अर्थशास्त्र

ड्यूसनबरी की सापेक्ष आय परिकल्पना | Relative Income Hypothesis of Dussenberry in Hindi

ड्यूसनबरी की सापेक्ष आय परिकल्पना | Relative Income Hypothesis of Dussenberry in Hindi

ड्यूसनबरी की सापेक्ष आय परिकल्पना

(Relative Income Hypothesis of Dussenberry)

सर्वप्रथम जेम्स एस० ड्यूसनबरी ने 1949 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “Income Saving and the Theory of Consumer Behaviour” में अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक उपभोग फलनों के मध्य संगति स्थापित करने का प्रयास किया था। उनका सिद्धान्त, जो “सापेक्ष आय परिकल्पना” के नाम से जाना जाता है, निम्नलिखित दो मान्यताओं पर आधारित है।

(1) विभिन्न व्यक्तियों के उपभोग फलन स्वतन्त्र न होकर परस्पर निर्भर होते हैं (प्रदर्शन प्रभाव या Demonstrations effect)|

(2) समय का उपभोग-आय सम्बन्ध पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। (अनिवर्ती प्रभाव या Ratchet Effect)

  1. प्रदर्शन प्रभाव (Demonstration Effect)-

ड्यूसनबरी जे समंकों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि किन्हीं संगत आय स्तरों पर श्वेत लोग अपने जिलों में जितनी बचत करते हैं, उनके ही पड़ोस में नीग्रो लोग उनसे तिगुनी बचत करते हैं। इस प्रकार परिवार का पारिवारिक उपभोग उस परिवार को केवल स्वतन्त्र रुचियों का ही (यदि उन्हें पहचाना जा सके) फलन नहीं होता, बल्कि सही तथा अन्य उच्च आय समूह के अन्य उपभोक्ताओं का भी फलन होता है। लोगों की रुचियां भारी विज्ञापन अभियानों से प्रोत्साहित होती हैं।

ड्यूसनबरी ने समंकों के आधार पर यह प्रदर्शित किया कि जब परिवार परिवर्तित आय के स्तर पर समायोजित हो जाते हैं, वे लगभग उसी अनुपात में बवत करते हैं, जितनी कि पहले करते थे। जैसे-जैसे आय में वृद्धि होती है गरीब परिवार अधिक बचत करते हैं, किन्तु उनकी बचतें इस स्तर पर नहीं पहुंच पाती हैं, जिस स्तर पर सम्पन्न परिवार बचतें करते हैं, ड्यूसनबरी को अवधारणा के अनुसार उपभोक्ता व्यय सापेक्षिक आय (Relative income) पर निर्भर करता है, न कि निरपेक्ष आय (absolute income) पर। उपभोग फलन रेखीय (liner) है वक्रीय (curved) नहीं, क्योंकि अन्य परिवारों की तुलना में सापेक्षिक आय यह निर्धारित करती है कि एक परिवार का उपभोग व्यय क्या होगा तथा वह कितनी बचत करेगा। लोगों के उपभोग व्यय का आधार उनकी स्वयं की रुचियाँ नहीं होती हैं, बल्कि उनके पड़ोसियों के उपभोग व्यय का स्वरूप होता है। लोगों की यह प्रदर्शित करने की रुचि होती है कि वे भी उतना ही व्यय कर सकते हैं, जितना कि उनके पड़ोसी।

ड्यूसनबरी के अनुसार, “प्रदर्शन प्रभाव” (Demonstration Effect) ऐसा तत्व है जो उपभोग को प्रभावित करता है। गरीब लोग सम्पन्न व्यक्तियों के जीवन-स्तर का अनुकरण करते हैं। अर्द्ध-विकसित देशों के लोग सम्पन्न देशों के उपभोग के स्वरूप के अनुकरण का प्रयत्न करते हैं। यह उचित नहीं हैं क्योंकि इन देशों को जिस धन की बचत कर विनियोग करना चाहिए, वह उपभोग वस्तुओं पर व्यय कर दिया जाता है। इससे आर्थिक वृद्धि में अवरोध उत्पन्न होते हैं।

