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प्रबल धक्का सिद्धांत | रोडॉन का प्रबल धक्का सिद्धांत | प्रबल प्रयास सिद्धांत | रोजेन्स्टीन का प्रबल प्रयास सिद्धांत

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प्रबल धक्का सिद्धांत

प्रबल धक्का सिद्धांत का प्रतिपादन पी. एन. रौजेन्स्टीन रोडॉ ने किया जो वस्तुतः ‘संतुलित विकास प्रत्यागम’ का मूल रूप है। रोडॉ दृष्टिकोण प्रमुख रूप से इस पर आधारित है कि अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास के माँग तथा पूर्ति दोनों पक्षों पर कुछ अविभाज्यतायें (indivisibilities) (जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे) व्याप्त रहती हैं जिनके फलस्वरूप ये देश पिछड़ेपन के भँवर में फँसे रहते हैं। इन देशों को पिछड़ेपन के भँवर से बाहर निकालने के लिए यह आवश्यक है कि बहुत अधिक मात्रा में एक साथ विनियोजन के द्वारा प्रबल प्रयास किया जाय, बिना इस प्रकार के प्रबल प्रयास के द्वारा इसे तोड़ा नहीं जा सकता है। यह प्रतिपादन इस मान्यता पर आधारित है कि यदि थोड़ी थोड़ी मात्रा में विनियोजन किया जाय तो इसका कोई  प्रभाव आर्थिक विकास पर नहीं पड़ेगा, पिछड़ेपन का गुरुत्वाकर्षण उसे अल्पस्तरीय संस्थिति से बाहर नहीं निकलने देगा और एक प्रकार से यह दुर्लभ साधनों का अपव्यय मात्र होगा। हिगिन्स के अनुसार ‘आर्थिक विकास की प्रक्रिया विच्छिन्न उछालों (jumps) की श्रंखला है। आर्थिक संवृद्धि के हेतुक कारणों में पाया जाने वाला फलनात्मक संबंध विच्छिन्नताओं तथा उछालों से भरा हुआ है इसलिए न्यूनतम प्रयास या प्रबल धक्का की आवश्यकता होती है जिससे कि एक गतिहीन अर्थव्यवस्था की प्रारंभिक जड़ता को समाप्त किया जा सके तथा अर्थव्यवस्था उत्पादन तथा आय के उच्चस्तर को प्राप्त कर सके।”

आइये अब हम अविभाज्यताओं (indivisibilities) पर एक दृष्टि दौड़ाये जिसपर वास्तव में रोडाँ दृष्टिकोण प्रमुख रूप से आधारित है। रोजेन्स्टीन रोडों के अनुसार माँग तथा पूर्ति पक्ष पर

सामान्यतया तीन प्रकार की अविभाज्यतायें होती हैं जिन्हें समाप्त करने के लिए बड़ी मात्रा में निवेश की आवश्यकता होती-

(क) उत्पादन फलन के संदर्भ में अभिभाज्यता या पूँजी की अविभाज्यता ((indivisibilities) in the production function or lumpiness of capital)

किसी भी अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास विभिन्न उद्योगों में सृजित विनियोग के अवसर पर निर्भर करता है और यह अर्थव्यवस्था में उपलब्ध लागत के रूप में शक्ति, यातायात, संवहन, आदि की मात्रा या सामाजिक उपरपव्यिय पूँजी (social overhead) की उपलब्धता पर निर्भर करता है। रोडों के अनुसार पूर्ति पक्ष पर सबसे अधिक अविभाज्यता सामाजिक उपपरिव्यय पूँजी के ही संदर्भ में दिखायी पड़ती है। सामान्यतया इनका आवश्यक न्यूनतम निष्क्रिय उत्पादक क्षमता (idle capacity) बनी रहती है, उससे बचा ही नहीं जा सकता है। पर अर्थव्यवस्था में अन्य उत्पादक विनियोग की प्रेरणा तथा सफलता के लिए सामाजिक उपपरिव्यय पूँजी के आकार को एक न्यूनतम आकार (जो भी बहुत बड़ा होता से कम नहीं किया जा सकता या यूँ कहिए कि इनका आकार अविभाज्य होता है तथा साथ ही इनका बाहर से आयात भी नहीं किया जा सकता है, इसलिए रोडाँ ने सामाजिक उपपरिव्यय पूँजी को विकसित करने के लिए के एक बारगी बड़ी मात्रा में निवेश या प्रबल धक्का पर बल दिया।

