फ्रांस की संसदीय और अध्यक्षात्मक व्यवस्था | Parliamentary and Presidential System in France in Hindi
फ्रांस की संसदीय और अध्यक्षात्मक व्यवस्था
(Parliamentary and Presidential System in France)
पंचम गणतन्त्र के संविधान को अर्द्ध-राजतान्त्रिक, अर्द्ध-अध्यक्षीय, संसदीय साम्राज्य, अव्यवहार्य फ्रांसीसी सांविधानिक इतिहास का सबसे बुरा संविधान आदि कहा गया है। तथापि, जैसा कि डोरोथी पिकिल्स ने लिखा है; “कि ये विभिन्न नाम कुछ फ्रांसीसी प्रतिक्रियाएँ मात्र ही है, और ये सभी संज्ञाएँ आलंकृत हैं।” फ्रांस के इस नवीन संविधान में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है, किन्तु एक तरह से यह अर्द्ध-संसदीय प्रणाली है। डोरोथी पिकिल्स के अनुसार, “यह संविधान दो विरोधी सिद्धान्तों का मिश्रण है-प्रथम सिद्धान्त गणतन्त्रीय ससदात्मक शासन का है और द्वितीय सिद्धान्त अध्यक्षात्मक शासन का है। राज्य और शासन के अध्यक्ष अलग-अलग हैं।”
फ्रांस की शासन-व्यवस्था का संसदीय-अध्यक्षीय स्वरूप निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है :-
(1) प्रथम गणतन्त्र के संविधान की एक अति विशेषता राष्ट्रपति की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन है। राष्ट्रपति की पहले की शक्तियों में आमूल परिवर्तन किए गए हैं। उसके परमाधिकारों में वृद्धि हुई है, राष्ट्रीय सभा की शक्तियों में अत्यधिक कमी हुई है और मन्त्रिपरिषदीय उत्तरदायित्व को कम कर दिया गया है। राष्ट्रपति को अनेक वैयक्तिक अधिकार दिए गए हैं, जिनका वह स्वेच्छा से प्रयोग कर सकता है। राष्ट्रपति ही मन्त्रिमण्डल और प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा प्रधानमन्त्री के परामर्श से राष्ट्रीय-सभा को भंग कर सकता है। संविधान की धारा 16 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को महान आपात्कालीन शक्तियाँ दी गई हैं जिनका निर्णायक वह स्वयं है। वस्तुतः पंचम गणतन्त्र में राष्ट्रपति सांविधानिक यन्त्र का नियन्त्रक हो गया है। उसकी तुलना में मन्त्रियों की शक्ति बहुत ही कम है। वे संसद नहीं हो । संसद की कार्यवाही में वे अवश्य भाग ले सकते हैं, परन्तु मतदान नहीं कर सकते।
(2) संविधान के अनुच्छेद 50 में यह स्पष्ट रूप से वर्णित है कि “संसद व्यवहार में राष्ट्रीय सभा के प्रति उत्तरदायी है। राष्ट्रीय सभा, अनुच्छेद 49 तथा 50 के अनुसार एक प्रकार से मन्त्रिपरिषद् को पद-त्याग करने के लिए बाध्य कर सकती है।”
लेकिन उपर्युक्त व्यवस्था कार्यपालिका अथवा सरकार की स्थिति को अधिक कमजोर नहीं बनाती । क्योंकि (i) निन्दात्मक प्रस्ताव तभी प्रस्तुत हो सकता है जबकि उस पर राष्ट्रीय सभा के 1/10 सदस्यों के हस्ताक्षर हों। साथ ही केवल ऐसे ही मत की गणना की जाती है जो उस प्रस्ताव के पक्ष में हों, (ii) निन्दात्मक प्रस्ताव तभी पास हो सकता है जबकि राष्ट्रीय सभा के बहुसंख्यक सदस्य उसके पक्ष में हों, और (iii) यदि प्रस्ताव राष्ट्रीय सभा में रद्द कर दिया जाय तो उसी अधिवेशन में दूसरा वैसा प्रस्ताव पेश नहीं किया जा सकता । इस सारी व्यवस्था का अर्थ यही है कि मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रीय सभा के सामने उतने ही विषय रखती है जो वह उससे पास कराना चाहती है।
