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प्रतिवेदन से आशय | प्रतिवेदन सम्बन्धी नियम या सिद्धांत | प्रतिवेदन तैयार करने की विधि

प्रतिवेदन से आशय | प्रतिवेदन सम्बन्धी नियम या सिद्धांत | प्रतिवेदन तैयार करने की विधि | Meaning of report in Hindi | Reporting rules or principles in Hindi | Report Preparation Method in Hindi

प्रतिवेदन से आशय

प्रतिवेदन एक ऐसा प्रलेख है जिसमें सूचना देने के उद्देश्य से किसी विशेष समस्या की जाँच की जाती है और उस सम्बन्ध में निष्कर्ष, विचार एवं कभी-कभी सिफारिशें भी प्रस्तुत की जाती है।

डॉ. मित्तल के अनुसार, “सरकारी अथवा गैर-सरकारी स्तर पर विभिन्न मामलों की छानबीन के लिए जो समितियाँ, आयोग, अध्ययन दल गठित किये जाते हैं, उनके द्वारा जाँच के पश्चात् प्रस्तुत किये गये विवरण, सुझाव और सिफारिश आदि को सामूहिक रूप से ‘प्रतिवेदन’ कहा जाता है।”

प्रतिवेदन या रिपोर्ट से आशय– ‘रिपोर्टिंग’ अथवा रिपोर्ट लिखना एक विधि है, जिसके द्वारा किसी भी प्रकार से विचार-विमर्श बैठक आदि का ब्यौरा दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, रिपोर्ट-लेखन एक काल है, जिसके द्वारा किसी भी प्रकार के सर्वेक्षण या प्रेक्षण के उपरांत व्यक्तिगत अथवा सामूहिक विचारों को व्यक्त किया जाता हैं। अर्थात् किसी मामले की छानबीन अथवा पूछताछ के उपरांत जो भी निष्कर्ष निकलते हैं, उन्हें रिपोर्ट की शक्ल में अपनी भाषा में लिखा जाता है। इस प्रकार ‘रिपोर्ट’ एक लेखा है, जो कि किसी एक या उससे अधिक मामलों की पूछताछ अथवा छानबीन करने के उपरांत लिखने वाले की अपनी भाषा में लिखा जाता है। इसके लिए किसी एक व्यक्ति अथवा एक से अधिक व्यक्तियों की कमेटी बनाकर मामला सौंप दिया जाता है और वे सुपुर्द किये गये मामलों की पूरी छानबीन करते हैं तथा उसके उपरांत वे जो भी निष्कर्ष निकलते हैं उन सभी तथ्यों को एक रिपोर्ट की शक्ल में लिखा दिया जाता है। प्रायः सभी जटिल मामलों को निपटाने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों अथवा विशेषज्ञों की नियुक्ति की जाती है, जिन्हें सौंपे गये मामले की छानबीन करके अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी पड़ती है।

प्रतिवेदन सम्बन्धी नियम या सिद्धांत

प्रतिवेदन तैयार करने के लिए निम्नलिखित नियमों अथवा सिद्धांतों को अच्छी तरह से ध्यान में रखना चाहिए-

(1) प्रतिवेदन में इस बात का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि वह जिस विषय पर तैयार किया गया है, उस विषय की ठीक-ठीक जानकारी उसके द्वारा मिले। उसमें सभी तथ्यों का स्पष्टीकरण हो और उसके द्वारा सही मार्गदर्शन मिल सके।

(2) यदि वह समिति या संस्था या संगठन की कार्यवाही को प्रस्तुत करता हो तो उसमें यह स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि समिति का गठन किसलिए हुआ है, उसमें किन-किन मुद्दों पर बहस हुई है, उनके बारे सदस्यों की क्या राय रही, विरोधियों ने किन-किन बातों का विरोध किया और उन्होंने अपने पक्ष के समर्थन में कौन-कौन से तर्क प्रस्तुत किये।

(3) यदि वह प्रतिवेदन किसी गोष्ठी या बैठक का विवरण प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया गया हो, तो उसमें उस गोष्ठी या बैठक के कार्य-कलाप का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए और यह भी उल्लेख होना चाहिए कि उस गोष्ठी या बैठक की कार्यवाही सामान्य गति से चली अथवा नहीं। यदि कोई व्यवधान उपस्थित हुआ, तो उसका कारण क्या था? सदस्य उत्तेजित हुए, उदासीन रहे, या एकदम शांत रहे? वातावरण में सद्भाव बना रहा या किसी प्रकार की कटुता रही ?

