अर्थशास्त्र

रोस्टोव के आर्थिक विकास की अवस्थाओं का सिद्धान्त | रोस्टोव के आर्थिक से वृद्धि के चरणों की व्यख्या

रोस्टोव के आर्थिक विकास की अवस्थाओं का सिद्धान्त | रोस्टोव के आर्थिक से वृद्धि के चरणों की व्यख्या | Rostov’s Theory of Stages of Economic Development in Hindi | Explanation of the stages of growth from Rostov’s economic in Hindi

रोस्टोव के आर्थिक विकास की अवस्थाओं का सिद्धान्त

(Rostow’s Theory of Stages of Economic Growth)

विभिन्न देशों के आर्थिक विकास के इतिहास का अध्ययन करके विकास के ऐतिहासिक काल को विकास प्रक्रिया के विश्लेषणात्मक कालों में बदला जा सकता है तथा इस आधार पर विभिन्न राष्ट्रों के विकास-स्तर की तुलनात्मक माप की जा सकती है। विकास की अवस्थाएँ विभिन्न विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रस्तुत की गई हैं। इनमें से अमेरिकन अर्थशास्त्री डब्ल्यू डब्ल्यू. रोस्टोव (W.W. Rostow) द्वारा वर्णित अवस्थाएं अधिक युक्तिसंगत एवं मान्य हैं। रोस्टोव ने आर्थिक विकास की निम्न पाँच अवस्थायें बताई हैं-

  1. परम्परागत समाज की अवस्था (Stage of Traditional Society)- इस अवस्था में समाज के अधिकांश साधन कृषि में संलग्न होते है। कृषि की रीतियाँ पुरातन एवं रूढ़िवादी होती हैं सभी सामाजिक-आर्थिक कार्य पुरानी या चालू पद्धतियों के अनुसार संचालित होते हैं, जिसके कारण उत्पादन तथा आय बहुत कम होती है। समाज में विज्ञान तथा तकनीकी प्रगति का विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। राजनीतिक सत्ता भूस्वामियों के हाथ में केन्द्रित होती है, क्योंकि उद्योग अत्यन्त अविकसित अवस्था में होते हैं तथा भूमि के मालिक भूमि की उपज के बल पर आर्थिक शक्ति केन्द्रित कर लेते हैं। इसी शक्ति के कारण भूस्वामी वर्ग समाज के अन्य वर्गों पर शासन करने लगता है। यद्यपि कहीं-कहीं कृषि की नवीन पद्धतियों एवं उद्योगों में नये आविष्कारों के प्रयोग दिखलाई पड़ते हैं, किन्तु मौलिक रूप से सम्पूर्ण आर्थिक ढाँचा दुर्बल तथा अविकसित रहता हैं रोस्टोव के शब्दों में, “एक परम्परागत समाज वह है, जिसका ढाँचा सीमित उत्पादन कार्यकलापों के अन्तर्गत न्यूटन पूर्व के विज्ञान एवं तकनीक तथा भौतिक जगत के प्रति न्यूटन-पूर्व दृष्टिकोण के आधार पर विकसित हुआ है।”
  2. आत्मस्फूर्ति से पूर्व की अवस्था (Stage of Preconditions for Take-off) – यह अवस्था गतिशील या आत्मस्फूर्ति विकास की अवस्था की भूमिका मात्र है। इस अवस्था का दूसरा नाम संक्रमण काल है, जिसमें सतत् वृद्धि के लिये पूर्व दशाओं का सृजन होता है। परम्परागत समाज क्रमशः प्रगति की ओर अग्रसर होने लगता है। उसमें उद्योग, अवागमन तथा व्यावसायिक साधनों का विकास आरम्भ हो जाता है। जनसंख्या-निरोधक उपायों को सहारा लिया जाता है, जिससे जन्म-दर घटने लगती है। कृषि उद्योग तथा व्यवसाय में नवीन एवं प्रगतिशील पद्धतियों का प्रयोग आरम्भ हो जाता है। भूस्वामियों का महत्व घटने लगता है। निवेश की दर राष्ट्रीय आय की 5 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत तक पहुँच जाती है। यह जनसंख्या वृद्धि की दर से इस सीमा तक अधिक होती है कि प्रति व्यक्ति उत्पादन पहले से बढ़ जाता है। सड़कों रेलों तथा बिजली की अधिक सुविधायें प्राप्त होने के कारण व्यक्ति गाँवों से नगरों में जाकर बसने लगते है।

