भारतीय संसद की सर्वोच्चता | The Supremacy of Indian Parliament in Hindi
भारतीय संसद की सर्वोच्चता
(The Supremacy of Indian Parliament)
भारतीय संसद का निर्माण संघात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत हुआ है। इसके लिखित एवं दुष्परिवर्तनशील संविधान, शक्ति-विभाजन एवं स्वतन्त्र न्यायपालिका स्वाभाविक रूप से गुण हैं। लिखित संविधान में शासन के अंग संविधान से शक्ति प्राप्त करते हैं अर्थात् कोई भी अंग संविधान के ऊपर नहीं हो सकता। संसद भी उसका अपवाद नहीं है। भारतीय शासन-व्यवस्था में न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्रदान किया गया है। अतः संसद के क्रिया-कलापों को न्यायालय सांविधानिकता की कसौटी पर जाँच कर सकते हैं आर उनको अवैधानिक बता कर निरस्त भी कर सकते हैं। कुछ पक्षों का कहना है कि भारतीय संसद की सर्वोच्चता निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट है:-
- संसद संघ सूची तथा समवर्ती सूची पर कानून बना सकती है। किसी राज्य की प्रार्थना पर उस राज्य के लिए राज्य सूची में से भी कानून बनाने में वह सक्षम है। राज्यसभा जा संसद का एक सदन है, 2/3 बहुमत से किसी भी ऐसे विषय को, जो राज्य सूची में है, राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर सकती है और संसद को उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। कार्यपालिका संसद के प्रति उत्तरदायी है।
- भारत की संसद जनता का प्रतिनिधित्व करती है और लोकतन्त्र में जनता ही सर्वोपरि है।
- भारत के राष्ट्रपति के अधिकार व्यापक हैं। आपात्काल की स्थिति में देश में शासन का स्वरूप निहित अर्थ में एकात्मक हो जाता है और शासन की समस्त शक्तियाँ कार्यपालिका को प्राप्त हो जाती हैं और मौलिक अधिकारों को भी निलम्बित किया जा सकता है। इन अधिकारों का प्रयोग मन्त्रिमण्डलं करता है जो संसद के प्रति उत्तरदायी है।
- संविधान में संशोधन करने में संसद पूर्णतः संक्षेप है।
- संसद 9वें परिशिष्ट में किसी भी विषय को सम्मिलित करके उसे न्यायपालिका के अधिकार-क्षेत्र से पृथक् करने में सक्षम है।
संविधान की सर्वोच्चता
(1) जिस देश में संविधान लिखित होता है तो शासन के अंगों की रचना, उनका कार्य एवं शक्तियाँ संविधान के अनुसार ही सम्भव हैं। संविधान ही सर्वोच्च होता है। वही शक्ति का स्रोत है। संविधान को स्वीकृति और उसे अंगीकार करने का निश्चय भी जनता ने किया है। अत: यह कहकर कि जनता का प्रतिनिधित्व करने के कारण संसद सर्वोपरि है, हमे भ्रम ही उत्पन्न करते हैं।
(2) भारतीय संसद संघात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत कार्य करती है। वह राज्य के कार्य-क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। आपात्काल में स्थिति भिन्न हो सकती है किन्तु राजनीतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन सामान्य स्थिति के आधार पर किया जाता है। आपात्काल में तो सभी मर्यादाओं का अतिक्रमण सम्भव है; अतः संसद की स्थिति का आंकलन सामान्य स्थिति के अनुसार ही होना चाहिए।
(3) भारतीय संविधान का प्राक्कथन भारत के शासकों को निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निर्देश देता है। शासन का कोई अंग उस भावना के विपरीत कार्य नहीं कर सकता। संसद भी उसका अपवाद नहीं।
(4) भारतीय संविधान में नीति-निदेशक तत्त्वों का समावेश किया गया है। ये तत्त्व न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराये जा सकते; किन्तु शासन का अंग उनकी अवहेलना नहीं कर| शासकों को निश्चित एवं निर्देशित दिशा कार्य करना है; अत: वह किसी प्रकार भी पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है। यह सकारात्मक प्रतिबन्ध है।
(5) भारतीय संविधान ने नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं। उन अधिकारों की प्रकृति निषेधात्मक है। इसका अर्थ यह है कि राज्य नागरिक के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। इन अधिकारों में सांविधानिक उपचारों की भी व्यवस्था है। तात्पर्य यह है कि यदि नागरिक अधिकारों में राज्य हस्तक्षेप करता है तो नागरिक न्यायालय की शरण लेकर अपने अधिकारों की रक्षा करने का वैधानिक अधिकार रखता है।
(6) भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय को न केवल स्वतन्त्र बनाने का प्रयास किया गया है अपितु कुछ अंशों में न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्रदान करके शासन के अन्य अंगों कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका की अपेक्षा उच्चतर स्थान प्रदान किया गया है। कुछ विद्वानों का कथन है कि न्यायिक पुनरावलोकन का यह न्यायालय का अधिकार भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में सीमित है। भारत के संविधान में यह अधिकार सीमित मात्रा में ही सही, न्यायालय को निश्चित रूप से दिए गए हैं। भारत में चाहे प्रतिबन्धों के साथ ही सही, न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार न्यायपालिका को वैधानिक रूप से प्राप्त है।
उपर्युक्त सभी बन्धन ऐसे हैं जो संसद की शक्ति को सीमित करते हैं। ऐसी अवस्था में संसद की सर्वोच्चता का प्रश्न ही नहीं उठता। संसद को कानून बनाने का अधिकार असीमित नहीं है, उस पर भी न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था है। उसके कानूनों को चुनौती दी जा सकती है और सर्वोच्च न्यायालय को इन कानूनों को अवैधानिक घोषित करने का अधिकार है।
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