
अलंकार सम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय | अलंकारवादी आचार्य | काव्य की आत्मा के रूप में अलंकार सम्प्रदाय की व्याख्या
अलंकार सम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय
अलंकार सिद्धान्त (सम्प्रदाय)
भारतीय काव्यशास्त्र में विभिन्न सिद्धान्तों का उदय काव्य की आत्मा के विवाद को लेकर हुआ। अलंकार सिद्धान्तों के आचार्यों ने ‘अलंकार’ को ही काव्य की आत्मा स्वीकार किया।
यों तो अलंकारों के उदाहरण वेदों की संहिताओं में भी उपलब्ध हैं। यथा-ऋग्वेद संहिता में अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, रूपकातिशयोक्ति, व्यतिरेक आदि अलंकारों के उदाहरण उपलब्ध संस्कृत के अलंकार-विवेचन का क्रमबद्ध इतिहास ‘नाट्यशास्त्र’ (भरतमुनि) से प्रारम्भ माना गया है।
अलंकारवादी आचार्य-
ये आचार्य अलंकार को ही काव्य की आत्मा मानते हैं और रस को अलंकार में ही समाहित कर लेते हैं। ऐसे प्रमुख आचार्य हैं-भामह, दण्डी, उद्भट, वामन, रुद्रट आदि।
(1) भामह- इन्होंने अपने काव्यालंकार’ में सर्वप्रथम काव्यशास्त्रीय विषयों का वैज्ञानिक रीति से क्रमबद्ध विवेचन किया है। इसे कुछ विद्वान् पूर्व-विकसित परम्परा का वैज्ञानिक विवेचन मानते हैं— ‘रस-सिद्धान्त की भाँति अलंकार-सिद्धान्त भी परंपरा प्रवाह के रूप में विकसित हो रहा था, जिसकी पुष्टि काव्यालंकार’ में वर्णित विषयों की पूर्णता एवं व्यवस्था से होती है और उसके आधार पर प्राक्-भामहीय अलंकार- विवेचन की श्रृंखला जोड़ी जा सकती है।’ (भारतीय आलोचनाशास्त्र)
भामह ने आत्मा शब्द का प्रयोग न करते हुए भी काव्य में अलंकार की प्रमुखता स्वीकार की।
उन्होंने शब्द एवं अर्थ के द्वारा शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों को महत्व दिया। उनका मत है—
‘न कान्तमपि निभूषं विभाति वनितामुखम्।’
(जिस प्रकार सुन्दर होने पर भी आभूषणरहित नारी का मुख शोभाहीन होता है, उसी प्रकार अलंकारविहीन काव्य भी शोभा नहीं पा सकता।)
(2) दण्डी- इन्होंने अपने ग्रन्थ ‘काव्यादर्श’ में 39 अलंकारों का निरूपण किया है। ये अलंकार को काव्य की शोभा का उत्पादक मानते हैं—
‘काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।’
दण्डी की दृष्टि अधिक उदार है। वे अलंकारों को महत्व देते हुए भी रस, रीति और गुण को आदर प्रदान करते हैं। अतः डॉ. एम. के.डे. उन्हें रीतिवादी आचार्यों में रखते हैं तो डॉ० राघवन् उन्हें अलंकारवादी आचार्य मानते हैं। (भारतीय आलोचनाशास्त्र)
(3) उद्भट- इन्होंने ‘काव्यालंकार सार-संग्रह के अतिरिक्त ‘भामह-विवरण’ नाम से भामह के ‘काव्यालंकार’ की टीका भी लिखी है। इनको इस दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है कि इन्होंने अलंकार को काव्य का प्रमुख एवं अंतरंग तत्व स्वीकार किया है। अंतरंग का अर्थ ‘आत्मा’ ही लगाया जाता है। साथ ही इन्होंने की महत्ता ‘रसवत् अलंकार’ के द्वारा स्वीकार की है।
(4) वामन- ये रीति सम्प्रदाय के समर्थक माने जाते हैं, पर अलंकारवादी आचार्यों में भी इनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है। इन्होंने ‘काव्यालंकार सूत्र’ की रचना की। इन्होंने अलंकार को ही सौन्दर्य का कारण माना और काव्य में ‘सौन्दर्यम् अलंकारः’। आकर्षण अलंकार के ही कारण आता है, अलंकार ही काव्य को ग्राह्य बनाता है, यह भी स्वीकार किया-
