हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का योगदान
हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का योगदान
हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का महत्वपूर्ण स्थान है, आज तो आलोचना जगत में अनेक मतवाद अनेक समीक्षा पद्धतियों और अनेक मान्यताएं उभर कर सामने आई हैं, किन्तु उन सभी से परिचित होकर भी हजारी प्रसाद जी आज अपनी सन्तुलित गम्भीर वैचारिक और पाण्डित्यपूर्ण आलोचना शैली के लिए विख्यात है। आचार्य शुक्ल और आचार्य वाजपेयी के बाद हिन्दी आलोचना को समृद्ध और पुष्ट करने में द्विवेदी जी का विशेष योगदान किया है। इसी योगदान के कारण उनका स्थान आज भी साहित्यालोचन में महत्वपूर्ण और अपरिहार्य बन गया है। उन्होंने जो योगदान दिया है वहाँ आलोचना जगत में उनके स्थान को स्पष्ट और मूल्यांकित करता है, उनकी आलोचना पद्धति विशिष्ट और मौलिक है, इसकी उपलब्धियां भी विशेष उल्लेखनीय हैं। साहित्य समीक्षा की नवीन और वैज्ञानिक दृष्टि, साहित्य की ऐतिहासिक व्याख्या इतिहास और समीक्षा के समन्वय और मध्यकालीन धार्मिक साहित्य की गौरव प्रतिष्ठा, सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना और पाण्डित्यपूर्ण शैली और गम्भीर शोषक की दृष्टि के कारण आचार्य द्विवेदी जी का स्थान हिन्दी आलोचना के जगत में उनके स्थान का मूल्यांकन इन्हीं विन्दुओं के आधार पर किया जा रहा है, या किया जाना चाहिए-
- आलोचना की नूतन और वैज्ञानिक दृष्टि- आचार्य द्विवेदी जी ने जिस नवीन और वैज्ञानिक दृष्टि को अपनी समीक्षा के लिए अपनाया है, वह ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति है। इस आलोचना पद्धति से पूर्व आलोचना जगत में शुक्ल जी का लोकादर्शवाद और वाजपेयी जी का छायावादी दृष्टिकोण प्रचलित था। द्विवेदी जी ने इस नई आलोचना प्रक्रिया से अपना नया और महत्वपूर्ण स्थान बनाया। यह वह आलोचना शैली है जो साहित्य को अपने आप में स्वतन्त्र मानकर नहीं चलती, अपितु उसे संस्कृति की जीवनधारा का महत्वपूर्ण अंग मानती है।
साहित्य की ऐतिहासिक व्याख्या- आचार्य द्विवेदी जी ने साहित्य के इतिहास को संकुचित और सीमित अर्थ में ग्रहण नहीं किया है, अपितु उसे सामाजिक सांस्कृतिक जीवन धारा का प्रवाह माना है। उन्होंने साहित्य को सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखा है और उसी आधार पर उसका ऐतिहासिक वृत्त प्रस्तुत करके आलोचना जगत को नई भेंट प्रदान की है।
हिन्दी साहित्य का पुनर्निर्माण और पुनर्मूल्यांकन- हिन्दी आलोचना जगत में द्विवेदी जी का महत्वपूर्ण स्थान इस कारण भी स्वीकार किया जा सकता है कि उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास का पुनर्निर्माण और पुनर्मूल्यांकन भी किया है। द्विवेदी जी ने शुक्ल जी द्वारा उपेक्षित युगों और कवियों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण कार्य किये हैं। द्विवेदी जी ने इतिहास का अध्ययन मनुष्य जीवन के अखण्ड प्रवाह के अध्ययन के अंग के रूप में किया है और अपभ्रंश काल एवं वीरगाथा काल की अनेक उपेक्षित परिस्थितियों का उद्घाटन किया। इस दृष्टि से द्विवेदी जी ने इन्हीं साहित्य के इतिहास का पुनर्निर्माण का कार्य सफलतापूर्वक किया है।
पाण्डित्य गहन अध्ययन और शोध- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी संस्कृत साहित्य के गहन अध्येता और पाण्डित्यपूर्ण विचारक हैं, उन्होंने अपनी विस्तृत ज्ञानराशि और गहन अध्ययनशीलता के सहारे हिन्दी आलोचना को अनेक नई दिशा दृष्टियों प्रदान की। इससे इसका मूल्य हिन्दी आलोचना जगत में और भी बढ़ गया, डॉ० शम्भूनाथ सिंह ने लिखा है- “हिन्दी साहित्य आदिकाल में उन्होंने हिन्दी काव्य रूपों का सूत्र प्राकृत और अपभ्रंश के काव्य रूपों में खोजा है। साथ ही विभिन्न प्रान्तों के साहित्य का हिन्दी साहित्य के साथ सम्बन्ध जोड़कर काव्य रूपों का तुलनात्मक अध्ययन किया है। ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम पर काव्य रचना की प्रथा के सम्बन्ध में उन्होंने हिन्दी साहित्य का आदिकाल में नये ढंग से विचार किया है, जिससे ‘पृथ्वी राजरासो’ की ऐतिहासिकता के उल्लास भरे प्रश्न का बहुत कुछ समाधान हो जाता है।
