अर्थशास्त्र

महात्मा गांधी के आर्थिक विचार | महात्मा गांधी के समन्वयवादी दृष्टिकोण

महात्मा गांधी के आर्थिक विचार | महात्मा गांधी के समन्वयवादी दृष्टिकोण

आर्थिक विचारधारा का गाँधी जी की देन (महात्मा गांधी के आर्थिक विचार)

(Contribution of Gandhi Ji to Economic Thought)

धन के बजाय नैतिकता को महत्त्व

महात्मा गाँधी एक साधु, वैज्ञानिक, दार्शनिक, विश्व प्रेम व मानव-कल्याण के परम उपासक थे। चे मानव जीवन को सम्पूर्ण रूप में देखते थे, राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक अंगों में बाँट कर नहीं। विभिन्न वादों का अध्ययन करके गाँधी जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी वादों में एक ही मूल आधार है ‘धन का प्रेम।’ इसी कारण समाजों के आर्थिक ढाँचे में निम्न दोष पाये जाते हैं, जैसे-अधिकाधिक मशीनों के प्रयोग ने समाज को दो वर्गों में बाँट दिया है-पूँजीपति एवं श्रमिक। इनके कारण वर्ग संघर्ष, शोषण एवं बेरोजगारी को बढ़ावा मिलता है और श्रमिक सोचने, समझने व निर्णय करने की शक्ति खो बैठते हैं। इससे वातावरण दूषित हुआ है मन्दी-तेजी को जन्म मिला है। इन्होंने ही उपनिवेशवाद और अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों में वृद्धि की है।

गाँधी जी का निश्चित मत था कि जीवन उचित मूल्य नैतिकता है धन नहीं। नैतिकता के कारण ही वे ‘साधनों’ पर ‘ध्येय’ से अधिक जोर देते थे। इस नये मूल्य को सर्वसाधारण में प्रसिद्ध करने के लिए उन्होंने अनेक सहायक मूल्य संसार को दिये, जैसे-अहिंसा, सादगी और शारीरिक श्रम। उनका कहना है कि आधुनिक उत्पादन का तरीका हिंसात्मक है, बुरा है। अहिंसात्मक तरीके से पूँजीवाद को नष्ट करना चाहिए, न कि पूँजीपति को। अर्थात् अहिंसा द्वारा पूँजीपतियों का हृदय परिवर्तन किया जाय। वास्तविक सुख एवं मानसिक शान्ति सादगी में निहित है। अत: गाँधीजी ने सादा जीवन व्यतीत करने का परामर्श दिया। सादगी का अर्थ था आवश्यकताओं को न्यूनतम करना और उत्पादन बड़े पैमाने पर न करके छोटे पैमाने पर करना। टाल्सटाय की भाँति गाँधीजी का यह मत था कि प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे धनी हो या गरीब, मानसिक, श्रमिक हो या अन्य, आवश्यक रूप से शारीरिक परिश्रम करना चाहिए। इससे वे शारीरिक श्रम के महत्व को समझेंगे, उनका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और शोषण भी रुक जावेगा।

गाँधीजी के मुख्य आर्थिक विचार

आर्थिक समस्याओं के बारे में गाँधीजी ने समय-समय पर जो विचार प्रकट किये हैं। उन्हें ही कभी-कभी ‘गाँधीवादी अर्थशास्त्र’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। किन्तु गाँधीजी ने आर्थिक समस्याओं पर पृथक से कोई पुस्तक नहीं लिखी है। प्रस्तुत प्रश्नोत्तर में उनकी विभिन्न पुस्तकों, लेखों आदि के आधार पर उनके मुख्य मुख्य आर्थिक विचारों पर प्रकाश डाला गया है।

(I) अर्थशास्त्र के प्रति नया दृष्टिकोण-

अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में गाँधीजी की धारणा पश्चिमी लेखकों से बहुत भिन्न है-

(1) मार्शल को भौति चे अर्थशास्त्र को “मनुष्य के जीवन के साधारण व्यापार का अध्ययन” नहीं मानते थे।

