प्रतिवेदन के भेद | प्रतिवेदन या रिपोर्ट लिखने के कदम या विधि

प्रतिवेदन के भेद | प्रतिवेदन या रिपोर्ट लिखने के कदम या विधि | Reporting differences in Hindi | Steps or method of writing report or report in Hindi

प्रतिवेदन से आशय

प्रतिवेदन एक लेखा है जो कि किसी एक या उससे अधिक मामलों की पूछताछ अथवा छानबीन करने के उपरांत वाले की अपनी भाषा में लिखा जाता है।

प्रतिवेदन के भेद-

वैसे तो प्रतिवेदन कई प्रकार के होते हैं, परन्तु सुविधा की दृष्टि से उनके चार भेद किये जा सकते हैं-

(1) व्यापारिक संस्थान, कार्यालय, संगठन या अन्य संस्थाओं की कार्यपद्धति से सम्बन्धित प्रतिवेदन, (2) साहित्यिक गोष्ठी, उपसमिति, समिति आदि से सम्बन्धित प्रतिवेदन, (3) व्यक्ति से सम्बन्धित प्रतिवेदन, (4) शोध-प्रबंध सम्बन्धी प्रतिवेदन।

  1. व्यापारिक संस्थान, संस्था आदि की कार्यपद्धति से सम्बन्धित प्रतिवेदन- ऐसे प्रतिवेदनों की तैयारी उस समय की जाती है, जिस समय किसी व्यापारिक संस्थान अथवा कार्यालय या संगठन या अन्य किसी संस्था की कार्य-पद्धति को सुधारने या अधिक सुलभ बनाने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में उस संस्थान, कार्यालय, संगठन या संस्था के उच्च अधिकारियों को प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है और वे सभी बातों की पूरी-पूरी छानबीन करके ऐसा प्रतिवेदन तैयार करते हैं, जिसमें या तो नयी-नयी शाखाएँ खोलने की सिफारिश की जाती है या व्यापार को और अधिक बढ़ाने के लिए अन्य कोई उपाय बताये जाते हैं अथवा कार्यालय की कार्य क्षमता बढ़ाने के लिए नयी-नयी योजनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं अथवा किसी संगठन को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए नये-नये सुझाव दिये जाते हैं या किसी संस्था की उत्तरोत्तर प्रगति के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं।
  2. साहित्यिक गोष्ठी, समिति या उपसमिति सम्बन्धी प्रतिवेदन- एक साहित्यिक गोष्ठी तथा किसी समिति के स्वरूप की भिन्नता के कारण उनके प्रतिवेदनों में भी भिन्नता होती है। जैसे— साहित्यिक गोष्ठी के प्रतिवेदन में पहले से गोष्ठी में प्रस्तुत विषय का उल्लेख किया जाता है, फिर उन विभिन्न विद्वानों के मतों का सार दिया जाता है, जो उस विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हैं और अन्त में गोष्ठी के अध्यक्ष का मत व्यक्त करते हुए गोष्ठी के संचालक का नाम उद्धृत किया जाता है। इसके ठीक विपरीत किसी कामकाजी समिति का प्रतिवेदन होता है, जिसमें यह उल्लेख करना पड़ता है कि बैठक के दौरान सम्बद्ध नियमों, अधिनियमों के अतिरिक्त कौन-कौन से अन्य वैधानिक प्रश्न उठाते गये, सदस्यों में से किस-किस ने अपने विचार व्यक्त करते समय विषय का समर्थन किया और किस-किस सदस्य ने विरोध प्रकट किया, विरोधियों ने अपने पक्ष का समर्थन करने के लिए कौन-कौन से तर्क प्रस्तुत किये और किन कारणों से विषय स्वीकृत या अस्वीकृत हुआ। इस तरह उक्त दोनों प्रकार के प्रतिवेदनों में पर्याप्त अन्तर होता है।
  3. व्यक्ति सम्बन्धी प्रतिवेदन – प्रायः यह देखा गया है कि जिस संस्था, संगठन, व्यापारिक संगठन, कार्यालय आदि में अनेक व्यक्ति कार्य करते हैं, वहाँ उनकी पदोन्नति, उनके विरुद्ध कोई अभियोग या उनका स्थानान्तरण करने के लिए उनके उच्च अधिकारियों से उन कर्मचारियों के चाल-चलन, कार्य-क्षमता, व्यवहार दक्षता आदि के बारे में प्रतिवेदन माँगा जाता है। इसी को ‘व्यक्ति सम्बन्धी प्रतिवेदन’ कहते हैं।
  4. शोध-प्रबंध सम्बन्धी प्रतिवेदन- प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में विविध विषयों पर शोध-प्रबंध पर्याप्त मात्रा में तैयार होते हैं और उनके परीक्षण हेतु वे विभिन्न परीक्षकों के पास भेजे जाते हैं। प्रायः एक शोध-प्रबंध तीन परीक्षकों के पास परीक्षण हेतु भेजा जाता है और वे परीक्षक उस शोध-प्रबंध का आद्योपांत अध्ययन करके उसकी उपलब्धियों एवं कमियों की ओर संकेत करते हुए अन्त में पी-एच.डी. या डी. लिट् या डी.एस.सी. की उपाधि प्रदान करने हेतु संस्तुति प्रस्तुत करते है। प्रत्येक प्रतिवेदन में तीन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है-