‘काव्यं ग्राह्यमलंकारात।’
(5) रुद्रट- इनका काल 825 ई. से 878 ई. के मध्य माना जाता है। इन्होंने ‘काव्यालंकार’ में 66 अलंकारों का उल्लेख किया है। इनका अलंकार विवेचन वैज्ञानिक माना जाता है। इन्होंने अलंकारों के चार वर्ग किये-वास्तव, औपम्य, अतिशय और श्लेष। इन्होंने शब्दालंकारों का स्वतंत्र रूप से विवेचन किया। नवीन अलंकारों का आविष्कार, उनका वैज्ञानिक वर्गीकरण एवं उनकी संख्या में विस्तार तथा विवेचन में स्पष्टता के कारण रुद्रट का स्थान प्रथम श्रेणी के आचार्यों की पंक्ति में आता है। (भारतीय आलोचनाशास्त्र)
(6) कुन्तक- वक्रोक्तिवादी आचार्य कुन्तक ने बाक्य-वक्रता के अन्तर्गत अलंकारों का विवेचन करके कई नवीनताएँ प्रस्तुत की। उन्होंने अलंकारों को केवल 20 तक सीमित कर दिया।
(7) भोज- इन्होंने सरस्वती-कंठभरण एवं’ श्रृंगार प्रकाश में अलंकारों का विवेचन करते हुए कुछ ऐसे अलंकारों का भी उल्लेख किया, जिनकी चर्चा अभी तक नहीं हुई थी। इन्होंने यह संख्या 72 तक पहुँचा दी।
(8) मम्मट- इन्होंने ‘काव्यप्रकाश’ में अलंकारों का उल्लेख करते हुए सामान्य, विनोक्ति, सम और अतद्गुण-चार अलंकारों की उद्भावना की।
(9) अग्निपुराण- इसमें अर्थ के चमत्कार को अलंकार मानते हुए यह स्वीकार किया गया है कि इसके बिना शब्द-सौन्दर्य के होते हुए भी काव्य मनोहर नहीं हो सकता है। अर्थालंकार के बिना वाणी विधवा हो जाती है।
(10) रुय्यक- इन्होंने ‘अलंकार सर्वस्व में 6 शब्दालंकारों और 75 अर्थालंकारों की चर्चा की हैं। इनके वैज्ञानिक वर्णन की महत्ता किसी न किसी रूप में मान्य हुई।
अन्य आचार्य- इन आचार्यों में शोभाकर मित्र (अलंकार-रत्नाकर), हेमचंद्र (काव्यानुशासन), जयदेव (चंद्रालोक), विद्याधर (एकावली), विद्यानाथ (प्रताप-रुद्रयशोभूषण), महापात्र विश्वनाथ (साहित्य-दर्पण), अप्पय दीक्षित (कुवलयानंद), विश्वेश्वर पंडित (अलंकार-कौस्तुभ) और पंडितराज जगन्नाथ (रस-गंगाधर) का भी नामोल्लेख है।
(11) जयदेव- ये अलंकारवादी आचार्यों में अन्तिम प्रसिद्ध आचार्य माने जाते हैं। इनके समय तक काव्यशास्त्र में ध्वनि की स्थापना हो चुकी थी तथा रस को ध्वनि के अन्तर्गत लाने के लिए ध्वनि का एक भेद रस-ध्वनि भी स्वीकार कर लिया गया था। रसवादी आचार्यों ने ‘रस’ को काव्य की आत्मा माना-
‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।’
रसात्मक वाक्य काव्य होता है अर्थात् रस ही काव्य की आत्मा है। उधर मम्मट ने ‘काव्य- प्रकाश’ में दोष-रहित शब्दार्थ को काव्य स्वीकार करने के साथ ही अलंकारों की पूर्णतः उपेक्षा कर दी-
‘तददोषौ शब्दार्थावनलंकृतिः पुनः क्वापि । ‘
(दोषरहित शब्दार्थ काव्य कहे जाते हैं। कहीं-कहीं अलंकार रहित शब्दार्थ भी काव्य हो जाते हैं।)
जयदेव ने ‘चन्द्रालोक’ में मम्मट का स्पष्ट विरोध किया-
अंगी करोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती ।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती ॥
(जो विद्वान् (कृती) अलंकाररहित (अनलंकृती – अन् + अलंकृती) शब्द एवं अर्थ को काव्य मानता है, वह अग्नि को उष्णतारहित अर्थात् शीतल क्यों नहीं मान लेता है ?)