प्रथम मान्यता के आधार पर ड्यूसनबरी ने यह तर्क दिया था कि किसी व्यक्ति द्वारा आय का उपभोग में प्रयुक्त अनुपात उसकी निरपेक्ष (absolute) आय पर नहीं अपितु सापेक्ष आय पर निर्भर करता है। अन्य शब्दों में, इसका निर्धारण समाज में आय-वितरण के संदर्भ में उसकी सापेक्ष स्थिति के द्वारा होता है। निर्दिष्ट वर्ष में आय बढ़ने पर व्यक्ति अपनी आय का कम अनुपात उपभोग पर खर्च करेगा, यदि आय वितरण को दृष्टि से उसकी स्थिति में सुधार हो गया है। इसके विपरीत, यदि आय-वितरण की दृष्टि से उसकी स्थिति खराब हो जाती है तो आय बढ़ने पर उपभोग का अनुपात भी बढ़ जाएगा। तथ्यों के आधार पर इस तर्क की पुष्टि हुई है। यदि आय-वितरण की दृष्टि से व्यक्ति की स्थिति समाज में अपरिवर्तित रहती है तो वह अपनी आय का स्थिर अनुपात उपभोग पर व्यय करता रहेगा भले ही उसकी आय में वृद्धि पैदा हो गई हो। यदि सभी व्यक्तियों की स्थिति पूर्ववत् बनी रहती है तो वैयक्तिक उपभोग आय बढ़ने पर दीर्घकाल में समान स्थिर अनुपात में उपभोग व्यय बढ़ेगा। यद्यपि कुछ लोगों की सापेक्ष आय की स्थिति में परिवर्तन हो सकता है, परन्तु समष्टि दृष्टि से स्थिति पूर्ववत् रहेगी जिससे दीर्घकालिक उपभोग-आय अनुपात भी स्थिर रहेगा। इस कथन को समय-श्रेणी तथ्यों से पुष्टि होती है। इस प्रकार सापेक्ष आय परिकल्पना यह बताती है कि परिक्षेत्रों और समय श्रेणी तथ्यों में विरोधाभास है। इस प्रकार इस मान्यता के अनुसार उपभोगित उपयोगिता फलन को निम्नवत् दर्शाया जाता है-

 U = U (CO/RO . C1/R1……Cn/Rn

इस फलन में RO से Rn शेष जनसंख्या के योग का भारांकित औसत प्रदर्शित करते हैं।

अनिवर्ती प्रभाव (Ratchet Effect)

इस मान्यता के अनुसार एक व्यक्ति केवल वर्तमान से ही प्रभावित नहीं होता है, बल्कि उस पर पिछली समयावधियों में उनका जीवन स्तर, किस स्तर पर था इसका भी प्रभाव पड़ता  है। अर्थात् जब किसी व्यक्ति की आय में वृद्धि होती है तब परिवार के उपभोग स्तर का सामंजस्य एक उच्चतर स्तर पर हो जाता है। अब मान लीजिए कि पुनः उस व्यक्ति की आय घट जाती है तब निस्संदेह उसके उपभोग व्यय में कमी आयेगी किन्तु पूर्व स्तर तक कमी नहीं आयेगी, क्योंकि जब एक बार व्यक्ति किसी विशिष्ट जीवन स्तर का आदी हो जाता है तो उस जीवन स्तर से सम्बद्ध उपभोग को उसे आय में कमी के अनुसार आनुपातिक रूप में घटाना सम्भव नहीं होता।

