अर्थशास्त्र

कौटिल्य के आर्थिक विचार | प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारधारा की मुख्य विशेषताएँ

कौटिल्य के आर्थिक विचार | प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारधारा की मुख्य विशेषताएँ

कौटिल्य के आर्थिक विचार

(Kautilyn’s Economic Ideas)

कौटिल्य चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में उसका प्रधानमन्त्री था। उसे अपनी कूटनीतिज्ञता के कारण जितनी ख्याति प्राप्त हुई थी उतनी ही ख्याति उसे अपने आर्थिक विचारों के कारण मिली। कौटिल्य (अथवा चाणक्य) ने चन्द्रगुप्त मौर्य को उपदेश देने हेतु एक ग्रन्थ की रचना को, जो कि बाद में ‘कौटिल्य के अर्थशास्त्र’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह पुस्तक गीता के समान उपदेशों से भरी पड़ी है। कौटिल्य अर्थशास्त्र को धर्म से भिन्न मानता था। उसके प्रमुख आर्थिक विचार निम्नांकित हैं-

(1) कृषि संबंधी विचार उसने कृषि को सर्वाधिक महत्व दिया। वह राज्य की ओर से कृषि को व्यवस्था कराने के पक्ष में था। उसके अनुसार, राज्य को चाहिए कि किसानों के लिए हल, बैल, बोज आदि सभी सुविधायें उपलब्ध करे, उत्पादन बढ़ाने के लिए बंजर भूमि को सुधार कर कृषि कार्य में लाया जाय, आदर्श ग्राम बसाये जायें, जिनमें (प्रति गौव) 100 से 500 तक परिवार रहें। उसने कृषि कार्य को न केवल वैश्य और शूद के लिये वरन् ब्राह्मणों के लिये भी ग्रहण-योग्य बताया। उसने व्यक्तिगत फार्मों के साथ-साथ सरकारी फार्मों की भी चर्चा की। सरकारी फार्म का निरीक्षण पदाधिकारी सीताध्यक्ष’ कहलाता था। उसने कृषि के विकास के लिये बांधों, नहरों आदि की व्यवस्था करने का भी उल्लेख किया।

(2) व्यापार- कौटिल्य व्यापार को नियन्त्रित करने के पक्ष में था। उसने सरकार को निर्देश दिया कि कुछ वस्तुओं का निर्माण और उनके विक्रय की व्यवस्था करे। व्यापार की वृद्धि से ही राष्ट्र शक्तिशाली और सम्पन्न बन सकता है। बाहर से आने वाली वस्तुओं पर कर लगाया जाय ताकि राजकोष की आय बढ़े और देशी उत्पादन को बढ़ावा मिले। वह मूल्यों और लाभ को निश्चित करने के पक्ष में था। इस प्रकार व्यापार को उन्नत बनाने के सम्बन्ध में उसके विचार वणिकवादियों से मिलते-जुलते हैं।

(3) जनसंख्या सम्बन्धी विचार- कौटिल्य के समय के भारत में मृत्यु दर और सम्पन्नता ऊँची थी। भारतीय दर्शन जनसंख्या बढ़ाने पर जोर देता था क्योंकि विदेशी आक्रमणों और महामारियों के कारण भारी जन-संहार होता रहता था। इसीलिए कौटिल्य ने भी कहा कि जनसंख्या को निर्बाध बढ़ने देना चाहिए। एक विवाहित जोड़े को कम से कम 10 बच्चों को जन्म देना चाहिए। उन दिनों मशीनें तो थी नहीं। सारा काम मानव शक्ति के द्वारा होता था।

(4) श्रम सम्बन्धी विचार- कौटिल्य ने श्रमिकों के हित को ध्यान में रखते हुए उन्हें जीवन-निर्वाह मजदूरी देने का समर्थन किया। अधिक मजदूरी देने से लाभ में कमी होती और व्यापारी वर्ग को हानि पहुंचती है। काम चोरों को वह अंगूठा काटने तक के दण्ड का समर्थन करता था मजदूरी के भुगतान न करने वाले सेवायोजकों को भी वह दण्ड देने की बात करता था। श्रम- विवादों के निबटारे के लिये उसने उपयोगी सुझाव दिये। वह महिला श्रम का पक्षपाती था।

