भारत में संसदीय शासन-व्यवस्था | भारतीय संसद की शक्तियाँ और कार्य-
भारत में संसदीय शासन-व्यवस्था
(Parliamentary Form of Government in India)
भारतीय शासन-व्यवस्था, कुछ विशिष्ट अन्तरों के साथ ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अपनाए हुये है और अब तक संविधान का जो कार्य रहा है, वह भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है।
भारतीय संसद के तीन अंग हैं-राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा (अनुच्छेद 79)। राष्ट्रपति संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं होता, किन्तु संसद का एक अभिन्न अंग है और संसद द्वारा पारित विधेयक उसके हस्ताक्षर होने के बाद ही अधिनियम का रूप ग्रहण करते हैं। इसके विपरीत अमेरिका का राष्ट्रपति वहाँ के विधानमण्डल (कांग्रेस) का अंग नहीं है। क्योंकि वहाँ शक्ति पार्थक्य का सिद्धान्त अपनाया गया है जिसके अनुसार सरकार के तीनों अंग एक- दूसरे से पृथक् हैं। राष्ट्रपति को संसद का अभिन्न अंग बनाना संसदीय शासन के सिद्धान्तों और परम्पराओं के अनुकूल है।
राज्य सभा के निर्वाचन अप्रत्यक्ष होते हैं। राज्यों के प्रतिनिधियों का निर्वाचन सम्बन्धित राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाता है और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का निर्वाचन ऐसे ढंग से किया जाता है जैसा कि संसद कानून द्वारा निर्धारित करे। सीटों का आबंटन (निर्वाचित का) जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। राज्यसभा एक स्थायी सदन है, उनका विघटन नहीं हो सकता। उसके सदस्य छ: वर्ष के लिए निर्वाचित होते हैं और बारी-बारी से एक-तिहाई सदस्य प्रति दूसरे वर्ष अवकाश ग्रहण करते हैं।
लोकसभा को प्रायः संसद का निम्न सदन कहा जाता है। यह ‘जनता की सभा’ है। इसके सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। इसके सदस्यों की अधिकतम संख्या 545 हो सकती है। इन 545 सदस्यों में से-
(अ) 525 से अधिक सदस्य राज्यों के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाएँगे-
(ब) 20 संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि होंगे एवं
(स) ऐंग्लो-इण्डियन समुदाय के सदस्य राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 331 के अन्तर्गत नामांकित किए जाएँगे।
सामान्यत: लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक से पाँच वर्षों का होता है, बशर्ते कि इसे इसके पूर्व ही भंग न कर दिया जाय। संकटकाल में एक समय में इसका कार्यकाल अधिक से अधिक एक वर्ष और बड़ाया जा सकता है। किन्तु संकट की स्थिति समाप्त होने के पश्चात् इसका कार्यकाल 6 महीने से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता । उल्लेखनीय है कि 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया था, किन्तु जनता सरकार ने 44वें संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा इसे घटाकर पुनः 5 वर्ष कर दिया।
ब्रिटिश सम्राट् की भाँति भारत का राष्ट्रपति भी सांविधानिक प्रमुख है। मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ ब्रिटिश सम्राट् या साम्राज्ञी वंशानुगत है, वहाँ भारतीय राष्ट्रपति जनता का निर्वाचित अध्यक्ष है। ब्रिटिश लोकसभा की भाँति भारतीय लोकसभा भी द्वितीय सदन (राज्य सभा) से अधिक शक्ति का प्रयोग करती है और ब्रिटिश व्यवस्था के अनुरूप ही भारतीय मन्त्रिमण्डल निचले सदन अर्थात् लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है।
ब्रिटिश संसदीय कार्यपालिका से एक मुख्य मित्रता इस बात में है कि यद्यपि राष्ट्रपति एक सांविधानिक प्रमुख है तथापि ब्रिटिश सम्राट या साम्राजी की तरह ‘स्वर्णिम शून्य’ अथवा ‘रबड़ की मोहर’ मात्र नहीं है। राष्ट्रपति को संविधान द्वारा कुछ विशिष्ट शक्तियाँ प्रदान की गई है। जिनका विशेष प्रभाव आपात्काल में स्पष्ट होता है। किन्तु किसी भी दशा में राष्ट्रपति अपनी आपात्कालीन शक्तियों के कारण निरंकुश नहीं बन सकता, क्योंकि वह इन शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री के परामर्श से करता है।
स्वतन्त्र भारत के अब तक के सांविधानिक इतिहास ने यह स्पष्ट कर दिया है कि “भारत का राष्ट्रपति अपने मन्त्रियों का आलोचक है, परामर्शदाता है और मित्र है। परामर्शदाता के रूप में वह अपने विचारों को मन्त्रिमण्डल के समक्ष प्रभावी रूप से रख सकता है। आलोचक, के रूप में वह मन्त्रणा कर आपत्ति कर सकता है जो मन्त्री ने उसे किसी विषय पर दी हो।
राष्ट्रपति और मन्त्रि-परिषद् के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपना यही मत प्रकट किया है कि नीति के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का निर्धारण मन्त्रिमण्डल ही करता है और राष्ट्रपति को सांविधानिक राज्याध्यक्ष बना कर वास्तविक कार्यपालिका सत्ता मन्त्रिपरिषद् अथवा मन्त्रिमण्डल को सौंप दी गई।
भारतीय संसद ब्रिटिश संसद के समान पूर्ण सार्वभौम व्यवस्थापिका नहीं है, क्योंकि
(अ) सामान्य काल में इसकी विधायी शक्ति संघ और समवर्ती सूची के विषयों तक सीमित है,