(2) वे राबिन्स के भी इस मत से सहमत न थे कि “अर्थशास्त्र उद्देश्यों एवं वैकल्पिक प्रयोगों वाले दुर्लभ साधनों के सम्बन्ध का अध्ययन करने वाला विज्ञान है।”

(3) कैनन के इस मत से भी भिन्नता रखते थे “अर्थशास्त्र का उद्देश्य उन सामान्य कारणों पर प्रकाश डालता है जो कि मनुष्य जाति के भौतिक कल्याण को प्रभावित करते हैं।”

(4) वे पीगू के इस कथन को कि, “अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री सामाजिक कल्याण का वह अंग है जिसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुद्रा द्वारा मापा जा सकता है” बहुत मर्यादित और अपर्याप्त मानते थे। वास्तव में गाँधीजी की दृष्टि में अर्थशास्त्र मनुष्य की सभ्यता का अध्ययन है, वह व्यक्तिवाद, समाजवाद एवं आदर्शवाद का एक अद्भुत संयोग है जो स्वयं अपनी बुराइयों का नाश करता है।

(II) अर्थशास्त्र के अध्ययन की विधि अन्तर्रात्मा के आदेश-

कुछ विद्वानों का यह विचार है कि गाँधीजी ने समस्याओं के अध्ययन करने के लिए अविवेकपूर्ण एवं अवैज्ञानिक विधि अपनाई थी। इस सम्बन्ध में उन्होंने गाँधीजी द्वारा विदेशी कपड़ा जलाने और अन्तर्रात्मा के आदेशानुसार कार्य करने का उदाहरण दिया है। वास्तव में बात यह है कि गाँधी जी ने सदा ही विज्ञान की त्रिमुखी विधि (अवलोकन, तर्क एवं पुष्टिकरण) का प्रयोग किया, किन्तु साथ में अन्तर्रात्मा की प्रेरणाओं पर भी ध्यान दिया। हाल में हुए वैज्ञानिक अनुसन्धानों से ऐसा प्रमाणित हो गया है कि मनुष्य कार्य करते हुए अनेक अचेतन एवं अज्ञात भावनाओं से प्रेरित होता है, वह (मनुष्य) विवेक तो रखता है किन्तु उसका विकास नहीं कर पाता, अर्थात् वह केवल विवेक के आधार पर ही कार्य नहीं करता। अतः स्पष्ट है कि गाँधीजी द्वारा अचेतन एवं उपचेतन सम्बन्धी तथाकथित “अवैज्ञानिक” विधि का प्रयोग विज्ञान की नवीनतम खोजों द्वारा समर्थित है।

(III) व्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रबल समर्थन-

गाँधीजी व्यक्ति की स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे। उनका कहना था कि राज्य को व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कम से कम प्रतिबन्ध लगाने चाहिए। जब तक व्यक्ति अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं करेगा तब तक भारत जैसा विशाल देश और यहाँ तक कि सम्पूर्ण विश्व उन्नति नहीं कर सकता। किन्तु वह अराजकतावादी भी न थे। वह ‘सबके लिए समान अवसर’, व्यक्ति की प्रमुखता’, ‘प्रत्येक के लिए जनतन्त्रीय न्याय’ आदि के गुणों से भली-भांति परिचित थे। वे एक पूर्ण समाजवादी राज्य के भी पक्ष में न थे, क्योंकि एक उत्तम समाजवादी सरकार ‘स्व-शासन’ का अच्छा स्थानापन्न नहीं हो सकती। उनका कहना था कि राज्य की शक्ति बढ़ने से शोषण में तो कमी होती है लेकिन तत्व का नाश होने से मानवता की प्रगति रुक जाती है।”

(IV) सीमित आवश्यकताएँ रखना-

गाँधीजी आवश्यकताओं को न्यूनतम सीमा तक घटाने के पक्ष में थे, क्योंकि जब आवश्यकताएं बढ़ाई जाती हैं, तो साधन उन्हें सीमित कर देते हैं और असन्तुष्ट (unsatisfied) आवश्यकताएँ निराशा और दुःख का कारण बन जाती हैं, जिससे मनुष्य पूर्ण सुखी नहीं हो पाता। क्या है’ (Is) और ‘क्या होना चाहिए’ (Ought) के मध्य पुल का काम करने के लिए उन्होंने एक नवीन श्रेणी ‘क्या हो सकता है’ (What can be) विकसित की है। सरल शब्दों में, आवश्यकताएँ उतनी ही बढ़ानी चाहिए जितनी कि आय है, ताकि निराशा और दुःख का सामना न करना पड़े। इससे उत्पादक और उपभोग के मध्य एक पूर्ण सन्तुलन भी स्थापित हो जायेगा।