(5) सार्वजनिक वित्त सम्बन्धी विचार- वह राज्य को शक्तिशाली बनाना चाहता था। इसके लिए राज्य की आय में वृद्धि होना जरूरी समझता था। अत: उसने सार्वजनिक आय बढ़ाने के लिये सुझाव दिये, जैसे-उद्योग, वन, मछली पकड़ने, खान, भूमि, व्यापारियों आदि पर कर लगाना, आयात कर, पुल कर, चुंगी शुल्क, सड़क शुल्क आदि वह वर्तमान अर्थशास्त्रियों की भांति विलास-वस्तुओं पर ऊँची दर से कर लगाने का सुझाव देता है। आयातों को नियन्त्रित रखने के लिये ऊँची दर से आयात कर लगाने की बात कहता है। उसने करारोपण में निश्चितता और न्याय के सिद्धान्तों को अपनाने पर बल दिया। भू-राजस्व उसकी राय में कुल उपज के 1/3 से 1/2 तक निर्धारित किया जाना चाहिए। उसने सार्वजनिक व्यय की भी समुचित व्याख्या की है। उसने व्यय की मदों को महत्वानुसार निम्न क्रम में रखा–प्रतिरक्षा व्यय, प्रशासनिक व्यय, सरकारी भण्डारों की सुरक्षा आदि । व्यय से बची हुई राशि को वह कोष और युद्ध पेटी में जमा कराने का सुझाव देता है। उसने बजट बनाने के सम्बन्ध में उपयोगी विचार दिये। उसके अनुसार, यदि राज्य का व्यय उसकी आय की अपेक्षा अधिक है, तो न्यूनता की पूर्ति ऋण लेकर की जानी चाहिए। यहाँ घाटे की वित्त-व्यवस्था का संकेत मिलता है।

(6) सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी विचार- कौटिल्य के अर्थशास्त्र का मुख्य लक्ष्य सामाजिक कल्याण में वृद्धि करना था-इस हेतु उसने सरकार को सुझाव दिया कि न्यायोचित वितरण व्यवस्था लागू करे एवं मजदूरी की दरें समानता और योग्यता के अनुसार निर्धारित करे, ताकि वर्ग संघर्ष घटे और सामाजिक सद्भावना बढ़े। लोक-कल्याण कार्यों पर अधिक व्यय किया जाय, गरीबों के लिये धर्मार्थ संस्थायें स्थापित की जायें, लोगों के लिये रोजगार बढ़ाया जाय, वृद्ध एवं निर्बल वर्ग के लिये सुरक्षा व्यवस्था की जाय।

भौतिक धन का समन्वय एवं उद्देश्य- धन सम्बन्धी विचार और आवश्यकता एवं कल्याण सम्बन्धी विचारों में घनिष्ठ सम्बन्ध था। धन के अन्तर्गत पशु विशेषकर गार्यों और घोड़ों को सम्मिलित किया जाता था। प्राचीन भारत में व्यक्तियों को धन कमाने और संग्रह करने की पूरी स्वतन्त्रता थी किन्तु वे केवल उसी सीमा तक.धन का संग्रह कर सकते थे जितना उनके परिवार की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए आवश्यक था। इस विषय पर मनु तथा व्यास के अपने ही विचार थे। धन प्राप्त करने की विधियों में पूँजी तथा श्रम के विनियोग को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता था। जुआ खेलना तथा सट्टे की क्रिया को मान्यता प्राप्त न थी। धन की प्राप्ति, उत्पादन उपभोग और धन का वितरण ही अन्तिम उद्देश्य नहीं थे, वरन् ये सभी क्रियाएँ जीवन के मुख्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सम्पन्न की जाती थीं। महाभारत में कहा गया है कि जो व्यक्ति समृद्धि और निर्धनता को अवस्थाओं में अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रखता है वही सबसे धनी व्यक्ति है। अत: प्राचीन भारत में धन सम्बन्धी विचार नैतिक एवं धार्मिक उपदेशों से नियमित होते थे।