(3) संसद के कार्य-
(i) संसद के सत्रों के दौरान विभिन्न विधेयकों पर होने वाले विवाद द्वारा संसद सदस्य सरकारी नीति और कार्यक्रम के विषय में अपना मत प्रकट कर सकते हैं तथा सरकार की आलोचना कर सकते हैं।
(ii) जब विधेयक समिति में पहुँचता है तो समिति के सदस्यों को विधेयक से सम्बन्धित जानकारी एवं स्पष्टीकरण प्राप्त करने के लिए सरकारी अधिकारियों एवं मन्त्री को बुलाने का अधिकार है। इन समितियों में सभी संसदीय दलों के सदस्य होते हैं।
(iii) संसद जाँच-समितियाँ भी नियुक्त कर सकती है।
(iv) संसद सदस्य लिखित अथवा मौखिक प्रश्नों द्वारा मन्त्रियों से सूचना प्राप्त कर सकते हैं।
(4) पंचम गणतन्त्र के संविधान में शक्ति-विभाजन के सिद्धान्त का प्रयोग किया गया है। कार्यपालिका को व्यवस्थापिका से पृथक करने का प्रयास किया गया है। राष्ट्रपति का निर्वाचन संसद द्वारा न होकर एक निर्वाचक-मण्डल द्वारा होने की व्यवस्था है। मन्त्रियों को एक और तो संसद की सदस्यता से वंचित किया गया है, दूसरी और उन्हें संसद के प्रति उत्तरदाया बना दिया गया है।
(5) संविधान के अनुच्छेद 18 के अनुसार राष्ट्रपति को अपने सन्देशों द्वारा संसद के सदनों के साथ सम्पर्क स्थापित करने का अधिकार है। यह अनुच्छेद उसे यह शक्ति भी देता है कि इन सन्देशों के पढ़े जाने के लिए वह संसद के विशेष सत्र को आहूत कर सके। इन सन्देशों पर मन्त्रियों के हस्ताक्षर होना अनिवार्य नहीं है। यह प्रथा संविधान में अध्यक्षात्मक तत्व का समावेश करती है।
(6) मन्त्रियों की संख्या के विषय में कोई सांविधानिक अथवा कानूनी बन्धन नहीं है। परिस्थिति के अनुसार यह संख्या घट-बढ़ सकती है। यह व्यवस्था संसदीय प्रणाली वाले है। की व्यवस्था से मेल खाती है।
(7) संविधान में राजनीतिक दलों के योगदान को भी मान्यता दी गई है। इस प्रकार पहली बार एक लोकतन्त्रीय विधान में न केवल राजनीतिक दलों का निर्देशन किया गया है, अपितु उन्हें राजनीतिक जीवन का एक साधारण अंग भी स्वीकार कर लिया गया है।
(8) नवीन संविधान में केन्द्रीय सत्ता की उस परम्परा को बनाये रखा गया है जो फ्रांस के राजनीतिक और सांविधानिक इतिहास का एक स्थायी लक्षण रहा है। सम्पूर्ण देश का शासन एक ही केन्द्र से होता है। स्थानीय प्रशासन केन्द्र के नियन्त्रण के बारे में इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया
(9) फ्रांसीसी न्यायपालिका को मूलतः प्रशासकीय अंग माना जाता है। मुनरो के शब्दों में, “न्यायापालिका को व्यवस्थापिका से भिन्न शासन के एक स्वतन्त्र अंग के रूप में मानने की आदत फ्रांसीसी जनता में नहीं है।
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