(4) यदि प्रतिवेदन किसी व्यापारिक संस्थान, किसी कार्यालय, विद्यालय या विश्वविद्यालय के किसी कर्मचारी की पदोन्नति या पदावनति के लिए उसके चाल-चलन, कार्य क्षमता आदि के बारे में तैयार किया गया हो, तो उसमें उस व्यक्ति के बारे में ज्ञात सभी तथ्यों का उल्लेख सही- सही होना चाहिए, किसी भी काल्पनिक या मनगढ़त बात को स्थान नहीं देना चाहिए और उस व्यक्ति के बारे में पूरी छानबीन करके ही प्रतिवेदन प्रस्तुत करना चाहिए।

(5) यदि प्रतिवेदन किसी कार्यालय, विद्यालय, विश्वविद्यालय, व्यापारिक संस्थापन या संगठन की कार्य-पद्धति को सुधारने तथा अधिक गतिशील बनाने के लिए तैयार किया गया हो, तो उसमें उसकी उपलब्धियों तथा कमियों का ठीक-ठीक विवरण देते हुए अपना यह सुझाव भी प्रस्तुत करना चाहिए कि किस तरह उसकी कार्य-पद्धति में सुधार हो सकता है, कैसे उसकी कार्य-क्षमता बढ़ सकती है, कैसे उसको अधिक प्रगति की ओर ले जा सकते हैं अथवा कैसे उसकी अधिकाधिक उन्नति हो सकती है।

(6) यदि प्रतिवेदन किसी कार्यालय, संस्था, संगठन या विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार या अनुचित कार्यवाही के बारे में तैयार करना हो, तो सभी तथ्यों की खोज-बीन करके तथा सम्बन्धित व्यक्तियों से साक्षात्कार करके अपना ठीक-ठीक मत व्यक्त करना चाहिए और उन सभी मुद्दों का सही-सही उल्लेख होना चाहिए जो भ्रष्टाचार, अनाचार या अनैतिक व्यवहार अथवा अनुचित कार्यवाही से सम्बन्धित हो तथा जिन्हें छिपाने से लाभ की अपेक्षा हानि की अधिक सम्भावना हो।

(7) प्रतिवेदन निर्भ्रान्त, संक्षिप्त एवं सारगर्भित होना चाहिए। उसमें दृष्टांतों एवं उदाहरणों का प्रयोग कम-से-कम करना चाहिए और आवश्यक बातों से यथासम्भव बचने का प्रयास होना चाहिए।

(8) प्रतिवेदन किसी संस्था, संगठन, बैठक, गोष्ठी, शोध-प्रबंध आदि का जीवंत दस्तावेज होता है। अतः उसमें अनुपयुक्त विवरण कदापि नहीं होना चाहिए और बातें तर्कसम्मत एवं तथ्यपूर्ण होनी चाहिए।

(9) प्रतिवेदन की भाषा सदैव औपचारिक एवं सधी हुई होनी चाहिए, उसमें आलंकारिक भाषा का प्रयोग कभी नहीं होना चाहिए, वह द्विअर्थक शब्दों, वाक्यांशों या वाक्यों से सर्वथा मुक्त होना चाहिए और उसमें अनावश्यक रूप से लम्बे वाक्यों का प्रयोग कदपि नहीं होना चाहिए।

(10) प्रतिवेदन का आकार उसके स्वरूप पर निर्भर होता है, क्योंकि यदि किसी साहित्यिक गोष्ठी या पुस्तक समीक्षा अथवा किसी संस्था की तथ्यान्वेषण समिति का प्रतिवेदन हो, तो वह लम्बा हो सकता है और यदि किसी समिति, संस्था, संगठन आदि की बैठक या सभा का प्रतिवेदन हो या अन्य किसी प्रकार का हो, तो वह छोटे आकार का हो सकता है।

(11) प्रतिवेदन के अन्य में अपनी सिफारिश, अपने सुझाव एवं अपने निष्कर्ष का उल्लेख भी अवश्य होना चाहिए।

(12) प्रतिवेदन के अन्त में उन सभी व्यक्तियों के हस्ताक्षर भी अवश्य होने चाहिए, जिनकी सम्मति या राय से वह तैयार किया गया है।

(13) प्रतिवेदन किसी लेखक की योग्यता का परिचायक होता है। अतः वह सदैव सुविचारित एवं प्रभावी ढंग से लिखा जाना चाहिए।