इस प्रकार ड्यूसनबरी के मतानुसार आय की कमी के साथ उपभोग स्तर को घटाना कठिन होता है। परिणामत: एक व्यक्ति उच्च जीवन-स्तर को बनाये रखने का भरसक प्रयत्न करता है। इस प्रकार का प्रयास वह अपने पड़ोसियों के मध्य अपनी स्थिति तथा स्तर को बनाये रखने के लिए करता है। कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहता है कि उसके पड़ोसी इस बात को जान जाएँ कि अब उसके लिए पूर्व के जीवन-स्तर को बनाए रखना सम्भव नहीं है। कारण कुछ भी हो, पारिवारिक आय-व्यय के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि आय में कमी के परिणामस्वरूप उपभोग व्यय में कमी थोड़ी ही मात्रा में होती है। उपभोग व्यय आय के अनुपात में आय में वृद्धि के साथ बढ़ जाता है किन्तु उपभोग व्यय आय के घटने के साथ उसी अनुपात में कम नहीं होता है। इस प्रकार उपभोग फलन उत्क्रमणीय अथवा प्रतिवर्ती (reversible) नहीं होता है।

ड्यूसनबरी कीन्स की द्वितीय मान्यता कि उपभोग वर्तमान आय का फलन है, से सहमत नहीं है। इनके मतानुसार उपभोग केवल वर्तमान आय का ही फलन नहीं होता है, बल्कि यह पूर्व में प्राप्त आय के उच्चतम स्तर का फलन भी होता है। ड्यूसनबरी के मतानुसार, “अधिकतम आय वाले वस्तु के उपभोग का स्तर स्थापित करते हैं, जिसमें कटौतियाँ की जाती हैं (बशर्ते कि यह अधिकतम राशि आय में केवल स्फुरण की द्योतक न हो)। अधिकतम उपभोग ही सरल होगा, उपभोग को घटाकर किसी दिए हुए स्तर पर लाना उतना ही कठिन होगा।”

सापेक्ष आय परिकल्पना की रेखाचित्रीय रूप से चित्र से समझाया गया है। जहां दीर्घकालीन उपभोग फलन C1 अल्पकालीन उपभोग फलन Cs1 तथा Cs2 है। मान लीजिए कि आय OY1 के अधिकतम स्तर पर है जहां उपभोग E1 है Y1 है। अब आय गिरकर OYo हो जाती है। क्योंकि लोग आय के OY1 स्तर पर जीवन स्तर के आदी हैं, इसलिए वे अपने उपभोग को घटाकर EoYo स्तर पर नहीं लाएंगे, बल्कि अपनी चालू बचतें घटाकर अपने उपभोग में यथासम्भव न्यूनतम कमी करेंगे। इस प्रकार, वे Cs1 वक्र पीछे की ओर जाते हुए C1 बिन्दु तक पहुंचेंगे और उपभोग C1Yo स्तर पर होंगे। जब समुत्थान (Recovery) की अवधि शुरू होती है, तो आय बढ़कर पिछले आय के अधिकतम स्तर OY1 पर पहुंच जाती है, परन्तु उपभोग Cs2 वक्र के साथ-साथ धीरे-धीरे C1 से E1 पर पहुंचता है क्योंकि उपभोक्ता पुनः अपनी बचत का पिछला स्तर स्थापित करेंगे। यदि आय बढ़ती हुई OY2 स्तर पर पहुंच जाएगी, तो उपभोक्ता नये अल्पकालीन उपभोग फलन Cs2 पर C1 वक्र के साथ-साथ ऊपर की ओर E1 से E2 पर पहुंच जाएंगे । यदि आय के OY2 स्तर पर एक बार फिर मंदी आएगी, तो उपभोग गिर कर उपभोग फलन Cs2 के साथ-साथ C2 बिन्दु की ओर जाएगा और आय गिरकर OY1 स्तर पर आ जाएगी। परन्तु दीर्घकाल पर्यन्त समुत्थान के दौरान उपभोग फिर दीर्घकालीन उपभोग फलन C1  के साथ-साथ तब तक बढ़ेगा जब तक कि वह अल्पकालीन उपभोग फलन Cs2 पर नहीं पहुंच जाता। इसका कारण यह है कि जब आय अपने वर्तमान स्तर OY1 से आगे बढ़ती है, तो दीर्घकाल में उपभोग-आय अनुपात (APC) स्थिर हो जाता है। अल्पकालीन उपभोग फलन ऊपर की ओर सरक कर Cs1 से Cs2 पर चला जाता है परन्तु उपभोक्ता दीर्घकालीन उपभोग फलन C1 पर E1 से E2 तक जाते हैं। परन्तु जब आय गिरती है तो उपभोक्ता Cs2 वक्र पीछे की ओर E2 से C2 तक जाते हैं। इसे अर्थशास्त्रियों ने ‘रैचट प्रभाव’ (Ratchet effect) कहा है। जब दीर्घकाल में आय बढ़ती है, तो अल्पकालीन उपभोग फलन किड़किड़ाता हुआ ऊपर को बढ़ता है, परन्तु जब आय गिरती है तो यह नीचे की ओर सरक कर पहले के स्तर तक नहीं आता।