(ख) माँग की अविभाज्य (Indivisibility of demand)-

रोजेन्स्टीन रोडॉ के मूल लेख में माँग की अविभाज्यता पर बल दिया गया जिसको बाद में चलकर प्रो. रेगनरी नर्क्स ने बहुत अधिक विकसित किया। रोडाँ की यह धारणा इस तथ्य पर आधारित है कि चूँकि अल्पविकसित देशों में लोगों की प्रतिव्यक्ति आय कम होती है, फलस्वरूप क्रयशक्ति कम होती है, इसलिए इनके बाजार का आकार छोटा होता है, इसलिए यदि कोई एक कारखाना या फैक्ट्री खोली जाय तो चाहे वह कितनी ही उन्नकत टेक्नालाजी से सुसज्जित क्यों न हो, बाजार के अभाव में असफल हो जायेगी, पर यदि एक ही साथ अनेक फैक्ट्री खोल दी जायें तो चूँकि इनमें काम करने वाले लोग परस्पर एक दूसरे की उत्पादित वस्तु की माँग करने वाले होंगे, इसलिए अनेक फैक्ट्री के खेलने के साथ ही माँग भी सृजित हो जायेगी और औद्योगीकरण तथा विकास संभव हो जायेगा। रोडॉ ने ऐसा करने के लिए एक साथ अनेक कारखानों में विनियोजन या प्रबल धक्का पर बल दिया। और स्पष्ट करने के लिए यहाँ हम रोडॉ द्वारा दिये गये प्रसिद्ध जेते की फैक्ट्री का उदाहरण दे रहे हैं।

‘मानलीजिए ए बंद अर्थव्यवस्था है जिसमें एक जूते की फैट्री खोली जाती है जिसमें रोजगार में 100 व्यक्तियों को लगाया जाता है जो प्रच्छन्न रूप से बेरोजगार हैं, तथा जिनकी सीमांत  उत्पादकता शून्य है। इन श्रमिकों को प्राप्त निवाली मजदूरी इनकी अतिरिक्त आय होगी। यदि इस प्रकार से रोजगार में आये हुए ये श्रमिक अपनी संपूर्ण अतिरिक्त आय जूते पर ही खर्च कर दें जिन्हें इन्होंने बनाया है, तो जूता उद्योग को बाजार मिल जायेगा और संभवतः यह जीवित भी, रह जाये पर ऐसा होगा नहीं, श्रमिक अपनी संपूर्ण अतिरिक्त आय को जूते पर ही नहीं व्यय करेंगे। और जूते में बाजार का विस्तार इतना आसानी से नहीं हो सकेगा। स्पष्ट है पर्याप्त बाजार न पा सकने की जोखिम के कारण निवेश हतोत्साहित होगा। अधिक उचित होगा, यदि जूते की एक फैक्ट्री में 100 प्रच्छन्न बेरोजगार श्रमिकों को रोजगार देने के स्थान पर हम 10000 श्रमिकों को 100 ऐसी फैक्ट्री में रोजगार दें, जो परस्पर ऐसी श्रम वस्तुओं (wage goods) का निर्माण करें जिन पर ये रोजगार में आए हुए श्रमिक अपनी अधिकांश आय व्यय कर देंगे। जो एक जूते की फैक्ट्री के संबंध में सत्य नहीं होगा, वह एक 100 पूरक उद्योगों की प्रणाली में सही हो जायेगा। नये उत्पादक एक दूसरे के उत्पाद के उपभोक्ता होंगे। माँग की पूरकता बाजार प्राप्त करने की जोखिम को कम कर देगी। फलस्वरूप विनियोग की प्रेरणा बढ़ जायेगी।