(क) यह शोध-प्रबंध तथ्यों की नूतन खोज अथवा उन तथ्यों के नवीन आख्यान के आधार पर लेखक की सर्वदा मौलिक कृति है। (ख) यह शोध-प्रबंध शोधकर्ता की समीक्षात्मक विवेचना सम्बन्धी क्षमता और सही निर्णय लेने की शक्ति का परिचायक है और (ग) यह शोध प्रबंध उत्कृष्ट और उपयोगी कृति होने के कारण प्रकाशन के योग्य है। एक परीक्षक को निश्चित रूप से तो उपाधि प्रदान करने की संस्तुति करनी पड़ती है या उस शोध-प्रबंध को सुधार कर पुनः प्रस्तुत करने के लिए लिखना पड़ता है अथवा उसे पूर्णतया अस्वीकार करने के लिए सूचित करना पड़ता है।

प्रतिवेदन या रिपोर्ट लिखने के कदम या विधि-

किसी भी रिपोर्ट को लिखने अथवा तैयार करने के लिए कई कदम उठाये जाते हैं, जिनमें से मुख्य अग्र प्रकार हैं-

  1. तथ्यों/आँकड़ों का संग्रह- रिपोर्ट के अंदर जो भी सामग्री देना आवश्यक है, उसको सबसे पहले जुटाया जाता है। सूचना प्राप्त करने के लिए जो भी स्रोत उपलब्ध हैं, उन पर पहुंचकर विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ ली जाती हैं तथा उन्हें एक कागज पर एकत्रित करके लिख लिया जाता है। यह ध्यान रहे कि सभी तथ्य अधिकृत अथवा पुष्टिकृत होने चाहिए अन्यथा व्यक्तिगत सम्प्रेषण के आधार पर होने चाहिए।
  2. विधिकरण- जितने भी विवरण रिपोर्ट तैयार करने के लिए इकट्ठे किये गये हों, उनमें से वरीयता के आधार पर आवश्यक तथ्य रखे जायें और अनावश्यक तथ्यों को छोड़ दिया जाय, इसे विधिकरण कहते हैं। इसमें तथ्यों का विश्लेषण भी शामिल है, जो कि विषय के आधार पर किया जाता है।
  3. क्रम-व्यवस्था – सभी तथ्यों को क्रमवार लिखकर व्यवस्थित रूप से सुधरा किया जाता है। इसमें यह देखना होता है कि कौन-सी बात सबसे पहले लिखी जाय तथा उसके बाद में क्या लिखा जाय।
  4. रिपोर्ट तैयार करना- अन्त में, रिपोर्ट का शीर्षक देकर तथा विषय-सूची बनाकर अनुच्छेद कर तथ्यों को लिखना शुरू करना चाहिए। प्रायः सभी रिपोर्ट कागज पर टाइप करायी जाती हैं अथवा उन्हें मुद्रित भी कराया जा सकता है। पूरी रिपोर्ट लिखने के बाद उसका परीक्षण करके वरीयता प्राप्त व्यक्ति उस पर अपने हस्ताक्षर करते हैं।

रिपोर्ट का प्रारूप (ले-आउट)

रिपोर्ट को कई भागों में बाँटा जा सकता है। उसके मुख्य भाग निम्न प्रकार हैं-

  1. शीर्षक- सबसे पहले रिपोर्ट का शीर्षक बड़े-बड़े शब्दों में लिखा जाता है। इसका एक उदाहरण नीचे दिया गया है-

‘बैंकों में ग्राहक सेवा’.

(अन्तिम रिपोर्ट)

  1. तिथि– रिपोर्ट दूसरा महत्वपूर्ण भाग तिथि होती है अर्थात् शीर्षक के तुरंत बाद यह तिथि लिखी जाती है, जिस दिन कोई रिपोर्ट बनायी या प्रस्तुत की जाती है।
  2. विषय-प्रवेश- मुख्य रिपोर्ट से पहले संक्षेप में भूमिका देनी पड़ती है। इसके अन्तर्गत सभी आवश्यक सूचनाएँ जैसे रिपोर्ट देने वाली समिति का नाम, नियुक्तिकर्ता का नाम, अध्यक्ष तथा समिति के सदस्यों के आवश्यक विवरण, मुख्य उद्देश्य आदि शामिल हैं।
  3. मसौदा– संक्षिप्त भूमिका देने के पश्चात् रिपेर्ट में लिखे जाने वाली समस्त सूचना को यथायोग्य शीर्षकों तथा अनुच्छेदों में विभाजित करके पूरी रिपोर्ट लिखी जाती है। सभी सूचना सारीबद्ध ढंग से दी जानी चाहिए, ताकि शीघ्र समझ में आ जानी चाहिए।
  4. निष्कर्ष या सुझाव– रिपोर्ट के मसौदे के आधार पर कई बार सुझाव भी देने पड़ते हैं, जिन्हें अन्त में निष्कर्ष लिखकर अलग से लिखा जाता है। यदि आवश्यक न हो तो ऐसा नहीं किया जाता।
  5. हस्ताक्षर – पूरी रिपोर्ट तैयार होने के पश्चात् उसे टाइप कर लिया जाता है और अन्त में रिपोर्ट देने वाला उस पर अपने हस्ताक्षर करता है। बिना हस्ताक्षर की रिपोर्ट का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि उसे अनाधिकृत समझा जाता है।
  6. अनुक्रमणिकाएँ– जिन दस्तावेजों अथवा सबूतों के आधार पर रिपोर्ट लिखी गयी है, उन सभी आवश्यक कागजातों को रिपोर्ट के साथ नत्थी कर लिया जाता है अन्यथा उन्हें अनुक्रमणिकाएँ बनाकर रिपोर्ट के साथ संलग्न किया जाता है।
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