(7) वार्ता- प्राचीन विचारकों ने ‘वार्ता’ शब्द का काफी प्रयोग किया था। वे वार्ता का अर्थ राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था के विद्वान से लेते थे। कौटिल्य ने इसके अन्तर्गत कृषि, पशुपालन और व्यापार को सम्मिलित किया था। इन लोगों के लिए राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था का इतना अधिक महत्त्व था कि काममंदक के अनुसार यदि वह नार हो गयी तो संसार भी निर्जीव हो जाएगा। महाभारत के अनुसार वार्ता पर ही सारा संसार आधारित था। राजा को वार्ता का ज्ञान कराने के लिए विशेषज्ञों की सहायता ली जाती थी। कौटिल्य ने वार्ता शब्द के स्थान पर अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग किया और अर्थशास्त्र के अन्तर्गत उसने अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, नीतिशास्त्र, न्यायाशास्त्र और सैन्य-विज्ञान को सम्मिलित किया था। शुक्र के अनुसार, “अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो धर्म के उपदेशों और नियमों तथा उचित जीवन निर्वाह के साधनों के अनुसार सम्राट के कार्यों अथवा प्रशासन की व्याख्या करता है।

(8) राजस्व- करारोपण से राज्य को सबसे अधिक आय प्राप्त होती थी। इसको ‘राजकर’ कहते थे। कर की दर का निर्धारण हिन्दू धर्म के आदेशों के अनुसार किया जाता था। प्रशासन व्यवस्था में फेर-बदल होने से कारारोपण नीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। महाभारत के अनुसार कर वे भुगतान थे जो व्यक्ति, राजा को आन्तरिक सुरक्षा प्रदान करने के उपलक्ष में देते थे। कौटिल्य ने करों की चर्चा करते हुए कहा है कि “कर-प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो प्रजा के लिए भारस्वरूप न हो। राजा को मधुमक्खी के समान कार्य करना चाहिए जो पौधों को असुविधा पहुँचाये बिना शहद संचय कर लेती है।” कौटिल्य ने राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में राजस्व को प्रमुख स्थान दिया है। अपनी पुस्तक में उसने स्पष्ट रूप से बताया है कि प्रशासन तथा अन्य सभी क्रियाएँ वित्त पर आधारित होने के कारण, यह अत्यन्त आवश्यक है कि राज्य-कोष की ओर अधिकतम ध्यान दिया जाये। उसके अनुसार राज्य को उद्योगों, वनों की व्यवस्था करने, कृषि व्यवसाय, खान खुदाई, मत्स्य पालन, व्यापार आदि में भाग लेना चाहिए। इस दृष्टि से उसके विचार आधुनिक समाजवादियों के विचारों के काफी निकट प्रतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त राज्य को करारोपण से भी आय प्राप्त होती थी जो सरकारी विभागों के कार्य संचालन के लिए आवश्यक थी। प्राचीन समय में राजस्व का मुख्य उद्देश्य जनता को चारों पुरुषार्थों को सम्पन्न करने में सहायता प्रदान करना था। शुक्र ने लिखा है राजा को अपने व्यय की व्यवस्था अपनी आय के अनुसार करनी चाहिए। कौटिल्य का प्रस्ताव था कि बजट के घाटे को पूरा करने के लिए ऋण इत्यादि का उपयोग भी करना चाहिए। उसने कर आय को तीन भागों में विभाजित किया था: (क) देश के अन्दर उत्पन्न होने वाली वस्तुओं पर लगे हुए करों से प्राप्त होने वाली आय, (ख) राजधानी में उत्पन्न को गयो वस्तुओं पर लगे हुए करों से प्राप्त होने वाली आय, और (ग) आयातों तथा निर्यातों पर लगे हुए करों से प्राप्त होने वाली आय। आयातों के सम्बन्ध में उसका विचार था कि उनसे वस्तु की लागत का 1/3 भाग करों के रूप में प्राप्त किया जाये। यह नियम बहुमूल्य एवं दुर्लभ वस्तुओं के लिए लागू नहीं किया जाता था और इस पर लिए जाने वाले कर की दर समय-समय बदलती रहती थी। विलासिता की वस्तुओं तथा ऐसी वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित करने के लिए जो देश के कल्याण के लिए हितकर नहीं होती थीं, भारी कर लगाये जाते थे।

