आत्मस्फूर्ति | आत्म-स्फूर्ति से आत्मनिर्भर विकास की प्रक्रिया | आत्मस्फूर्ति अवस्था की दशायें | आत्मस्फूर्ति अवस्था की आलोचनायें | अल्पविकसित देशों के सन्दर्भ में आत्मस्फूर्ति विकास की सीमायें

आत्मस्फूर्ति | आत्म-स्फूर्ति से आत्मनिर्भर विकास की प्रक्रिया | आत्मस्फूर्ति अवस्था की दशायें | आत्मस्फूर्ति अवस्था की आलोचनायें | अल्पविकसित देशों के सन्दर्भ में आत्मस्फूर्ति विकास की सीमायें | Self-motivation in Hindi | The process of self-sustaining development by self-motivation in Hindi | Conditions of self-satisfaction in Hindi | Criticisms of Self-Realization Limitations of self-sustaining development in the context of underdeveloped countries in Hindi

आत्मस्फूर्ति

‘आत्मस्फूर्ति’ को प्रगति की ऐसी अवस्था माना जा सकता है, जिसमें अर्थव्यवस्था इस योग्य हो जाती है कि घरेलू साधनों की सहायता से विकास प्रक्रिया जारी रखी जा सके। रोस्टोव के शब्दों में, “आत्मस्फूर्ति व्यवस्था एक मध्यान्तर है, जिसमें स्थिर विकास के सभी प्रतिरोधात्मक तत्व पूर्णतया समाप्त हो जाते है। विकास की प्रेरक शक्तियों, जो अब तक निष्क्रिय बनी हुई थीं, सक्रिय हो जाती हैं, और फैलकर समाज पर हावी होने लगती है। ‘विकास’ समाज की सामान्य दशा बन जाता है।” एक अन्य स्थल पर रोस्टोव ने आत्मस्फूर्ति को उत्पादन- विधियों में क्रान्तिकारी परिवर्तनों से प्रत्यक्षतः समबद्ध ऐसी औद्योगिक क्रान्ति के रूप में परिभाषित किया है, जिसके अल्पावधि में ही महत्वपूर्ण प्रभाव दिखाई देने लगते हैं। किण्डले बर्जर के मतानुसार, यह प्रगति की ऐसी अवस्था है, जिसमें विकास की रुकावटें दूर हो जाती है। विकास दर को चक्रीय-वृद्धि नियम के अनुसार बढ़ाने के लिये निवेश-दर 5 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत या अधिक हो जाती है। निवेश का स्तर ऊँचा होते रहने से प्रति व्यकित वास्तविक उत्पादन में निरन्तर वृद्धि होती है। ‘संचयी विकास’ या ‘गुणोत्तर गति से विकास समाज की आदतों तथा उसके संस्थागत ढाँचे का अभिन्न अंग बन जाता है। आत्म-स्फूर्ति विकास की अवस्था का काल सामान्यतः दो-तीन दशकों पर फैला होता है।

रोस्टोव के अनुसार, आत्मस्फूर्ति अवस्था का आरम्भ कुछ तीव्र उद्दीपनों (Stimcelus) के कारण होता है। यह उत्तेजना राजनीतिक क्रान्ति के रूप में हो सकती है, जो सामाजिक शक्ति का सन्तुलन प्रभावित कर सकती है तथा सामाजिक मूल्यों, आर्थिक संस्थाओं की प्रकृति, आय के वितरण एवं निवेश के ढाँचे को प्रभावित कर सकती है। यह उत्तेजना अनुकूल अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण के रूप में भी हो सकती है, जैसे-घरेलू वस्तुओं की खपत हेतु नये बाजारों की खोज, जिसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में निवेश, उत्पादन एवं रोजगार में वृद्धि प्रेरित होती है। आर्थिक विकास हेतु उत्तेजना किसी तकनीकी परिवर्तन से भी उत्पन्न हो सकती है।

रोस्टोव ने निम्न  देशों के बारे में आत्मस्फूर्ति विकास की अवस्था की तिथियों का उल्लेख किया है-

ग्रेट ब्रिटेन

1783-1802

फ्रांस

1830-1860

बेल्जियम

1833-1860

जापान

1878-1900

रूस

1890-1914

कनाडा

1896-1914

आर्थिक विकास की अवस्थाओं का सिद्धान्त

यू. एस. ए.