रोजेन्स्टीन रोडों द्वारा जूते की फैक्ट्री के संबंध में दिए गए इस उदाहरण को चित्र के माध्यम से इस प्रकार और स्पष्ट किया जा सकता है। मान लीजिए जूता फैक्ट्रकी जिस प्लांट पर कार्य कर रही है उसका औसत लागत AC, तथा सीमांत लागत MC से प्रदर्शित किया गया। AR1 जूता फैक्ट्री की माँग तथा MR1 उसकी सीमांत आय प्रदर्शित करती है, ये दोनों ही उस स्थिति से संबंधित हैं। जबकि अर्थव्यवस्था में विनियोग केवल जूता की फैक्ट्री द्वारा किया जाता है, इस स्थिति में MC तथा MR1 के कटान के आधार पर संस्थिति उत्पादन OQ1 या 10,000 जूते, जो फर्म / AR₁ से प्रदर्शित मांग के संदर्भ में OP मूल्य पर उत्पादित तथा बेच सकती है। स्पष्ट है, इस स्थिति में मांग की कमी के कारण फैक्ट्री अपनी लागत नहीं प्राप्त कर पा रही है, और फैक्ट्री को PCAB की हानि उठानी पड़ रही है। अब मानलीजिए, अब एक साथ अनेक उद्योगों द्वारा एक साथ अधिक मात्रा में विनियोग कर दिया जाता है, जिसमें जूते की मांग में वृद्धि हो जाती है तथा बाजार का फैलाव हो जाता है। मान लीजिए मांग में चार गुनी वृद्धि हो जाती है, और अब माँग बढ़कर AR2 हो जाती है तथा उससे संबंधित सीमांत आय MR2 हो जाती है।

इस स्थिति में अब MR2 तथा MC के आधार पर निर्धारित उत्पादन OQ4 या 40000 (उत्पादन में चार गुनी वृद्धि) OP1 मूल्य पर होगी। इस स्थिति में फैक्ट्री अपनी लागत पूरी कर लेगी और P1NMK लाभ भी अंर्जित करेगी।

इस उदाहरण के आधार पर रोडों ने यह प्रतिपादित किया कि एक साथ पूरक उद्योगों को विकसित करने के लिए एक न्यूनतम आवश्यक विनियोग की आवश्यकता होगी। जब तक इस बात का आश्वासन न हो जाये कि आवश्यक पूरक परियोजनाओं में विनियोजन होगा, किसी एक  परियोजना को खोलना जोखिम भरा होगा। दूसरे शब्दों में ‘निर्णय लेने की प्रक्रिया में अविभाज्यता (indivisibilities in the decision making process) की स्थिति होगी, जिससे उबरने के लिए प्रबल धक्का या एक साथ बहुत अधिक संख्या में पूरक उद्योगों में विनियोग करना होगा।

(ग) बचत की पूर्ति में अविभाज्यता (indivisibility in the supply of saving)-

एक ही साथ बहुत संख्या में पूरक उद्योगों में विनियोग के लिए बहुत अधिक मात्रा में पर्याप्त बचत की आवश्यकता होती है। पर अल्पविकसित देशों में जहाँ आय का स्तर अत्यंत ही नीचा है, बचत के उच्च स्तर को प्राप्त करना कठिन है। पर यदि किसी तरह से बहुत अधिक मात्रा में विनियोग कर दिया जाये तो बचत बढ़ सकती है, यदि कोई ऐसी प्रणाली अपनायी जाय जिससे विनियोग से सृजित आय के कारण बचत की सीमांत प्रवृत्ति बढ़े।

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Pankaja Singh

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