अपने इस श्लोक में जयदेव ने प्रकारान्तर से अलंकार को काव्य की आत्मा ही माना है।
हिन्दी आचार्य-
हिन्दी में राजा मान के दरबारी कवि पुष्य या पुंड द्वारा दोहों में अलंकार- ग्रंथ लिखने का उल्लेख है, पर वह अप्राप्य है। तुलसीदासजी की बरवै-रामायण’ में अनेक अलंकारों के सुन्दर उदाहरण हैं। इनके अतिरिक्त डा० राजवश सहाय ‘हीरा’ (भारतीय आलोचनाशास्त्र) के अनुसार गोपा-कृत (अलंकार चंद्रिका), अकबरी दरबार कवि करनेस-रचित (श्रुतिभूषण, कर्णाभरण, भूषण- भूषण) का भी उल्लेख है, पर ये भी उपलब्ध नहीं हैं।
इतिहास में रीतिकाल के आचार्यों के ग्रन्थों की पर्याप्त चर्चा है। इनका आधार संस्कृत ग्रंथ ही हैं। इनकी संख्या भी लगभग चालीस है।
(1) केशवदास- इन्हें अलंकारबादी आचार्य माना जाता है। इनका यह भाव विख्यात है-
जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुंबरन सरस सुवृत्त ।
भूषन बिनु न बिराजई, कविता, बनिता मित्त ॥
(2) देव- इन्होंने ‘भावविलास’ और ‘काव्य-रसायन’ में अलंकारों का उल्लेख किया है। ये अलंकार को काव्य का पांचव अंग मानकर उसकी महत्ता स्वीकार करते हैं-
मानुष भाषा मुख्य रस, भाव, नायिका, छन्द ।
अलंकार पंचांग ये कहत सुनत आनन्द ।
आधुनिक काल
(1) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-आचार्य शुक्ल अलंकारों को काव्य का बाह्य तत्व स्वीकार करते हैं— ‘भावानुभाव में वृद्धि करने के गुण का नाम ही अलंकार की रमणीयता है।’
(2) आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र- इनका मत शुक्लजी से भिन्न है। ये उन्हें साधन रूप में स्वीकार करते हैं—अलंकारों के उचित प्रयोग से भाव प्रतीति में सहायता मिलती है। काव्य में इनकी महत्ता या उपयोगिता इस रूप में है कि ये भाव-तथ्य तक पहुंचावें। यदि भाव या वस्तु से ये पृथक् हो जायेंगे तो काव्य का स्वरूप नष्ट हो जायेगा और ये निरर्थक हो जायेंगे।
(3) आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी- ये अलंकारों को अनुपयोगी और व्यर्थ मानते हैं, पर आगे यह भी स्वीकार करते हैं-‘अलंकार केवल पहले से सुन्दर वस्तु को अधिक सुन्दर बनाने के उपकरण नहीं हैं। काव्य के मौलिक स्वरूप से उनका गहरा सम्बन्ध है, उसे काव्य की आत्मा मानना अंततः काव्य के विशिष्ट स्वरूप की ही प्रतिष्ठा करना है।’
(4) डॉ० नगेन्द्र- इन्होंने ‘रीति-काव्य’ की भूमिका में अलंकारों को काव्य-शोभा का कारण ही स्वीकार किया।
(5) सुमित्रानन्दन पंत- पंतजी इन्हें भावोत्कर्ष में सहायक मानते हैं-‘कविता में भी विशेष अलंकारों’ से विशेष भाव की अभिव्यक्ति करने में सहायता मिलती है। अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं।’
(6) डॉ० रामकुमार वर्मा- ये अलंकारों को भाषा की परिष्कृत सृष्टि तथा भाव-तीव्रता के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं।
(7) रामधारीसिंह ‘दिनकर’- ये अलंकारों को शोभाकारक ही मानते हैं, पर ये उन्हें आंतरिक शोभा का साधन स्वीकार करते हैं- ‘कविता में अलंकारों के प्रयोग का वास्तविक उद्देश्य अतिरंजन नहीं, वस्तुओं का अधिक-से-अधिक सुनिश्चित वर्णन ही होता है।’
अलंकार सम्प्रदाय का विरोध- इन आचार्यों ने अलंकार सम्प्रदाय का विरोध किया है-
(1) आनन्दवर्धन- ये मात्र उन्हें आभूषण के समान मानते थे-
‘अंगाश्रितास्त्वलंकाराः मन्तव्याः कटकादिक्त् ।’
(2) आचार्य मम्मट- ये अलंकारों की महत्ता को अस्वीकार करते हैं-
‘अनलंकृती पुनः च क्वापि।’
(3) कविराज विश्वनाथ- ये भी अलकारों को आभूषण ही मानते हैं।
उपसंहार-
यदि अलंकार सम्प्रदाय का पर्याय काव्य की आत्मा स्वीकार किया जाय, तो इस पर कई आक्षेप लगाये गये हैं। वास्तव में अलंकार सम्प्रदाय का कार्य अलंकार को महत्वपूर्ण स्थान दिलाना था। यह कार्य हिन्दी में भी नयी कविता अथवा प्रयोगवाद के उद्भव तक किसी-न-किसी रूप में होता रहा है। रीतिकाल के आचार्यों एवं कवियों ने अलंकार को काव्य की आत्मा चाहे न कहा हो, पर अपनी कविता को अलंकारों से बुरी तरह लाद दिया।
“किन्तु अलंकार सम्प्रदाय के व्यावहारिक लाभों को नहीं नकारा जा सकता। अलंकार- सम्प्रदाय के कारण ही भाषागत रमणीयता के रहस्य का इतना विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन हो सका। अलंकारवादियों ने भाषागत रमणीयता के प्रत्येक उतार-चढ़ाव, प्रत्येक हाव-भाव व भंगिमा को पहचानने की कोशिश की। विश्व के अन्य किसी साहित्य में भाषागत रमणीयता का इस प्रकार का विवेचन नहीं मिलता।’
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