कौटिल्य के अनुसार करारोपण के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं: (1) एक कर को वर्ष में केवल एक ही बार लगाया जाये और करदाता के लिए भार सिद्ध न हो। (2) धनी व्यक्तिया पर भुगतान करने की योग्यता अथवा धनादयता के अनुसार कर लगाया जाय। कर का भार इस प्रकार वितरित किया जाये कि न तो करदाता हो शक्तिहीन हो और न राज्य को ही हानि हो क्योंकि धनी व्यक्ति राज्य को आय में अधिक योगदान देते हैं इसलिए उनको समाज में प्रमुख स्थान दिया जाय। यह ध्यान रहे कि कौटिल्य के विचार मुख्य केन्द्रीय सरकार के वित्तीय संगठन तक ही सीमित थे। उसने स्थानीय वित्त की समस्याओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। कौटिल्य ने राज्य के व्यय में निम्न मदों को सम्मिलित किया था: (क) राष्ट्रीय प्रतिरक्षा, (ख) प्रशासन, (ग) मन्त्रियों के वेतन तथा सरकारी विभागों पर किये गये व्यय, (घ) सरकारी भण्डार-गृहों पर किये गये व्यय, (च) राष्ट्रीय भण्डार-गृहों तथा कोठारों पर किये गये व्यय, (छ) सेना पर किये गये व्यय, और (झ) बहुमूल्य रत्नों, आभूषणों, मूल्यवान हीरों की प्राप्ति के लिए किये गये व्यय। जो आय शेष रह जाती थी वह कोषागार एवं युद्ध पेटो (War Chest) में जमा कर दी जाती थी।

मौर्यकाल में मालगुजारी राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। कौटिल्य ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। व्यक्तिगत भूमि पर मालगुजारी की दर कुल उपज का 1/12 भाग से लेकर आवश्यकता के समय 1/3 भाग तक ली जाती थी। निजी भूमि मालगुजारी से प्राप्त होने वाली आय इत्यादि का विस्तृत अभिलेख रखा जाता था। मालगुजारी के अतिरिक्त राज्य को भवन कर, सड़क कर, मोहल्ला कर, फल तथा वृक्ष कर तथा वस्तु कर से भी आय होती थी। कौटिल्य राज्य को उद्योगों से लाभ के रूप में प्राप्त होने वाली आय को कर आय से अधिक अच्छा समझते थे। उनके अनुसार इस स्रोत से राज्य को न केवल आय ही प्राप्त होगी बल्कि समाज में लोगों को अधिक रोजगार भी प्राप्त हो सकेगा। निःसन्देह हो कौटिल्य के ये विचार कीन्स के विचारों के समान प्रतीत होते हैं।

कौटिल्य ने अपनी पुस्तक में बजट बनाने, बजट अनुमानों की जाँच करने के लिए अनेक सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय काफी संगठित एवं विकसित लेखा परीक्षण प्रणाली प्रचलित थी।

(9) दास प्रथा- प्राचीन भारत में दास प्रथा को कुटुम्ब का सदस्य माना जाता था। वह एक पुश्तैनी घरेलू नौकर समझा जाता था जिसको धन एकत्र करना तथा निजी सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार नहीं होता था। उसकी स्थिति भाड़े के नौकर से कहीं अधिक अच्छी थी। जातक कथाओं के अनुसार व्यक्ति अपने नौकरों को दस्तकारी सीखने तथा लिखने-पढ़ने की आज्ञा दे दिया करते थे। दासों के प्रति दुर्व्यवहार का कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता। मेगस्थनीज ने लिखा है कि प्राचीन भारत में दास प्रथा नहीं थी।