(V) श्रम के प्रति सम्मान-

गाँधीजी श्रम की महानता में विश्वास रखते थे। बम के प्रति उनके दृष्टिकोण के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए भौतिक श्रम करना आवश्यक होना चाहिए अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को जीवन को आधारभूत आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में कुछ शारीरिक मेहनत करनी चाहिए। जो श्रम नहीं करता, उसे भोजन भी नहीं करना चाहिए। शॉ (Shaw) ने भी कहा है कि उत्पादन किए बिना उपभोग करना चोरी के समान है। गांधीजी का मत था कि कोई काम बुरा नहीं होता, लेकिन किसी काम को ठीक से न करना बुरा होता है। इसी आधार पर उन्होंने ‘हरिजन उद्धार आन्दोलन’ चलाया था।

(VI) यान्त्रिक उत्पादन व केन्द्रित औद्योगीकरण का विरोध-

गाँधीजी के औद्योगिक दृष्टिकोण की सबसे अधिक आलोचना की जाती है। वास्तव में गांधीजी ने उत्पादन की उत्पादक मौद्रिक लागत (Money Cost) की अपेक्षा उत्पादन की सामाजिक लागत (Social Cost) को अधिक महत्व दिया। कई शताब्दी पहले सिसमाण्डो (Sismondi) ने भी विश्व को ‘भूखा’, ‘पतित’ एवं ‘दुखी’ बताते हुए श्रम-विभाजन व मशीनों की कड़ी आलोचना की थी। गाँधीजी भी विकेन्द्रित जनतन्त्र और छोटी-छोटी इकाइयों में स्थानीयकृत औद्योगीकरण को उचित समझते थे, क्योंकि उनका मत था कि यान्त्रिक एवं केन्द्रित उत्पादन न केवल किसी राष्ट्र के कुछ व्यक्तियों और कुछ वर्गों के जीवन को हानि पहुँचाता है, वरन् विभिन्न राष्ट्रों को प्रसन्नता स्वतन्त्रता, सुरक्षा व एकता को भी खतरे में डाल देता है।

(VII) अनुपस्थित भू-स्वामित्व का विरोध-

गाँधीजी ‘अनुपस्थित भू स्वामित्व (Absentee landlordism) के विरुद्ध थे। वे भूमि पर जोतने वाले के स्वामित्व’ के पक्ष में थे। उनका कहना था कि यदि भूमिपति अपने को जनता की सम्पत्ति का ट्रस्टी समझकर कार्य करते, तो वे कृषकों के लिए सहायता का वरदान प्रमाणित हो सकते थे। लेकिन उन्होंने इस टूस्ट का अनुचित लाभ उठाया। अत: उनके लिए अब समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

(VIII) सर्वोदय का विस्तार-

वितरण और राजस्व के क्षेत्र में गाँधीजी के विचार पूर्णतः स्पष्ट नहीं हैं, किन्तु इतना तो निस्संकोच कहा जा सकता है कि वे करारोपण को आय में एक साधन के रूप में तथा सामाजिक नियन्त्रण के एक ढंग के रूप में महत्व देते थे। उन्होंने धन के न्यायोचित वितरण का समर्थन किया है। वास्तव में उनका सर्वोदय (Sarvodaya) सिद्धान्त पश्चिम के “कल्याण सम्बन्धी विचार से उच्च स्तर का है, क्योंकि न केवल प्राप्तिकर्ता की उन्नति का वरन् देने वाले की उन्नति का भी ध्यान रखता है।”

