
पर्यावरण प्रदूषण से आशय | पर्यावरण प्रदूषण के कारण | पर्यावरण प्रदूषण के संरक्षण के लिए किये गये सरकारी प्रयास | Meaning of environmental pollution in Hindi | Government efforts for protection of environmental pollution in Hindi
पर्यावरण प्रदूषण से आशय-
आधुनिक परमाणु, औद्योगिक, श्वेत एवं हरित क्रांति के युग की अनेक उपलब्धियों के साथ-साथ आज के मानव को प्रदूषण जैसी विकराल समस्या का सामना भी करना पड़ रहा है। वायु जिसमें हम साँस लेते हैं, जल जो जीवन का भौतिक आधार है एवं भोजन जो ऊर्ज का स्रोत है- ये सभी प्रदूषित हो गये हैं। शहरीकरण, कीटनाशकों, वाहनों तथा परमाणु ऊर्जा के उपयोग ने पर्यावरण (जल, भूमि और वायसु) के विभिन्न घटकों को पूरी तरह प्रभावित करके इसकी संरचना को परिवर्तित कर दिया है, जिसका प्रभाव स्वयं मनुष्य तथा जीव मंडल के दूसरे जीवों पर पड़ता है। पर्यावरण के ये परिवर्तन पर्यावरणीय घटकों के उपयोग या नये घटकों के जुड़ जाने के कारण हुए हैं। पर्यावरण में होने वाले इन्हीं परिवर्तनों को, जो कि जीवमंडल पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं, पर्यावरणीय प्रदूषण कहते हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् ओडम (Odum) के अनुसार- “प्रदूषण वायु, जल, भूमि अर्थात् पर्यावरण के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में होने वाला ऐसा परिवर्तन है, जो मनुष्य एवं अन्य जीवों की जैविक परिस्थितियों, औद्योगिक एवं सांस्कृतिक क्रियाओं के लिए हानिकारक होता है।” प्रदूषण प्राकृतिक या कृत्रिम दोनों हो सकता है।
पर्यावरण प्रदूषण के निम्नांकित रूप हो सकते हैं-
(1) वायु प्रदूषण- वायुमंडल में जब अवांछित गैसें प्रवेश कर जाती हैं, तो उनका स्वरूप बदल जाता है, इसी को वायु प्रदूषण कहा जाता है। आज के औद्योगिक युग में हमारे प्रदेश के घने बसे शहरों में कारखानों की चिमनियों, रेलगाड़ी, कार-स्कूटर से निकल रहे धुएँ, लकड़ी, कोयला व तेल आदि के जलने से कार्बन के कण्का तथा खनिज धूल प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ देते हैं।
ऑक्सीजन का अभाव, दूषित गैस का प्रभाव लोगों को मौत के मुँह में धकेल रहा है, पेड़ों के लगातार कटते जाने से चमड़ी कैंसर की संभावना बढ़ने लगी है।
(2) जल प्रदूषण- संसार में भूमि के क्षेत्रफल की तुलना में जल स्रोत का क्षेत्रफल तीन गुना अधिक है, परंतु जल के अभाव में न जाने कितने लोग असमय ही जीवन-लीला को समाप्त कर बैठते हैं। भारत में गंदे बहने वाले नालों चाहे वे उद्योगों के गंदे नाले हों अथवा मल-निकास की नालियाँ, सबका निकास इस देश की उन पवित्र नदियों की ओर किया जाता है, जिनकी हम पूजा करते हैं और पानी पीते हैं। यह मनमानी मानव-जीवन की अनगिनत बलि ले चुकी है।
(3) ध्वनि प्रदूषण- बढ़ते हुए यातायात के साधनों के अतिरिक्त ध्वनि प्रदूषण प्रसारण यंत्रों की चीख-पुकार कान के पर्दों को फाड़ डालती है। ध्यान अथवा मानसिक शांति में जो आनंद की अनुभूति होती है वह भला जहाज व रेल की गर्जना व ध्वनि विस्तारक यंत्रों के बेसुरे कोलाहल में कहाँ? 45 डेसीबल तक की ध्वनि तो कर्णप्रिय मानी गयी है, परंतु आज यह बढ़कर 75 डेसीबल से ऊपर पहुँच गयी है, जो मानसिक व्यग्रता, तनाव, बहरापन तथा अन्य शारीरिक एवं मानसिक रोगों का कारण बन गयी है।
(4) रासायनिक प्रदूषण- आज रासायनिक प्रदूषण इतना अधिक बढ़ गया है कि यह भोपाल गैस कांड की हद को भी लाँख चुका है। इस प्रदूषण के कारण वातावरण में ओजोन की कमी हो गयी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि कृषि में प्रयुक्त रासायनों को नियंत्रित नहीं किया गया तो प्राकृतिकक ओजोन दर में 15 प्रतिशत की कमी हो जायेगी। बढ़ता हुआ डी.डी.टी. का प्रभाव पक्षियों की संख्या में 25 प्रतिशत की कमी कर गया है। इससे व्यक्ति को पित्ताशय की बीमारी होती है, साथ-ही-साथ श्वास तंत्र के विकृत होने भखतरा होता है।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण
पर्यावरण प्रदूषण के उत्तरदायी कारणों में प्रमुखा निम्नांकित हैं-
(1) तीव्र जनसंख्या वृद्धि।
(2) नये-नये वैज्ञानिक आविष्कार।
(3) पेट्रोल, डीजल वाहनों का निरंतर बढ़ता उपयोग।
(4) वनों का निरंतर कटान।
(5) तेजी से बढ़ता औद्योगीकरण और उद्योगों की चिगनियों से निरंतर निकलता धुआँ
देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक कानून बनाये गये हैं, जिन्हें केंद्र और राज्य सरकारें लागू करती हैं इनमें प्रमुख हैं-
(1) वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम, 1972
(2) वन संरक्षण अधिनियम, 19801
प्रदेश सरकार की तहर केंद्र सरकार भी पर्यावरण सुरक्षा के प्रति सजग है। केंद्रीय सरकार द्वारा इस दिशा में जो कार्य किये जा रहे हैं, उनकी संक्षिप्त रूपरेखा निम्नलिखित हैं-
(1) प्राकृतिक संसाधनों का सर्वेक्षण और संरक्षण- इसके अंतर्गत भारत सरकार द्वारा देश के विभिन्न जिलों में प्राकृतिक संपदा के संरक्षण हेतु सर्वेक्षण करने का कार्य आरंभ किया गया है।
(2) जैव मंडल आरक्षित क्षेत्र- सरकार ने सभी जैवमंडल आरक्षित क्षेत्रों के लिए प्रबंध कार्य योजनाएँ स्वीकृत की हैं और अनुसंधान कार्यों की तेजी से लागू किया है। साथ ही नये जैव मंडलीय आरक्षण क्षेत्र स्थापित करने का कार्य भी आरंभ किया गया है।
(3) आर्द्र भूमि और कच्छ वनस्पति- यह योजना वर्ष 1991-92 में तैयार की गयी थी, जिसमें आर्द्र भूमि और कच्छ वनस्पति में कार्य योजनाएं और अनुसंधान कार्य आरंभ किये गये हैं।
(4) पारिस्थितिकी पुनर्योजना- इस योजना के अंतर्गत बनारोपण, पारिस्थितिकी विकास शिविरों का आयोजन किया गया है।
(5) भूतपूर्व सैनिकों का पारिस्थितिकी कार्य बल- अगम्य क्षेत्रों में प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने के लिए रक्षा मंत्रालय, वन मंत्रालय और संबंधित राज्य सरकारों का युक्ति संगत संयुक्त प्रयास जारी है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्षरित भूमि पर वृक्षारोपण का कार्य आरंभ किया गया है।
(6) गोविंद बल्लभपंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्था- पर्वतीय क्षेत्रों की पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान हेतु जिला अल्मोड़ा में यह संस्थान कार्य कर रहा है। इस संस्था द्वारा पर्यावरण अनुसंधान तथा विकास कार्यों को संपन्न किया जाता है।
(7) गंगा कार्य योजना- गंगा नदी की सफाई के उद्देश्य से यह कार्य योजना लागू की गयी है, जिसका मूल्यांकन करने के लिए 1985 में केंद्रीय गंगा प्राधिकरण स्थापित किया गया।
(8) वन संरक्षण- बाढ़ की विभीषिका को रोकने के उद्देश्य से वन संरक्षण अधिनियम, 1980 लागू किया गया। इसका मौलिक उद्देश्य वनों के अंधाधुंध कटाव को रोकना है। सन् 1988 में इस अधिनियम को कठोर बना दिया गया।
(9) पर्यावरण संरक्षण- इसके लिए सरकार ने अनेक फैलोशिप और पुरस्कारों की घोषणा की है, जो कि निम्नलिखित है-
(क) इंदिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार।
(ख) इंदिरा गाँधी प्रियदर्शिनी वृक्ष-मित्र पुरस्कार।
(ग) महावृक्ष पुरस्कार।
(घ) राष्ट्रीय प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण पुरस्कार ।
(ङ) स्वच्छ प्रौद्योगिकी हेतु राजीव गाँधी पर्यावरण पुरस्कार।
(च) मरूभूमि पर्यावरण फैलोशिप।
(छ) पीताम्बर पंत राष्ट्रीय पर्यावरण फैलोशिप पुरस्कार।
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