उपर्युक्त मान्यता के आधार पर प्रदर्शित अनिवर्ती प्रभाव को निम्नलिखित समग्र बचत आय अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-

APS = S/Y = ao + a, Y1/Yo……. (1)

उक्त समीकरण के अनुसार यदि Y1/Yo का अनुपात स्थिर रहता है तो बचत आय अनुपात भी स्थिर रहेगा परन्तु अवसादकाल में YLLYo होगा जिससे कि बचत आय अनुपात में गिरावट आयेगी तथा औसत उपभोग प्रवृत्ति इसी अनुक्रम में निम्नवत् प्रस्तुत की जा सकती है-

APC = C/Y = (1-ao) –a Y1/Yo ……… (2)

ड्यूसनबरी ने अपनी दोनों सम्बद्ध परिकल्पनाएं मिलाकर इसे निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया है-

e  C1/Y1= a- e Y1/Yo

जहां C तथा Y क्रमश: उपभोग तथा आय है,t चालू अवधि को बताता है, (O) पिछले अधिकतम स्तर को और a धनात्मक स्वायत्त उपभोग से सम्बन्धित स्थिरांक है और e उपभोग फलन है। इस समीकरण में, चालू अवधि में उपभोग-आय अनुपात (Ct/Yt) को Yt/Yo का फलन माना गया है अर्थात् पिछली अधिकतम आय से चालू आय का अनुपात यदि यह अनुपात स्थिर रहता है, जैसा कि स्थिरता से बढ़ती आय की अवधियों में होता है, तो चालू उपभोग आय अनुपात स्थिर रहता है। मंदी के दौरान, जब चालू आय (Y1) पिछले अधिकतम आय स्तर (Yo) से नीचे गिरती है, तो चालू उपभोग आय अनुपात (Ct/Yt) बढ़ेगा।

फलनिक रूप में सापेक्ष-आय परिकल्पना को निम्नलिखित प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-

C1 = a + b(Y1/Yo) b<o

उपर्युक्त समीकरण में Yo पूर्व की आय का उच्चतम स्तर है तथा C1 एवं Y1 क्रमश: समय अवधि। में उपभोग एवं आय के वर्तमान स्तर को दर्शाते हैं। उपभोग एवं आय अनुपात (APC) जो इस फलन में दिया गया है, मन्दी के समय जब वर्तमान समय अवधि की आय Y1 पूर्व अवधि की उच्चतम आय Yo से कम है, अर्थात् Y1 <Yo है, अधिक होगा जबकि समृद्धि काल में जब वर्तमान आय पूर्व में प्राप्त उच्चतम आय से अधिक होती है, अर्थात् जब Y1>Yo की स्थिति होती है यह अनुपात कम होगा। यदि केवल दीर्घकालीन प्रवृत्ति को ही ध्यान में रखा जाय, जिससे सामान्यतः Yo = Yt-1 (पूर्व समय अवधि की आय) है, तो Y1/Yo एक स्थिर मूल्य 1+a के बराबर होगा। यहां a राष्ट्रीय आय की वार्षिक वृद्धि दर है। दीर्घकाल में औसत उपभोग प्रवृत्ति, अर्थात् उपभोग आय का अनुपात (C/Y) भी इस सिद्धान्त के अनुसार स्थिर रहता है।