(IX) आर्थिक आत्मनिर्भरता-

अहिंसा एवं अशोषक समाज की स्थापना के लिए वे क्षैत्रिक आत्मनिर्भरता को आवश्यक समझते थे। वे चाहते थे कि विभिन्न देशों को अपनी भौतिक आवश्यकताओं के सम्बन्ध में अधिकाधिक आत्मनिर्भर होना चाहिए तथा विदेशी व्यापार कम से कम कर दिया जाय। इससे विश्व में संघर्ष की भावना घटेगी। इसी प्रकार के विचार विल कपलाई (Will Cupply) ने अपनी पुस्तक ‘How to tell yourself from Apes’ में प्रकट किये हैं।

(X) आर्थिक विचारों का आधार सत्य एवं अहिंसा-

गाँधीजी प्रत्येक आर्थिक क्रिया का आधार सत्य एवं अहिंसा को मानते थे। इस सम्बन्ध में उनके विचार प्रोफेसर कार्वर (Carver) से बहुत कुछ मिलते हैं। मनुष्य जिन ढंगों से जीविका कमाता है उनका विवेचन करते हुए कार्वर ने उन्हें ‘आर्थिक’ एवं ‘अनार्थिक’ वर्गों में बाँटा है। जीवनयापन के अनार्थिक ढंग विनाशक हैं । युद्ध, लूटमार, चोरी, धोखधड़ी इसी वर्ग में आते हैं। जब कोई व्यक्ति इनके द्वारा चीज प्राप्त करता है तो किसी अन्य व्यक्ति को कुछ लाभ नहीं होता। जीविका कमाने के आर्थिक दंग’ वे हैं जिनमें मनुष्य की सफलता उसको उत्पादन या सेवा करने की शक्ति पर निर्भर होती है। उत्पादन उद्योग एवं उपयोगी व्यापार व पेशे इस वर्ग में आते हैं। इनसे किसी भी व्यक्ति को हानि नहीं पहुँचती, किन्तु किसी न किसी व्यक्ति को लाभ अवश्य होता है। इस प्रकार किसी भी आर्थिक क्रिया के रूप में हिंसा या शोषण अनार्थिक है और उसे समाप्त कर देना चाहिए।

महात्मा गांधी के समन्वयवादी दृष्टिकोण

गाँधीजी के समय में प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का स्थान आधुनिक अर्थशास्त्री ग्रहण करने लगे थे, पूँजीवाद का स्थान समाजवाद ले रहा था तथा साम्यवादी राष्ट्रों की उन्नति हो रही थी। गाँधीजी ने इन सबके गुणों को ग्रहण किया, किन्तु अवगुणों को छोड़ दिया।

(1) वे प्रकृतिवादी अर्थशास्त्रियों की प्राकृतिक अवस्था’ से सहमत थे और चाहते थे कि मनुष्य प्रकृति के अनुसार जीवन बनाये।

(2) उन्होंने एडम स्थिम को ‘स्वतन्त्र व्यापार की नीति’ का समर्थन किया, किन्तु संरक्षण की आवश्यकता भी स्वीकार की।

(3) वे देशभक्त होते हुए भी विश्व-बन्धुत्व के समर्थक थे।

(4) सिसमाण्डी की भाँति उन्होंने यान्त्रिक उत्पादन की बुराइयाँ ही नहीं बतायीं वरन् उनके निवारण के लिये व्यापक प्रेम का मार्ग अपनाया।

(5) कुछ मर्यादाओं के साथ इन्होंने माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त को स्वीकार किया तथा संयम के महत्व पर जोर दिया।

(6) उन्होंने केन्ज की इस धारणा को स्वीकार किया कि उत्पादन में प्रभावशाली माँग के अधिक हो जाने की प्रवृत्ति होती है और इसलिए आवश्यकता-विहीनता के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया, ताकि स्थायी सन्तुलन कायम हो सके।

संक्षेप में, वह ‘मनुष्यों में मनुष्य’ होने के साथ-साथ अर्थशास्त्रियों में भी ‘अर्थशास्त्री’ थे। गाँधीजी के आर्थिक जीवन सम्बन्धी विचार, जो कि सादगी और अहिंसा पर आधारित है, वर्तमान भौतिक समृद्धि के लिए पागल हुए विश्व को अजीब मालूम देते हैं। वास्तव में आज के ‘बीमार’ विश्व को गाँधीजी के सिद्धान्तों का पालन करना औषधि लेने के समान उपयोगी है।

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