डॉ० रामविलास शर्मा की समीक्षा दृष्टि | हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में डॉ० राम विलास शर्मा का योगदान

डॉ० रामविलास शर्मा की समीक्षा दृष्टि | हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में डॉ० राम विलास शर्मा का योगदान

डॉ० रामविलास शर्मा की समीक्षा दृष्टि

मार्क्सवादी विचारक डॉ० रामविलास शर्मा हिन्दी साहित्य अप्रतिम समालोचक हैं। मार्क्सवाद के प्रति प्रतिबद्ध होने के बावजूद वे यथार्थ और काव्य-मर्यादा के प्रति भी प्रतिबद्ध रहे हैं। इसी कारण उन्होंने कभी अपने विचारों में किसी से भी समझौता नहीं किया। मार्क्सवादी सदैव भारतीय साहित्य परम्परा, सभ्यता, संस्कृति का सदैव विरोध करते रहे हैं, किन्तु डॉ० रामविलास शर्मा की समीक्षा में सुलझे हुए विचार, छायावाद के प्रति आकर्षण छन्दोबद्ध कविता के प्रति अनुराग निराला, प्रेमचन्द के प्रति सद्भावना तथा पूँजीवाद के प्रति मार्क्सवादी विचारधारा का उभास है। माक्सवाद को आधार बनाकर की गयी साहित्य रचना में सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष का वर्णन था। कि डॉ० शर्मा भी मार्क्सवादी समालोचक हैं, अतएव उन्होंने भी सर्वहारा वर्ग के सम्पोषणपरक साहित्य की सर्जना पर बल दिया। साहित्य संदेश नामक पत्रिका में प्रकाशित एक निबन्ध में उन्होंने लिखा है कि-

‘साहित्य लिखते समय साहित्यकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह सर्वहारा का सहयोगी साहित्य निर्मित करे।’

लेकिन अगर देखा जाए तो उनकी यह धारणा एकांगी ही मानी जायेगी। क्योंकि धन के असमान विवरण के कारण समाज के सभी वर्ग त्रस्त हैं। डॉ० राम विलास शर्मा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे प्रत्येक नयी धारणा का समर्थन तो करते हैं किन्तु प्रत्येक प्राचीन वस्तुओं का विरोध नहीं करते। उनका मानना है कि साहित्यकार को प्राचीन साहित्यिक परम्पराओं से पूर्ण परिचित होना चाहिए। वे अपनी समीक्षाओं में व्यंग्य करने से बाज नहीं आते। डॉ० नगेन्द्र की समालोचना करते हुए वे कहते हैं-

‘नगेन्द्र जी के विचार इन्हें एक कदम आगे ढकेलते हैं, तो उनकी अनुभूति इन्हें चार कदम पीछे पसीट ले जाती है। इस विचार और अनुभूति) पुस्तक का नाम एक कदम आगे और चार कदम पीछे भी हो सकता है। नगेन्द्र के यहाँ तो हर कुछ शुद्ध है, कोई भी ‘चीज अशुद्ध नहीं है।’

डॉ० राम विलास शर्मा एक उच्चकोटि के विद्वान् तथा भाषाधिकार सम्पन्न समालोचक हैं।  वे बड़े से बड़े विद्वान् की भी समालोचना करने से नहीं हिचकते और छोटे से छोटे लेखकों का भी ‘यथोचित सम्मान करते हैं। डॉ. शर्मा के विचारों में छायावाद के प्रति अगाध स्नेह, प्रेमचन्द तथा निराला आदि कवियों के प्रति समुचित श्रद्धा तथा सन्त साहित्यकारों के प्रति अक्षुण्ण अनुराग है। सन्त कवियों के विषय में वे लिखते हैं, ‘सदियों की वाणी के रूप में वह अचानक फूट पड़ा और उसने समूचे भारत को रससिक्त कर दिया। डॉ० शर्मा ने महाप्राण निराला और प्रेमचन्द की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। उन्होंने छायावादी कविता का समर्थन किया।

डॉ रामविलास शर्मा जी की एक विशेषता यह भी रही है कि वे किसी की भी न तो अनुचित प्रशंसा करते हैं और न ही किसी की कमज़ोरी पर पर्दा डालते हैं। वे सदैव यथार्थ प्रकाशन के पक्षधर रहे हैं और चाहते हैं कि सभी आलोचक इसी सिद्धान्त को अपनाये। आप छन्दोबद्ध कविता के प्रशंसक हैं तथा छन्दोमुक्त कविता के विषय में वे मानते हैं कि वह कविता गद्य से भिन्न ही हो सकती। डॉ० शर्मा पूँजीवादी प्रवृत्ति के विरोधी हैं। अतएव वे पूँजीबाद के आधार पर टिकी साहित्य सर्जना की समर्थ आलोचना करते हुए कहते हैं-

‘जो पूँजीवाद या साम्राज्यबाद की खुशामद करे उन्हें स्थायी बनाने में मदद करे, प्रगति के मार्ग में काँटा बिछाये वह देश का शत्रु है और हिन्दी का शत्रु है, धर्म और संस्कृति के नाम पर जनता का गला घोंट कर वह ‘पूँजीबाद’ के दानव को मोटा करना चाहता है इससे सभी लेखकों और पाठकों को सावधान रहना चाहिए।’

निष्कर्षतः

अन्त में हम कह सकते हैं कि डॉ० राम विलास शर्मा की आलोचना में कहीं भी रूढ़िवादिता के दर्शन नहीं होते। उनके हृदय में काव्य शास्त्र की परम्परागत मान्यताओं के लिए कोई स्थान नहीं है। इसीलिए वे रस को ब्रह्मानन्द सहोदर कहने वालों की खूब चुटकियाँ लेते हैं।

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