(ब) संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकारों द्वारा भी इसकी शक्ति सीमित होती है एवं
(स) न्यायालय को यह निर्णय शक्ति है कि संसद द्वारा पारित कोई विधि सांविधानिक है अथवा नहीं। पर इन सीमाओं के बावजूद संसद ही वह धुरी है जिस पर सरकार का सम्पूर्ण शासन- तन्त्र घूमता है। संकटकाल में तो इसकी शक्ति में असीमित वृद्धि हो जाती है और इसकी विधायी तथा वित्तीय शक्तियों पर लगे प्रतिबन्ध लगभग समाप्त हो जाते हैं।
भारतीय संसद की शक्तियाँ और कार्य-
संसद का मुख्य कार्य विधि-निर्माण है। भारतीय संसद संघीय सूची, समवर्ती सूची, अवशिष्ट विषयों और कुछ विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है। गैर-वित्तीय विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तावित हो सकते हैं, परन्तु कोई भी विधेयक अधिनियम तभी बन सकता है जब वह संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित हो गया हो और उस पर राष्ट्रपति ने अपनी स्वीकृति दे दी हो। यदि किसी विधेयक को किसी एक सदन द्वारा संशोधित कर दिया जाता है तो उस संशोधन पर दोनों सदनों की स्वीकृति आवश्यक है। यदि किसी विधेयक के किसी एक सदन में भेजे जाने के छ: माह तक उक्त सदन विधेयक को पास करके नहीं लौटाता तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक आमन्त्रित करता है। यदि इस बैठक में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से विधेयक पारित होता है तो वह विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा मान लिया जाता है।
संविधान द्वारा वित्तीय क्षेत्र में वास्तविक शक्ति लोकसभा को ही प्रदान की गई है, राज्यसभा की स्थिति बहुत गौण है। वित्त विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं, राज्यसभा में नहीं। ऐसा विवाद उठने पर कि कोई विधेयक वित्तीय है अथवा नहीं, लोकसभा के अध्यक्ष का निर्णय ही अन्तिम माना जाता है। वित्तीय विधेयक पर राज्य सभा की स्वीकृति का विशेष महत्व नहीं रहता। क्योंकि जब लोकसभा द्वारा पारित होकर वित्तीय विधेयक राज्यसभा में भेजा जाता है तो राज्यसभा की विधेयक की प्राप्ति की तारीख से 14 दिनों के भीतर विधेयक को ज्यों का त्यों या संशोधन सहित लौटा देना होता है और लोकसभा को अधिकार है कि राज्यसभा की सिफारिश को स्वीकार करे या न करे। यदि राज्यसभा की सिफारिशों में से किसी को भी लोकसभा स्वीकार नहीं करती तो वित्तीय विधेयक उसी रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है जिस रूप में वह लोकसभा द्वारा पारित किया गया था। यदि राज्यसभा वित्तीय विधेयक को 14 दिन के अन्दर लोकसभा को नहीं लौटाती तो भी विधेयक उसी रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है। जिस रूप में वह लोकसभा द्वारा पारित किया गया था।
संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और राज्य विधान मण्डलों के निर्वाचित सदस्य मिलकर राष्ट्रपति के निर्वाचक-मण्डल की रचना करते हैं। इस सम्बन्ध में लोकसभा और राज्यसभा की शक्तियों समान हैं।
मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है; अतः राज्यसभा का देश की कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं है। मन्त्रि-परिषद् के उत्तरदायित्व का अभिप्राय यह है कि वह लोकसभा की विश्वासपात्र रहने तक ही सत्तारूढ़ रहेगी। अतः लोकसभा का भी यह दायित्व हो जाता है कि वह शासन के विभिन्न क्रिया-कलापों पर इस प्रकार दृष्टि रखे कि कार्यपालिका एवं लोकप्रतिनिधियों के मध्य नीति-सम्बन्धी मौलिक विभेद स्पष्ट रूप से प्रकट होते रहें और लोकसभा कार्यपालिका की गलतियों पर नियन्त्रण रखे।
संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति पर ही संविधान में संशोधन हो सकता है। संशोधन- सम्बन्धी विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जा सकता है। पर एक यह आवश्यक है कि संसद के प्रत्येक सदन में सम्पूर्ण सदस्य संख्या के बहुमत से तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 (दो-तिहाई बहुमत से यह संविधान विधेयक पारित हो। संविधान में कुछ ऐसे भी विषय रखे गये हैं जिनके संशोधन के बारे में राज्य विधान-मण्डलों की स्वीकृति लेने की आवश्यकता नहीं है और जिन पर अकेले संसद ही संशोधन कर सकती है। संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किसी संविधान संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति भी अपनी स्वीकृति देने से मना नहीं कर सकता।
संसद को संविधान में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, लेखा नियन्त्रक तथा महालेखा परीक्षक को उनके पदों से हटाने का भी अधिकार प्राप्त है। मन्त्रि- परिषद् सामूहिक रूप में लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। प्रत्येक कानून के लिए संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक है। प्रत्यायोजित विधान की भी संसद् पुनरीक्षा कर सकती है तथा उस पर नियन्त्रण रख सकती है। यद्यपि वित्तसम्बन्धी कानूनों की राष्ट्रपति द्वारा सिफारिश की जानी चाहिए परन्तु केवल लोकसभा को ही उन पर स्वीकृति प्रकट करने का अधिकार प्राप्त है।
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