जनसंख्या वृद्धि के दुष्प्रभाव | आर्थिक विकास पर जनसंख्या वृद्धि के दुष्प्रभाव | Effects of Population Growth in Hindi | Effects of population growth on economic development in Hindi
जनसंख्या वृद्धि के दुष्प्रभाव
पूँजी की न्यूनता और श्रम बहुलता वाले देशों में जनसंख्या की वृद्धि अथवा जनसंख्या का दबाव आर्थिक प्रकृति हेतु बेढंगा एवं निष्ठुर प्रोत्साहन सिद्ध हुआ है। गिराल्ड एम, मायर (Gerald M. Meier) के अनुसार, “पिछडें हुए देशों में जनसंख्या की वृद्धि पूँजी का विस्तार करने वाले निवेशों या नव-प्रवर्तनों (Innovations) को प्रोत्साहित नहीं करती। यह पूँजी संचय की दर में गिरावट लाती हैं, प्रारम्भिक उद्योगों में उत्पादन व्यय बढ़ाती है, अदृश्य बेरोजगारी की मात्रा बढ़ाती है तथा पूँजी का बड़ा भाग बच्चों के भरण-पोषण की ओर मोड़ देती है, जो उत्पादक-आयु तक पहुँचने से पूर्व ही मर जाते है।” अल्पविकसित देशों में जनसंख्या की वृद्धि निम्न कारणों से आर्थिक विकास के मार्ग में बाधक सिद्ध होती है-
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प्रति व्यक्ति आय में गिरावट-
जनसंख्या की वृद्धि सीमित कृषि भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ा देती है, उपभोक्ता-पदार्थों की लागत बढ़ाती है तथा पूँजी-संचय में गिरावट लाती है। होरेस बेलसा (Horace Belshaw) के अनुसार, अल्पविकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप पूँजी की अपेक्षा श्रम की पूर्ति अधिक बढ़ती है तथा तकनीकी प्रगति अत्यन्त धीमी या शून्य रहती है। इन परिस्थितियों में झसी प्रतिफल नियम लागू हो जाता है, जिससे प्रति व्यक्ति आय घटने लगती है। प्रति व्यक्ति आय में गिरावट उस समय अधिक आती है, जब कुल जनसंख्या में आश्रितों का प्रतिशत ऊँचा होता है तथा जीवन-प्रत्याशा कम होती है।
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रहन-सहन के स्तर में गिरावट-
तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या खाद्य पदार्थों, वस्त्रों, मकानों आदि की माँग बढ़ाती है। परन्तु अल्पकाल में कच्चे-माल, पूँजी, कुशल श्रम आदि सहायक साधनों की न्यूवता के कारण इन वस्तुओं की पूर्ति बढ़ानीं सम्भव नहीं होती। फलतः इन वस्तुओं की लागतें और कीमतें बढ़ जाती हैं। क्रयशक्ति की न्यूनता के कारण जनसाधारण के रहन-सहन का स्तर और भी नीचा हो जाता है।
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कृषि उत्पादकता में गिरावट-
अल्पविकसित देशों की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में निवास करती है, जिसका मुख्य धन्धा खेती होता है। कृषि भूमि की लोचहीन पूर्ति के कारण जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ भूमि मनुष्य अनुपात’ प्रतिकूल होता है तथा प्रति श्रमिक उत्पादकता घटती जाती है। प्रति व्यक्ति न्यून उत्पादकता बचत एवं तकनीक में गिरावट लाती है। फलतः उन्नत तकनीक प्रयोग तथा कृषि भूमि पर दूसरे प्रकार के सुधार असम्भव हो जाते हैं।
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बेरोजगारी और अर्ध-बेरोजगारी में वृद्धि-
बढ़ती हुई जनसंख्या आय, बचत एवं निवेश के स्तरों में गिरावट लाती है। पूँजी, भूमि तथा अन्य साधनों के साथ श्रम शक्ति का अनुपात बढ़ने के कारण प्रति श्रमिक पूरक साधनों की उपलब्धता घट जाती है। इसका परिणाम बेरोजगारी तथा अर्थ-बेरोजगारी का परिमाण बढ़ाता है।
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सामाजिक सेवाओं के स्तर में गिरावट-
बढ़ती हुई जनसंख्या सामाजिक अधि- संरचना (Infra-Structure) में भारी निवेश आवश्यक बना देती है, परन्तु साधनों की न्यूनता के कारण समूची जनसंख्या के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, यातायात और आवास की सुविधायें उपलब्ध कराना सम्भव नहीं होता। फलतः इन सेवाओं का स्तर गिर जाता है।