1843-1860

जर्मनी

1850-1873

स्वीडन

1868-1890

अर्जेन्टाइना

1935

भारत

1952

चीन

1952

आत्मस्फूर्ति अवस्था की दशायें

रोस्टोव के अनुसार, आत्मस्फूर्ति विकास की परस्पर सम्बद्ध आवश्यक दशायें (शर्तचीन निम्नलिखित तीन होती हैं-

  1. दस प्रतिशत से ऊँची निवेश-दर- आत्मस्फूर्ति अवस्था की पहली आवश्यकता यह है कि प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि जनसंख्या की वृद्धि से अधिक हो । यदि विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में सीमान्त पूँजी-उत्पाद अनुपात 3.5:1 तथा जनसंख्या की वृद्धि दर एक या डेढ प्रतिशत तक वार्षिक मान ली जाये; तब प्रति व्यक्ति आय को स्थिर बनाये रखने के लिये विशुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद का 3.5 से 5.25 प्रतिशत तक नियमित निवेश आवश्यक है। यदि प्रति व्यक्ति आय में 2 प्रतिशत वार्षिक दर से वृद्धि करनी है, तब राष्ट्रीय आय का 10.5 प्रतिशत से 12.5 प्रतिशत तक नियमित निवेश आवश्यक है।
  2. प्रमुख क्षेत्रों का विकास- आत्मस्फूर्ति अवस्था की दूसरी आवश्यकता यह है कि एक या अधिक प्रमुख क्षेत्रों (Leading Sectors) का विकास किया जायें। प्रमुख क्षेत्रों के विकास को रोस्टोव ने विकास अवस्थाओं का ‘विश्लेषणात्मक अस्थि-पंजर’ स्वीकार किया है। सामान्यतः अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्र होते हैं-प्राथमिक विकास क्षेत्र, अनुपूरक विकास क्षेत्र और व्युत्पन्न विकास क्षेत्र ‘प्राथमिक विकास क्षेत्र में नव-प्रवर्तन या नये (अवशोषित) साधनों के विदोहन की सम्भावनाएँ शेष अर्थव्यवस्था की तुलना में ऊँची विकास दर को जन्म देती हैं ‘अनुपूरक विकास- क्षेत्र में तीव्र विकास प्राथमिक विकास क्षेत्र के परिणामस्वरूप उपस्थित होता है उदाहरण के लिये, रेलों के विस्तार को ‘प्राथमिक विकास क्षेत्र तथा लोहा, कोयला और इस्पात उद्योगों के विस्तार को ‘अनुपूरक विकास क्षेत्र’ माना जा सकता है। ‘व्युत्पन्न विकास क्षेत्र में वृद्धि कुल आय जनसंख्या तथा औद्योगिक उत्पादन में हुई वृद्धि के सन्दर्भ में घटित होती है। उदाहरण- जनसंख्या बढ़ने पर खाद्य पदार्थों का उत्पादन और मकानों का निर्माण बढ़ जाता है।

ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमुख विकास क्षेत्र ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस में सूती वस्त्र उद्योग संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस में रेलवे तथा स्वीडन में आधुनिक ढंग से व्यावसायिक लकड़ी की कटाई के उद्योग रहे है। डेनमार्क और न्यूजीलैण्ड का ब्रूत आर्थिक विकास गोश्त, अण्डे, मक्खन आदि के वैज्ञानिक ढंग से उत्पादन के परिणामस्वरूप हुआ है। विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में प्राथमिक एवं अनुपूरक क्षेत्रों का सम्बन्ध लागत-प्रदाय (Cost-Supply) में परिवर्तनों से होता है, जबकि व्युत्पन्न क्षेत्र का सम्बन्ध माँग में परिवर्तनों से होता हैं एक या अधिक प्रमुख क्षेत्रों की द्रुत प्रगति आर्थिक विकास की शक्तिशाली साधन बन जाती है। प्रमुख  क्षेत्र अपने चारों ओर बहुत से परिवर्तन उत्पन्न कर लेता है, जो औद्योगीकरण को विस्तृत आधार प्रदान करने की प्रवृत्ति रखते हैं।

प्रमुख (अग्रगामी) क्षेत्रों के द्रुत विकास हेतु रोस्टोव ने चार घटकों की उपस्थिति आवश्यक ठहरायी हैं- (a) इन क्षेत्रों के लिये प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि हो, यह तभी सम्भव है जब पूँजी का आयात हो, उपभोकताओं की वास्तविक आय बढ़े, विनियोग की उत्पादकता बढ़े और निसंचय (Hoarding) बन्द हो। (b) इन क्षेत्रों में क्षमता विस्तार के साथ- साथ नई उत्पादन-विधियों लागू हों। (c) इन क्षेत्रों में आत्म-स्फूर्ति हेतू पर्याप्त प्रारम्भिक पूँजी और विनियोग पर प्रतिफल हों (d) तकनीकी रूपान्तरण द्वारा ये क्षेत्र अन्य क्षेत्रों में उत्पादन का विस्तार प्रेरित करें।

  1. उपयुक्त संस्थागत ढाँचा- आत्म-स्फूर्ति विकास की तीसरी आवश्यकता ऐसे सामाजिक-राजनीतिक और संस्थागत ढाँचे का विद्यमान होना या शीघ्रता से प्रकट होना है, जो आधुनिक क्षेत्र में विस्तार की प्रवृत्तियों का पोषण कर सके तथा विकास की गति जारी रखने वाले लक्षण प्रदान करे। यह आवश्यक है कि आर्थिक प्रणाली में विनिर्मित माल की प्रभावपूर्ण माँग बढ़ाने के लिये बढ़ती हुई आय में से अधिक बचतों को गतिशील बनाने की योग्यता तथा प्रमुख क्षेत्रों के विस्तार द्वारा बाहरी बचतों का सृजन करने की क्षमता हो।