(10) कल्याणकारी राज्य- प्राचीन भारतीय विचारक कल्याणकारी राज्य सम्बन्धी विचार से पूर्णत: परिचित थे। राज्य के कार्यों का निर्धारण नैतिक आदेशों के अनुसार होता था। भुखमरी के विरुद्ध हर नागरिक की रक्षा की जाती थी। राज्य प्रशासन का उद्देश्य धन एवं भोजन का निर्धारण वितरण करना था। प्राचीन भारत में वर्ग संघर्ष के उदाहरण नहीं मिलते। मजदूरियों का निर्धारण न्याय के आधार पर किया जाता था। भूमिपति तथा पूँजीपति, कृषकों अथवा नौकरों का शोषण नहीं करते थे। मनु तथा कौटिल्य दोनों ही ब्याज की ऊँची दरों के विरुद्ध थे। धर्मशास्त्र में मनु ने ब्याज दरों के नियमन हेतु अनेक उपदेश दिये हैं। वह मिश्रित ब्याज (compound interest) के पक्ष में नहीं था। वेदों में धन के न्याय पूर्ण वितरण की चर्चा की गयी है। हाँ, यह अवश्य है कि व्यक्तियों के चरित्र, जिज्ञासा तथा योग्यता को भिन्नता के कारण प्राप्त होने वाली आय भिन्न-भिन्न होती थी। राज्य का मुख्य उद्देश्य जनता के आर्थिक कल्याण में वृद्धि करना था। राज्य का कर्वव्य था कि वह आर्थिक सहायता प्रदान करके व्यापार, कृषि सिंचाई, खान-खुदाई इत्यादि को बढ़ावा दे। न्याय की  व्यवस्था पंचायतों तथा गिल्ड न्यायालयों द्वारा की जाती थी।

कौटिल्य का राज्य सम्बन्धी विचार औद्योगिक आधारशिला पर आधारित था। उसके अनुसार राज्य के कार्य संचालन के तीन निर्देशक सिद्धान्त होने चाहिएः प्रथम, राज्य को उद्योगों में भाग लेना चाहिए जो राष्ट्र को स्वावलम्बी बनाने में प्रत्यक्ष रूप से सहायक सिद्ध हो। उदाहरणार्थ, स्वर्ण, रजत, हीरे, लोहा तथा अन्य धातुएँ राज्य के अधिकार में होनी चाहिए। दूसरे, खेती, सूत, कताई तथा बुनाई, पशु-पालन, दस्तकारी इत्यादि को व्यक्तियों के अधिकार में छोड़ना चाहिए और उनको स्वामित्व का अधिकार देना चाहिए। अन्त में, राज्य का कर्तव्य है कि वह देखे कि उत्पादन, वितरण तथा उपभोग सम्बन्धी क्रियाओं का संचालन कुशलतापूर्वक तथा निर्धारित नियमों के अनुसार हो। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्तियों पर राज्य का पूर्ण प्रभुत्व था किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्तियों के कल्याण में वृद्धि करना था। प्राचीन विद्वान राज्य की कुशल व्यवस्था को अधिक महत्त्वपूर्ण समझते थे। इसलिए उनका सुझाव था कि राज्य को जनता के दैनिक-जीवन को नियन्त्रित करने का अधिकार होना चाहिए। प्राचीनकाल में पुरुषों तथा स्त्रियों, साधुओं तथा सन्तों, राजाओं इत्यादि के कर्तव्य निश्चित कर दिये जाते थे ताकि वे उनका पालन करते रहें। राजा के लिए पहला उपदेश यही होता था कि देश की स्वतन्त्रता आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है।

(11) ब्याज- प्राचीन विचारक ब्याज के विरुद्ध नहीं थे किन्तु वे ब्याज की ऊँची दर के पक्ष में भी नहीं थे। वे ब्याज को पूँजी की उत्पादकता के कारण न्यायोचित समझते थे, सम्पत्ति को गिरवी रखने से ब्याज प्राप्त करना निषेध था। विभिन्न वर्गों, ऋण के उद्देश्यों, प्राप्त होने वाले लाभों, ऋणी की आर्थिक स्थिति आदि के अनुसार ब्याज की दर का निर्धारण होता था। कौटिल्य ब्याज दर के नियमन के पक्ष में था। उसके अनुसार 15% ब्याज दर न्यायोचित थी। किन्तु कुछ स्थिति में वह ब्याज की अधिक ऊँची दर को भी न्यायोचित समझता था।

