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भारत में हरित क्रांति | भारत में कृषि विकास में हरित क्रांति की भूमिका | हरित क्रांति का सकारात्मक प्रभाव | हरित क्रांति के नकारात्मक पक्ष

भारत में हरित क्रांति | भारत में कृषि विकास में हरित क्रांति की भूमिका | हरित क्रांति का सकारात्मक प्रभाव | हरित क्रांति के नकारात्मक पक्ष

भारत में हरित क्रांति

अमरीकी वैज्ञानिक विलियम गैड द्वारा सर्वप्रथम प्रयुक्त ‘हरित क्रांति’ शब्द 1960 के दशक में भोजन उत्पादन में चमत्कारिक वृद्धि को सूचित करता है। भारत में हरित क्रांति का आशय कृषि क्षेत्र में परंपरागत तकनीकों तथा खेती की विधियों को आधुनिक विधियों द्वारा परिवर्तित करने से है। इस क्रांति की आधारशिला 1950 में मैक्सिकों के रॉक फेलर फाउन्डेशन के वैज्ञानिकों द्वारा रखी गयी जिन्होंने गेहूं की अधिक उपज वाली तथा अधिक प्रतिरोधक बौनी किस्में विकसित की। बाद में 1960 के दकशक में रॉकफेलर फाउन्डेशन के इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट, मनीला (फिलीपीन्स) के वैज्ञानिकों द्वारा चावल की उन्नत वर्णसंकर (hybrid) किस्में विकसित की गयीं। गेहूँ तथा चावल की ये अधिक उपज वाली किस्मों के बीज विश्व के विभिन्न भागों में पहुंचाये गये जिससे हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ।

भारत में अधिक उपज वाले उन्नत बीजों का कार्यक्रम मैक्सिको में विकसित गेहूं की बौनी किस्मों के 1966-67 में देश्का में प्रवेश से प्रारंभ हुआ। इसके पूर्व 1960-61 में सघन कृषि जिला कार्यक्रम (IADP) आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश राज्यों के 7 चयनित जिलों में प्रारंभा किया गया था, जिसके अंतर्गकत खाद्यात्र उत्पादन में वृद्धि के लिये कृषकों को ऋण, अनुदान, उन्नत बीज, उर्वरक तथा कृषि उपकरण आदि प्रदान किये गये। इस कार्यक्रम की सफलता से प्रेरित होकर 1965 में यह कार्यक्रम देश के 114 जिलों में सघन कृषि क्षेत्रीय कार्यक्रम (IAAP) के रूप में विस्तृत किया गया।

नयी नीति में अधिक उपज वाली किस्मों के बीजों पर अधिक बल दिया गया था, अतएव इस कार्यक्रम का नाम उन्नत बीज कार्यक्रम (HYVP) रखा गया। इस कार्यक्रम की सफलता उर्वरकों, सिंचाई, पौध संरक्षण, उन्नत उपकरण, फार्म मशीनरी तथा कृषकों को ऋण आदि निविष्टियों पर निर्भर थी।

भारत में हरित क्रांति का प्रारंभ पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूँ की खेती में उन्नत बीजों के प्रयोग के साथ हुआ। 1983 तक इसमें चावल की खेती को भी सम्मिलित  कर लिया गया तथा हरित क्रांति का विस्तार बिहार, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु में हो गया। हरित क्रांति से गेहूं की प्रति हेक्टेयर उपज 1964-65 में 916 मिलीग्राम से बढ़कर मिशन 1990-91 में 2281 किलोग्राम तथा 2002-03 में 2618 किलोग्राम हो गई जो 37 वर्षों के दौरान 216.6 प्रतिशत वृद्धि को सूचित करती है। देश में कुछ फसलों के क्षेत्रफल, उत्पादन एवं उपज में वृद्धि तालिका 13.7 के अनुसार हुई-

तालिका : हरित क्रांति एवं कृषि उत्पादन

फसलें

क्षेत्रफल 1965-66

(लाख हैक्टेयर) 2002-03

उत्पादन 1965-66

(लाख टन) 2002-03

उपज 1965-66

(किलो/हेक्टेयर) 2002-03

गेहूँ

126

249

104

651

827

2618

चावल

355

463

306

727

862

1804

मक्का

48

63

48

103

1005

1638

ज्वार

177

92

76

71

429

769

बाजरा

200

76

38

46

314

610

अन्न

924

914

624

163

675

1783

दालें

236

200

127

111

529

556

तिलहन

138

212

70

151

507

710

तालिक से स्पष्ट है कि गेहूं (216.5%), चावल (109%), मक्का (63 प्रतिशत), ज्वार (79%), बाजरा (94%), अन्न (166%), दालें (5.1%) तथा तिलहनों (40 प्रतिशत) की उपजों में कोष्ठकानुसार वृद्धि दर्ज हुई।