रोस्टोव ने परम्परागत समाज से आत्म-स्फूर्ति विकास हेतु पूर्व-दशाओं की सृजन-प्रक्रिया का विवेचन इन शब्दों में किया है, ” यह विचार फैल जाता है कि आर्थिक प्रगति सम्भव है तथा राष्ट्रीय महत्व, निजी लाभ, सामान्य कल्याण या बच्चों के सुखी जीवन के लिये आवश्यक भी है। शिक्षा का विस्तार होता है तथा उसमें आधुनिक क्रिया की आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन होता है। निजी और सरकारी क्षेत्रों में नए किस्म के उद्यमी आगे आते हैं, जो बचतें गतिशील बनाने और आधुनिकीकरण में निहित जोखिम उठाने के लिये तैयार रहते है। पूँजी की गतिशीलता हेतु बैंक तथा दूसरी संस्थायें प्रकट हो जाती है। विनियोग (विशेषकर परिवहन, संचार और कच्चे माल के स्रोतों में) बढ़ता है तथा अन्तर्देशीय एवं विदेशी व्यापार का क्षेत्र विस्तृत होता है। यत्र-तत्र नई विधियों का प्रयोग करने वाले आधुनिक विनिर्माणी उपक्रम दिखायी देने लगते है।”

रोस्टोव के अनुसार, औद्योगीकरण हेतु तीन पूर्व दशाओं की उपस्थिति आवश्यक होती है –(i) बाजार के क्षेत्र विस्तार, प्राकृतिक संसाधनों के लाभप्रद विदोहन तथा कुशल प्रशासन हेतु सामाजिक-ऊर्ध्वस्य पूँजी का निर्माण। (ii) कृषि क्षेत्र में तकनीकी क्रान्ति, ताकि बढ़ती हुई जनसंख्या की खद्य-आवश्यकताएँ पूरी की जा सकें (iii) कुशल उत्पादन और प्राकृतिक साधनों के निर्यात हेतु विपणन द्वारा की गई वित्त व्यवस्था से विशेषकर पूँजी-पदार्थों के आयात का विस्तार।

  1. आत्म-स्फूर्ति की अवस्था (Stage of Tkake-Off)- आत्मस्फूर्ति की अवस्था में पहुँचकर समाज का आर्थिक विकास सामान्य एवं नियमित गति से होने लगता है। इसके लिये विशेष प्रयात्नों की आवश्यकता नहीं पड़ती। तकनीकी प्रगति का प्रभाव कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्रों में स्पष्ट दिखाई देने लगता है। उत्पादन की मात्रा तथा किस्म में वांछनीय सुधार दिखायी पड़ता है। आत्म-स्फूर्ति विकास की अवस्था में तीन महत्वपूर्ण परिवर्तन उपस्थित होते हैं- (i) निवेश की दर राष्ट्रीय आय की 10 प्रतिशत या अधिक हो जाती है। (ii) विनिर्माणी उद्योगों का द्रुत गति से विकास होने लगता है। (iii) ऐसे राजनैतिक, सामाजिक और संस्थागत ढाँचे की स्थापना हो जाती है, जो आधुनिक पद्धतियों के प्रयोग द्वारा तीव्र गति से आर्थिक विकास हेतु कृत-संकल्प होता है।
  2. परिपक्वता की स्थिति (Stage of Maturity)- विकास की इस अवस्था तक पहुँच जाने पर अर्थतन्त्र में विचित्र हलचल सी प्रकट होने लगती है। तकनीकी एवं वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग इस सीमा तक होने लगता है, ताकि किसी भी वस्तु का उत्पादन आवश्यक मात्रा में करना सम्भव हो जाये। पूँजी-निवेश का अनुपात बढ़कर राष्ट्रीय आय का 20 प्रतिशत या अधिक हो जाता है। अर्थतन्त्र की सफलता के कारा अनेक नये उद्यमों की स्थापना हो जाती है, जिनके उत्पादों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता होती है। अर्थव्यवस्था की विदेशों पर सामान्य निर्भरता समाप्त हो जाती है। उसका व्यापार केवल आर्थिक आधार पर चलता है। ऐसे माल का आयात किया जाता है, जिसका घरेलू उत्पादन विशेष लाभदायक नहीं होता। दूसरी ओर, उच्चस्तरीय तकनीक एवं वैज्ञानिक साधनों की सहायता से उत्पन्न माल का निर्यात किया जाता है। परिपक्वता की स्थिति प्राप्त कर लेन वाला देश आर्थिक दृष्टि से यथेष्ठ सबल एवं सम्पन्न हो जाता है। रोस्टोव के शब्दों में, ‘’आर्थिक परिपक्वता की अवस्था को ऐसी अवधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जब समाज ने अपने अधिकांश साधनों में आधुनिक तकनीक का प्रभावी ढंग से प्रयोग कर लिया हो।”
  3. अत्यधिक उपभोग की अवस्था (Stage of High-Mass-Consumtion ) – परिपक्वता की स्थिति में पहुँचकर जनसाधारण की उपभोग आवश्यकताओं की पूर्ति सामान्य श्रम द्वारा हो जाती है तथा उपभोग का स्तर ऊँचा हो जाता है। तदुपरान्त समाज उपभोग की उच्चतम एव वशिष्ट सेवायें उपलब्ध कराने का प्रयत्न करता है। फलतः मोटरकार, रेफ्रीजरेटर, वस्त्र धोने की मशीन आदि, मंहगे साधनों की माँग जनसाधारण द्वारा की जाने लगती है। अधिक आय प्राप्त करने वाला वर्ग इन वस्तुओं के नये-नये मॉडल पाने को उत्सुक होता है। अत्यधिक उपभोग की अवस्था में तकनीकी विकास इस सीमा तक हो जाता है कि उसमें विशेष सुधार की गुंजाइश नहीं रहती । उत्पादक विभिन्न वस्तुओं के आवरण में परिवर्तन करते रहने का सामान्य सुविधाओं में बुद्धि द्वारा नये ग्राहक आकर्षित करते हैं।