आत्मस्फूर्ति अवस्था की आलोचनायें

रोस्टोव द्वारा वर्णित आत्मस्फूर्ति अवस्था की निम्न आधार पर आलोचना की जाती है-

  1. आत्मस्फूर्ति की सन्देहपूर्ण तिथियाँ- रोस्टोव द्वारा विभिन्न देशों के बारे में वर्णित आत्मस्फूर्ति विकास की तिथियाँ सन्देहपूर्ण हैं। उनकी पुस्तक के विभिन्न प्रकाशनों में दी गईं तिथियाँ भिन्न-भिन्न भी हैं। उदाहरणार्थ- पुस्तक के प्रारम्भिक प्रकाशन में भारत के लिये आत्मस्फूर्ति का वर्ष 1937 वार्णित था, जो बाद के प्रकाशनों में बदल कर 1952 कर दिया गया।
  2. विफलता की सम्भावनाओं की उपेक्षा- हबाकुक के अनुसार, “अपने हवाई- उड़ान के विकास-प्रत्यय’ में रोस्टोव ने वायुयान के टकराने या गिर जाने की सम्भावनाओं पर विचार नहीं किया है।”
  3. ऐतिहासिक विरासत के प्रभाव की उपेक्षा साइमन कुजनेट्स के अनुसार, “आत्मस्फूर्ति का विश्लेषण विभिन्न देशों में आधुनिक आर्थिक विकास के प्रारम्भिक चरणों की विशेषताओं पर ऐतिहासिक विरासत, आर्थिक विकास की प्रक्रिया में प्रवेश के समय पिछड़ेपन की मात्रा तथा दूसरे संगत तत्वों के प्रभाव की उपेक्षा करता है।”
  4. निवेश की स्वैच्छिक दर-ए. के. दासगुप्ता के अनुसार, “यदि जनसंख्या की वृद्धि- दर तथा पूँजी-उत्पाद अनुपात असाधारण रूप से ऊँचे हों, तब 10 प्रतिशत वार्षिक बचत एवं निवेश की दर से प्रति व्यक्ति आय की ऊँची प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती। रोस्टोव के इस दावे की आँकड़ों के आधार पर पुष्टि नहीं होती कि औद्योगीकरण की प्रारम्भिक अवस्था में बचत-आय अनुपात तेजी से बढता है।”
  5. विशिष्ट उद्योग अग्रगामी क्षेत्र नहीं हो सकते- केयर्नक्रास के अनुसार, “इस बात को ऐतिहासिक आधार पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि आर्थिक विकास हेतु उत्तेजना विशिष्ट उद्योगों द्वारा ही प्रदान की जाती है।”

अल्पविकसित देशों के सन्दर्भ में आत्मस्फूर्ति विकास की सीमायें

अल्प-विकसित देशों के दृष्टिकोण से आत्मस्फूर्ति विकास की प्रमुख सीमायें निम्न प्रकार है-

  1. पूँजी-उत्पाद अनुपात स्थिर नहीं- अल्पविकसित देशों की समग्र पूँजीगत आवश्यकताओं की गणना करते हुए रोस्टोव स्थिर पूँजी-उत्पाद अनुपात मानकर चलते हैं, जिसका अभिप्राय पैमाने के स्थिर प्रतिफल से है। यह मान्यता विकसित देशों के बारे में ही उपयुक्त है, प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन करने वाले अल्प-विकसित देशों के बारे में नहीं। अपरिवर्तित तकनीक और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के विस्तार के साथ ह्रासमान प्रतिफल नियम लागू हो जाता है अर्थात् पूँजी-उत्पाद अनुपात स्थिर नहीं रहता।
  2. बेरोजगारी-निवाण के सम्बन्ध में मौन- आत्मस्फूर्ति विकास की अवस्था अल्पविकसित देशों में विद्यमान व्यापक बेरोजगारी के निवारण के बारे में मौन रहती है। जनाधिक्य वाले अल्पविकसित देशों में बेराजगारी का उन्मूलन आत्मस्फूर्ति अवस्था की आवश्यक दशा होनी चाहिये; क्योंकि अर्थव्यवस्था द्वारा पूर्ण रोजगार का स्तर प्राप्त कर लेने के बाद ही विकास की प्रक्रिया स्वचालित एवं आत्मनिर्भर हो पाती है।
  3. अनिश्चितता का तत्व- अल्पविकसित देशों के सम्बन्ध में ‘आत्मस्फूर्ति का विचार लागू करते समय अनिश्चितता का तत्व प्रकट होता इस अवस्था के दौरान राष्ट्रीय आय में वृद्धि के साथ-साथ विनियोग में वृद्धि (औसत उपभोग-प्रवृत्ति में कमी आये बिना) होती जाती है। तकनीकी दृष्टि से कहा जा सकता है कि औसत बचत-दर पर सीमान्त बचत दर का आधिक्य रहा है, ताकि औसत बचत-दर बढ़ना जारी रखते हुये भी अन्तिम स्तर पर स्थिरांक बना रहे। ए. के. दासगुप्ता की राय में “यह व्याख्या उचित नहीं जान पड़ती, क्योंकि अत्यधिक विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी औसत बचत-दर स्थिर नहीं रह पाती है।”
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