किंतु चावल की खेती में हरित क्रांति से अपेक्षित लाभ नहीं हुआ। देश में इसकी उपज विश्व के औसत तथा अनेक देशों (दक्षिण कोरिया-6350 कि0/है०, जापान 6330 कि0/है0, मिस्र 5780 कि0/है0, चीन 5733 कि0/है0 तथा विश्व 3560 कि0/है0 की अपेक्षा बहुत कम है। इसी प्रकार मोटे अनाज, दालों तथा तिलहनों में भी अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई, यद्यपि इनकी उपजों में कुछ वृद्धि अवश्य दर्ज हुई है।

हरित क्रांति का प्रभाव

सकारात्मक प्रभाव (Positive Effects)

हरित क्रांति के सकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं-

(1) हरित क्रांति ने खाद्यान्नों के उत्पादन में तीव्र वृद्धि करके देश को खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर बना दिया है।

(2) इसने भारतीय कृषि का स्वरूप निर्वाहक से वाणिज्यिक तथा बाजारोन्मुख बना दिया। अब भारत कुछ खाद्यान्नों का निर्यात करने लगा है।

(3) कृषि में नयी तकनीकी के प्रयोग से रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई है।

(4) हरित क्रांति ने रासायनिक एवं इंजीनियरिंग उद्योगों को पुष्ट किया है।

(5) इसने कृषकों की आय में वृद्धि की है।

(6) इससे ग्रामीण संपत्रता में वृद्धि हुई है, जिससे द्वितीयक एवं तृतीयक क्रियाकलापों में वृद्धि हुई है।

हरित क्रांति के नकारात्मक पक्ष (Negative Aspect of Green Revolution)

हरित क्रांति के कुछ दोष निम्नलिखित हैं-

(1) इसमें भारी पूँजी निवेश की आवश्यकता है जिसे छोटे तथा सीमांत कृषक सहन नहीं कर सकते। अतएव इसके लाभ बड़े कृषकों तक सीमित हैं।

(2) राव (V.K.R.V. Rao) के अनुसार हरित क्रांति ने कृषकों के मध्य आर्थिक विषमता को व्यापक कर दिया है।

(3) इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े तथा छोटे कृषकों, भूस्वामियों तथा काश्तकारों एवं कृषि फार्मों पर नियोक्ता तथा कर्मचारियों के मध्य संघर्ष उत्पन्न कर दिया है।

(4) गेहूं तथा चावल की एक-फसली कृषि (mono culture) के कारण मिट्टी के पोषक तत्वों पर बुरा प्रभाव पड़ा है। हरित क्रांति से लाभान्वित क्षेत्रों में मिट्टियों के 14 में से 9 सूक्ष्म पोषक तत्व गायब हो गये हैं। एक फसली कृषि से जैव विविधता घटी है जो पारिस्थितिक संतुलन के लिये चिंता का विषय है।

(5) भूमिगत जल संसाधनों के विवेकहीन प्रयोग, रासायनिक उर्वरकों कीटनाशकों तथा पीड़कनाशकों के प्रयोग से मिट्टी से संबंधित अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं, जैसे-उर्वरता का ह्रास, लवणता एवं क्षारीयता की वृद्धि, जल सिक्ती, रासायनिक विष का जनन, जिसने धरातलीय जल, पौधों तथा खाद्यान्नों को प्रदूषित कर दिया है। नहर सिंचित क्षेत्रों में फाइलेरिया, इंसेफलाटिस आदि नये-नये रोग उत्पन्न हो गये हैं।

(6) हरित क्रांति का प्रभाव कुछ खाद्य फसलों तक ही सीमित है, तिलहन, दालों, नकदी फसलों, चारा फसलों आदि को इससे कोई लाभ नहीं पहुंचा है। इसके अतिरिक्त हरित क्रांति ने प्रादेशिक असंतुलन उत्पन्न किए हैं, क्योंकि इसके लाभ पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश राज्यों तथा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु के कुछ जिलों तक ही सीमित है।

(7) हाल के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कृषि उत्पादन शीर्ष पहुंच कर घटने लगा है। हरित क्रांति के घटते हुए प्रभावों का वर्णन करते हुए लेस्टर ब्राउन (Lester Brown) एवं हल्केन (Halken) ने भविष्यवाणी की है कि वर्ष 2030 तक भारत को प्रतिवर्ष 40 मिलियन टन खाद्यान्न आयात करने की आवश्यकता होगी।

(8) हरित क्रांति से संबद्ध मशीनीकरण से भूमिहीन श्रमिकों की बेरोजगारी बढ़ेगी, जिससे उन्हें नगरीय क्षेत्रों की ओर पलायन करना होगा। इससे नगरीय भीड़-भाड़ तथा अन्य सामाजिक आर्थिक समस्याएं उत्पन्न होंगी।

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Pankaja Singh

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