आलोचनात्मक मूल्यांकन

(Critical Evaluation)

रोस्टोव द्वारा वर्णित आर्थिक विकास की अवस्थाओं की आलोचना निम्न आधार पर की जाती है-

  1. विकास हेतु परम्परागत समाज आवश्यक नहीं- आर्थिक विकास हेतु किसी भी देश के लिये प्रथम अवस्था से गुजरना आवश्यक नहीं है संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड ‘परम्परागत समाज की अवस्था से नहीं गुजरे; क्योंकि इन्होंने आत्मसफूर्ति विकास की पूर्व-आवश्यकतायें ब्रिटेन (पहले से ही विकसित देश) से प्राप्त कर ली थी।
  2. अवस्थाओं में अतिच्छादन (Overlapping)- आर्थिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं खीची जा सकती; क्योंकि ये एक- दूसरी को अतिच्छादित करती है अर्थात् एक अवस्था की विशेषतायें दूसरी अवस्था में देखने को मिलती है। अनेक देशों के अनुभव से स्पष्ट है कि कृषि का विकास आत्मस्फूर्ति अवस्था में भी जारी रहता है। न्यूजीलैंड और डेनमार्क में आत्मस्फूर्ति अवस्था में सामाजिक ऊर्ध्वस्थ-पूँजी (विशेषकर यातायात) प्रमुख विकास क्षेत्र रहा है।
  3. आत्म-स्फूर्ति हेतु पूर्व-दशायें अनिवार्य नहीं- पूर्व-दशाओं के बारे में यह अनिवार्य नहीं है कि वे आत्मस्फूर्ति से पहले प्रकट हों। उदाहरण के लिये यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं जान पड़ता कि कृषि क्रान्ति और परिवहन क्षेत्र में सामाजिक ऊर्ध्वस्थ- पूँजी का संचय आत्मस्फूर्ति अवस्था से पहले हो जाना चाहिए।
  4. आत्म-स्फूर्ति अवस्था का एतिहासिक आधार नहीं- केयर्नक्रॉस (Cairncross ) के अनुसार, आत्मस्फूर्ति अवस्था का कोई ऐतिहासिक औचित्य नहीं है। रोस्टोव ने विभिन्न देशों के बारे में इस अवस्था की प्राप्ति की जो तिथियों घोषित की हैं, वे भी सन्देहपूर्ण है। हवाकुक (Habakkuk) के अनुसार, आत्मस्फुर्ति अवस्था का विश्लेषण करते समय रोस्टोव ने विफलता की सम्भावनाओं पर विचार नहीं किया है। आत्मस्फूर्ति अवस्था का विश्लेषण ऐतिहासिक विरासत के अभावों, आधुनिक आर्थिक विकास की प्रक्रिया में प्रवेश का समय, पिछड़ेपन का अंश तथा अन्य संगत तत्वों की उपेक्षा करता है। रोस्टोव ने आत्मस्फूर्ति विकास की जो आवश्यक दशायें बताई हैं, वे भी सीमा-रहित नहीं है। उदाहरण के लिये, निवेश-बुद्धि की दर (राष्ट्रीय आय की 10 प्रतिशत से अधिक) स्वैच्छिक है, क्योंकि औद्योगिक की आरम्भना के समय बचत आय अनुपात धीरे-धीरे ही बढ़ जाता है। रोस्टोव का यह विचार भी सही नहीं है कि सूती-वस्त्र और रेलवे सरीखे कुछ प्रमुख क्षेत्र विकास को प्रेरित कर सकते हैं।
  5. परिपक्वता की अवस्था भ्रामक- रोस्टोव द्वारा वर्णित परिपक्वता की अवस्था की प्रमुख विशेषतायें आत्मस्फूर्ति अवस्था की विशेषताओं के सादृश्य है। उदाहरण के लिये, विनियोग-दर बढ़कर राष्ट्रीय आय 10 प्रतिशत से ऊँची हो जाना, नई उत्पादन तकनीक का विकास, प्रमुख क्षेत्र और संस्थायें। जब आत्मस्फूर्ति अवस्था में ही विकास स्वचालित हो जाता है, जब विकास की नई अवस्था की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है ? साइमन कुजनेट्स (Simon Kugnets) की राय में स्वचालित विकास की धारणा भ्रमात्मक है; क्योंकि कोई भी विकास स्वचालित या स्वतः वित्त प्रदायक नहीं होता।
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Pankaja Singh

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