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आश्रितता के भार में वृद्धि-
अल्प-विकसित देशों में ऊँची जन्म-दर और घटती हुई मृत्य-दर के कारण आश्रितों (बच्चों) का अनुपात अधिक होता है, जो केवल उपभोग करता है, उत्पादन कुछ नहीं करता। गिराल्ड एम. मायर की राय में, आश्रितता (Dependency) का अधिक भार साधनों का बड़ा भाग (जो पूँजी निर्माण में प्रयुक्त हो सकता था) उन आश्रितों के भरण-पोषण की ओर ले जाता है, जो कभी उत्पादक नहीं बनेंगे और यदि बनेंगे भी तब केवल थोड़े समय के लिये।
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पूँजी निर्माण की दर में गिरावट-
अल्पविकसित अर्थव्यवस्था में, जहाँ प्रति व्यक्ति पूँजी की उपलब्धता पहले से ही कम होती है, जनसंख्या वृद्धि के कारण बचतों में वृद्धि और भी कठिन हो जाती हे। निवेश-योग्य राशि का बड़ा भाग पूँजी-वस्तु उद्योगों की अवहेलना करते हुये अनिवार्य उपभोक्ता-वस्तुओं पर खर्च करना पड़ता है। इससे सम्भावी विकास दर और भी धीमी पड़ जाती है। कोल (Coale) और हूवर (Hoover) के अनुसार, “यदि प्रभावपूर्ण माँग की समस्या की ओर कोई ध्यान न दिया जाये, तब तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या ‘श्रम की औसत उत्पादकता’ तथा ‘प्रति व्यक्ति औसत आय बढ़ाने के लिये उपलबध पूँजी की मात्रा में गिरावट लाने की प्रवृत्ति रखती है।”
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खाद्य-संकट-
तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या खाद्य संकट, खाद्यानों के ऊँचे मूल्य तथा कुपोषण को जन्म देती है। कुपोषण के कारण स्वास्थ्य एवं कार्य क्षमता में गिरावट आती है। खाद्य सामग्री की न्यूनता के कारण अल्पविकसित देशों को विदेशों से खाद्यान्न का आयात करना पड़ता है, जिसका इन देशों के सीमित विदेशी साधनों पर भारी दबाव पड़ता है।
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प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन-
जनसंख्या बढ़ने पर निर्यात योग्य पदार्थों का घरेलू उपभोग बढ़ जाने से निर्यात-अतिरेक में गिरावट आती हैं तथा उपभोक्ता का आयात बढ़ता है। परिणामतः अदायगी शेष प्रतिकूलतम हो जाता है। सरकार पूँजीगत पदार्थों के आयात में कटौती करने के लिये बाध्य होती है, जिसका निवेश कार्यक्रमों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
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स्फीतिक दबावों को प्रोत्साहन-
जनसंख्या वृद्धि के कारण उपभोक्ता-पदार्थों की माँग तो बढ़ जाती है, किन्तु उनकी पूर्ति बेलोचदार बनी रहती है। फलताः अर्थव्यवस्था में स्फीतिक दबावों को जन्म मिलता है। स्फीतिक प्रवृत्ति विकास प्रयत्नों को शिथिल तथा आर्थिक विषमता को अधिक गहन बना देती है। फलतः समाज के निर्धन और मध्यम वर्ग विकास के लाभों से वंचित रह जाते है। आर्थिक विकास की दर (D), शुद्ध बचत की दर (S), निवेश की उत्पादकता (P) तथा जनसंख्या वृद्धि की दर (r) का आपसी सम्बन्ध सिंगर (Singer) ने निम्न समीकरण द्वारा दर्शाया है-
D=SP-r
इस समीकरण में r ऋणात्मक तत्व के रूप में है। यह बताता है कि जनसंख्या की वृद्धि आर्थिक विकास में बाधक होती है। एडलमैन (Adclman) के अनुसार, जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव प्रति व्यक्ति उत्पादन में गिरावट लाना होता है। समुदाय के लिये आवश्यक न्यूनतम निर्वाह दिया हुआ मान लेने पर, जनसंख्या वृद्धि के कारण निवेश हेतु उपलब्ध प्रति व्यक्ति अतिरेक वस्तुतः घट जाता है।
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