार, पूँजापति उत्पादक (श्रमिक) और उपभोक्ता दोनों का ही शोषण करता रहता है। इससे पूँजीपति अपने हक में मजदूरों के श्रम की चोरी कर लेता है।

मूल्य सिद्धान्त की आलोचनाएँ

(Criticism of Marx’s Theory of Value)

आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मार्क्स के श्रम मूल्य की आलोचना करते हुए निम्न तर्क दिये हैं-

  1. एकतरफा एवं अवैज्ञानिक सिद्धान्त- ने उपयोगिता के महत्त्व को समाप्त करके मूल्य-सिद्धान्त को एकतरफा (One-sided) और अवैज्ञानिक बना दिया। उनके सिद्धान्त में यह निष्कर्ष निकलता है कि जो वस्तुएँ प्रकृति की देन हैं या जिनके उत्पादन में श्रम नहीं लगा है, उनका कोई मूल्य नहीं होता। परन्तु यह बात ठीक नहीं है। उसके सिद्धान्त के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जिन चीजों में श्रम लगा है वे सभी मूल्यवान हैं। स्पष्टत: ऐसा निष्कर्ष भी ठीक नहीं है। इसी प्रकार यह मान लेना भी ठीक नहीं है कि श्रम विभिन्न पेशों में उपयोगिता को ध्यान में रखे बिना ही विभाजित हो जाता है। जुलाहा कपड़ा इसलिए बुनता है कि वह उसमें उपयोगिता देखता है।

[इस आलोचना का उत्तर मार्क्स ने अर्ध और कीमत में भेद बता कर दिया है। उसका कहना है कि प्राकृतिक देन की वस्तुओं में कीमत (price) तो हो सकती है लेकिन अर्ध (Value) नहीं।]

  1. सम्पूर्ण उत्पादन लागत को श्रम में व्यक्त करना असम्भव- यदि यह स्वीकार भी कर लें कि उत्पादन लागत ही वस्तु का मूल्य निर्धारण करती हैं (और उपयोगिता का कोई महत्त्व नहीं होता), तो भी एक कठिनाई यह रहती है कि सम्पूर्ण उत्पादन लागत को ‘श्रम’ में व्यक्त नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ, यह मान सकते हैं कि पूँजी पिछले श्रम का परिणाम है किन्तु इस पिछले जम को उपभोक्ता चाहे तो तुरन्त उपभोग में ला सकता था और ऐसी दशा में पूँजी प्राप्त नहीं हो सकती थी। वास्तव में जब उपभोक्ता वस्तुओं का तुरन्त उपभोग न करके भविष्य के लिए कुछ बचाता है तो वह त्याग करता है। अतः पूँजी को श्रम का ही परिणाम नहीं कह सकते, इसमें उपभोक्ता का त्याग भी सम्मिलित है जिसे श्रम में नहीं बदला जा सकता।
  2. विभिन्न प्रकार के श्रमों को एक आधार- श्रम में बदलना सम्भव नहीं-मार्क्स ने बताया कि विभिन्न प्रकार के श्रमों को एक आधार-श्रम में बदला जा सकता है। लेकिन यह बात सम्भव नहीं है। एक मसाला पीसने वाले का श्रम एक कलाकार के श्रम के बराबर नहीं हो सकता है। इस प्रकार, मार्क्स का यह कथन सही नहीं है कि प्रत्येक श्रम चीनी के एक कण के समान है।

माक्र्स ने अपनी पुस्तक के तृतीय संस्करण में उक्त आलोचनाओं का उत्तर दिया है, किन्तु यहvसन्तोषजनक नहीं है। रिकार्डो की तरह वे भी एक सन्तोषजनक मूल्य सिद्धान्त प्रस्तुत करने में असफल रहे।

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Pankaja Singh

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