आलोचनात्मक समीक्षा

यद्यपि ड्यूसनबरी का सिद्धान्त बजट अध्ययनों तथा अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन काल श्रेणी अध्ययनों के बीच विरोधों का सामधान करता है, फिर भी यह बात नहीं कि इसमें कमियां नहीं हैं।

प्रथम, सापेक्ष आय सिद्धान्त की मान्यता यह है कि आय तथा उपभोग में समानुपाती वृद्धि होती है। परन्तु पूर्ण रोजगार स्तर पर होने वाली आय की वृद्धियों से उपभोग में हमेशा समानुपाती वृद्धियाँ नहीं होती।

दूसरे, यह सिद्धान्त ग्रह मानकर चलता है कि उपभोग तथा आय में प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है परन्तु अनुभव के आधार पर इस बात का समर्थन नहीं होता। व्यापारिक मंदियों के परिणामस्वरूप उपभोग हमेशा नहीं घटता, उदाहरणार्थ 1948-49 तथा 1974-75 की व्यापारिक मंदियों के दौरान उपभोग कम नहीं हुआ था।

तीसरे, प्रस्तुत सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि समस्त आय के स्तर में परिवर्तन होने पर भी आय का वितरण लगभग अपरिवर्तित रहता है। यदि आय में वृद्धियां होने के साथ-साथ आय का अधिक समानता की दिशा में पुनर्वितरण होता है, तो अपेक्षाकृत गरीब तथा अपेक्षाकृत धनी परिवारों से संबंधित सभी व्यक्तियों की APC घटेगी। इस प्रकार, जब आय बढ़ेगी, तो उपभोग फलन ऊपर की ओर सरक कर Cs1 से Cs2 पर नहीं जाएगा।

चौथे, माइकल ईवेन्ज (Micheal Evans) के अनुसार, “उपभोक्ता व्यवहार पूर्ण रूप से अपरिवर्तनीय होने के बजाय कालपर्यन्त धीरे-धीरे परिवर्तनीय है। तब पिछले अधिकतम स्तर से जितना ही अधिक समय बीत जाएगा, पिछले अधिकतम आय स्तर का चालू उपभोग पर उतना ही कम प्रभाव पड़ेगा।” यदि हम यह भी जानते हों कि किसी उपभोक्ता ने अपने पिछले उच्चतम आय स्तर पर कैसे व्यय किया था, तो भी यह जान सकना सम्भव नहीं कि वह अब किसी ढंग से व्यय करेगा।

पांचवें, प्रस्तुत सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि उपभोक्ता के व्यय में होने वाले परिवर्तन यह उसके पिछले उच्चतम आय स्तर से सम्बद्ध रहते हैं। यह सिद्धान्त इस दृष्टि से दुर्बल है कि यह उपभोक्ता-व्यवहार को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों की-जैसे कि परिसम्पत्ति धारणों, शहरीकरण, आयु-संरचना में परिवर्तनों, नई उपभोक्ता वस्तुओं के आगमन इत्यादि की उपेक्षा करता है।

अन्तिम, इस सिद्धान्त की एक और अवास्तविक मान्यता यह है कि उपभोक्ता अधिमान दूसरों पर निर्भर होते हैं जिनके परिणामस्वरूप किसी उपभोक्ता का व्यय उसके धनी पड़ोसी के उपभोग ढांचों से सम्बन्ध रखता है। परन्तु हमेशा ऐसा नहीं होता। प्रोफेसर जार्ज कटोना (Professor George Katona) के प्रत्यक्ष अध्ययनों से पता चला है कि उपभोक्ता व्यय में प्रत्याशाओं और प्रवृत्तियों का बहुत बड़ा हाथ रहता है। उसका कहना है कि महत्त्वाकांक्षाओं के स्तरों पर आधारित आय-प्रत्याशाएं और परिसम्पत्ति धारणाओं के प्रति प्रवृत्तियाँ उपभोक्ता व्यय व्यवहार को प्रदर्शन प्रभाव की अपेक्षा अधिक प्रभावित करती हैं।

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Pankaja Singh

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