(14) प्रतिवेदन की शैली सदैव निर्वैयक्तिक होनी चाहिए और उसमें भूलकर भी वैयक्तिकता का समावेश नहीं होना चाहिए।

प्रतिवेदन तैयार करने की विधि

किसी भी सम्बन्ध में रिपोर्ट तैयार करना अत्यन्त कुशाग्रता का कार्य है। इसका प्रारम्भ भली-भाँति सोच-समझकर करना चाहिए। जरा-सी जल्दबाजी विपरीत परिणाम दे सकती है एवं निराशा को जन्म दे सकती है। प्रतिवेदन तैयार करते समय निम्नलिखित विधि को ध्यान में रखना चाहिए-

  1. सूचना के साधनों का अनुसंधान- सूचना के साधनों का अनुसंधान करना एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। इसे भली-भाँति सोच-समझकर प्रारम्भ करना चाहिए। अनुसंधान की सीमा प्रतिवेदन के आकार व इसके महत्व पर निर्भर करती है। सूचनाओं के मुख्य साधन हैं- कम्पनी की फाइलें, व्यक्तिगत अनुकरण, साक्षात्कार, पत्र, प्रश्न-वाचिका, पुस्तकालय, अनुसंधान इत्यादि। इसका वर्णन निम्नांकित है-

(अ) अनुसंधान हेतु कम्पनी की पुरानी, फाइलों पर अधिक विश्वास होता है, क्योंकि उनमें जो भी रिकॉर्ड होता है वह लिखित होता है जिससे कि भविष्य में उसे नकारा नहीं जा सकता। कभी-कभी ये फाइलें अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होती हैं। अतः यह आवश्यक है कि सूचना के अनुसंधान के लिए पुरानी फाइलों को अवश्य देखा जाय।

(ब) जब ग्राहकों से शिकायत आती है कि उनकी सेवाएँ संतुष्टिपूर्ण ढंग से नहीं हो रही हैं। तथा उनकी तरफ उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है तो इसके लिए साक्षात्कार करना पड़ता है। स्टाफ के सदस्यों से साक्षात्कार करना या समय-समय पर सभाएँ आयोजित करना अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है। इस साक्षात्कारों का अत्यन्त सावधानी से रिकॉर्ड रखा जाना चाहिए।

(स) जब अधिक मात्रा में लोगों से सम्बन्ध होता है तो केवल वही विधि अपनायी जाती है जो कि व्यावहारिक होती हो। इसके लिए प्रश्न वाचिका भी सहायक होती है। परन्तु प्रश्न वाचिका अधिक लम्बी नहीं होनी चाहिए। प्रश्न इस प्रकार के पूछे जाने चाहिए कि उनके उत्तर लम्बे न हों अर्थात् प्रश्न इस प्रकार के हों कि उत्तर केवल हाँ या न में हों।

(द) अन्य प्रकार के प्रतिवेदनों के सम्बन्ध में पुस्तकालय का अनुसंधान लाभदायक होता है। इसमें सभी प्रकार की पुस्तकों एवं मैंगजीन आदि का उल्लेख होता है।

  1. नोट्स लेना- अनुसंधान की स्थिति में लेखक प्रत्येक विषय पर नोट्स लेता है। तब उनके विश्लेषण के बारे में विचार किया जाता है एवं निर्णय लिया जाता है कि अन्तिम रिपोर्ट में ये नोट्स किस प्रकार सहायक होंगे।
  2. आँकड़ों का विश्लेषण- रिपोर्ट तैयार करने के लिए उपलब्ध आँकड़ों का विश्लेषण एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्य है। अतः इस सम्बन्ध में विश्लेषक को बड़े धैर्य एवं निपुणता से कार्य लेना चाहिए।
  3. रूपरेखा बनाना- लेखक को रिपोर्ट को अन्तिम रूप देने से पूर्व एक रूपरेखा बनानी होती है कि रिपोर्ट को कहाँ से आरम्भ किया जायेगा, उसकी विषय-सामग्री क्या होगी तथा अन्तिम रूप किस प्रकार किया जायेगा। इसके लिए तथ्यों को संक्षिप्त रूप से विश्लेषित करना चाहिए तथा अन्तिम निष्कर्षो पर पहुँचना चाहिए। रूपरेखा बनाने के कोई आधारभूत नियम नहीं है, परन्तु ऐसा करने से रिपोर्ट लिखने में सहायता मिलती है, इसलिए सभी लेखक अन्तिम रिपोर्ट तैयार करने से पूर्व रूपरेखा आवश्यक ही बनाते है।
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