(12) कीमतों का नियन्त्रण- चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियन्त्रित करना महत्त्वपूर्ण समझा जाता था। इसका मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं को चालाक तथा बेईमान व्यापारियों की कुरीतियों से बचाता था। खाद्यान्न तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं में व्यापार करने का अधिकार केवल अधिकृत व्यापारियों को ही दिया जाता था जो राज्य द्वारा नियुक्त किये जाते थे। ये व्यापारी घरेलू वस्तुओं पर अधिक से अधिक 8% और विदेशी वस्तुओं पर 10% लाभ ले सकते थे। इन नियमों का पालन न करने वाले व्यक्तियों को भारी दण्ड दिया जाता था।

(13) सामाजिक-आर्थिक संस्थान- प्राचीन भारत में सामाजिक आर्थिक ढाँचा धार्मिक आदेशों पर आधारित था। धार्मिक नियम जीवन के प्रत्येक पहलू, कुटुम्ब तथा सामाजिक सम्बन्धों, आर्थिक क्रियाओं एवं आध्यात्मिक जीवन सभी को निर्मित करते थे। प्राचीन समय में सामाजिक एवं आर्थिक सम्बन्धों का अध्ययन, हिन्दू धर्म के अध्ययन के सिवा और कुछ नहीं थे। प्राचीन विद्वानों के अनुसार पृथ्वी पर सभी का समान अधिकार होता है।

(14) नगर नियोजन- प्राचीन भारत में नगर नियोजन सम्बन्धी विज्ञान का विकसित था। राष्ट्रीय प्रतिरक्षा तथा आर्थिक आवश्यकताओं की दृष्टि से ग्रामों के विभिन्न समूह बना दिये गये थे। नगर नियोजन के अन्तर्गत मुख्य मोहल्लों का पुनर्निर्माण, नगर क्षेत्र का छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजन और मुख्य सड़कों को चौड़ा करना जैसे कार्यों को सम्मिलित किया जाता था। राजधानी की स्थापना काफी सावधानी से की गयी थी। अग्नि से बचाव तथा शहरों एवं ग्रामों की सफाई के लिए विस्तृत नियम बनाये गये थे।

प्राचीन भारतीय आर्थिक विचारधारा की मुख्य विशेषताएँ

उपर्युक्त विवरण के आधार पर हम प्राचीन भारत की आर्थिक विचारधारा को मुख्य विशेषताओं को निम्न प्रकार बता सकते हैं-

(क) प्राचीन विचारक अर्थशास्त्र को पृथक् विषय नहीं मानते थे। अर्थशास्त्र का अध्ययन धर्म, नीति, दर्शन, कानून, राजनीति आदि विषयों के साथ-साथ किया जाता था। कौटिल्य के अनुसार दर्शन, नीति, अर्थशास्त्र और राजनीति का संयुक्त अध्ययन मनुष्य के लिए आवश्यक था। आर्थिक उपदेशों में स्वच्छ तथा नैतिक जीवन पर बल दिया जाता था।

(ख) प्राचीन आर्थिक विचाराधारा में कल्याणकारी राज्य सम्बन्धी विचार का बहुत महत्त्व था। जनता की आर्थिक सम्पन्नता का दायित्व राज्य पर होता था। राजा का कर्तव्य केवल कानून- व्यवस्था को सुरक्षित रखना ही नहीं था वरन् सभी के लाभ के लिए आर्थिक जीवन को नियमित करना भी था। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए राज्य विभिन्न प्रकार के कानून बनाता था जिनका एकमात्र उद्देश्य देश में कल्याणकारी राज्य स्थापित करना था।

(ग) प्राचीन भारत में आर्थिक जीवन तथा विचारधारा का निर्देशन नैतिक तथा धार्मिक आदेशों के अनुसार होता था। उस समय औद्योगिक क्रियाएँ काफी सीमित थीं और आर्थिक जीवन काफी सरल था। उस समय व्यक्तियों का दृष्टिकोण भौतिकवादी था और वर्णाश्रम द्वारा समाजिक सन्तुलन सुरक्षित रखा जाता था।

अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!