इतिहास और आलोचना का समन्वय- साहित्य का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य सदैव द्विवेदी जी के अध्ययन विश्लेषण और आकर्षण का केन्द्र रहा है। उन्होंने इतिहास के जीवन तत्वों की पृष्ठिका पर आलोचना लिखी है। इससे साहित्य समीक्षा की नई दिशाएँ खुली हैं ‘साहित्य का मर्म’ और ‘साहित्य का साथी’ जैसी कृतियों में इतिहास और आलोचना का सभीकृत रूप मिलता है। इतिहास और साहित्यालोचन द्विवेदी जी के यहाँ नीर क्षीरवत् मिले हुए प्रतीत होते हैं।
रस ग्राहिता- रस माहिता आचार्य द्विवेदी जी की आलोचना की महत्वपूर्ण विशेषता है। यह वह शक्ति है जो पाठक, अध्येता और अध्यापक का मन बाँधे रखती है। कबीर, सूरदास, कालिदास और अपभ्रंश साहित्य पर लिखी गयी समीक्षाओं में रसग्रहीता की शक्ति को देखा जा सकता है। डॉ० विश्वनाथ तिवारी ने ठीक ही लिखा है कि “कवि की अभिव्यक्ति तक पाठकों को ऐसे भाव पथ के द्वारा पहुंचा देता है कि उसे पता ही न चलने पाये कि वह लेखक को नहीं कवि को पढ़ा रहा है। प्रेमचन्द्र की विशेषता बतलाते हुए जो कुछ द्विवेदी जी ने लिखा है उससे उनकी रसमाहिता शक्ति को देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ कोई भी जिज्ञाला मानवता बहकी कोठे पर बैठी बार विलासिनी को रोटियों के लिए ललकते हुए भिखमंगे को कूट परामर्श में लीन गोयन्दों को ईर्ष्यापरायण प्रोफेसरों को दुर्बल के हृदय बैंकरों को, साहसी चमारों को, ढोंगी पण्डितों को, फरेबी पटवारी को और नीचाराम अमीर को देख सकता है और निश्चित होकर विश्वास कर सकता है कि जो कुछ उसने देखा है वह गलत नहीं है। इससे अधिक सच्चाई के साथ दिखा सकने वाली पारदर्शिता को हिन्दी और उर्दू की दुनिया नहीं जानती है। यह उदाहरण द्विवेदी जी की रसग्राही क्षमता को प्रमाणित करता है।
धार्मिक साहित्य की गौरव-प्रतिष्ठा- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी अपनी आलोचना में पूरी तरह तार्किक और विश्लेषक नहीं रहे हैं। उन्होंने नीति, धर्म, संस्कृति और आनन्द सभी से भरकर आलोचनायें लिखी हैं। यह उनकी आलोचना की उपलब्धि है। वे धार्मिक काव्य को मात्र धार्मिक होने से काव्य क्षेत्र से बाहर की वस्तु नहीं मानते हैं। धर्मानुमोदित साहित्य को शाश्वत बताकर गौरव प्रदान किया है। इससे वे अन्य आलोचकों से अलग-थलग हैं।
सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठा- आचार्य द्विवेदी जी की आलोचनात्मक कृतियाँ गवाह हैं कि वे साहित्य को संस्कृति का और मानवीय दृष्टिकोण का अभिव्यंजन मानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने साहित्य और संस्कृति की एकात्मीय की प्रतिष्ठा की है। जो कुछ भी संस्कृति महत्व से मण्डित है उसको उन्होंने श्रेष्ठ साहित्य की कोटि में स्वीकार किया है। डॉ. देवराज ने उनके सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है कि “द्विवेदी जी मुख्यतः एक पण्डित हैं, एक महापण्डित यो स्कालर उनका प्रमुख क्षेत्र सांस्कृतिक इतिहास है। साथ ही उसके व्यक्तित्व में मानववादी जीवन दृष्टि का आवेगात्मक आकलन भी है।”
प्रगतिशील दृष्टिकोण- आचार्य द्विवेदी जी का दृष्टिकोण प्रगतिशीलता से भी युक्त है। डॉ० विश्वनाथ तिवारी ने ठीक ही लिखा है कि “मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा में विश्वास रखने वाला चिन्तक प्रगतिशीलता में ही विश्वास रखेगा। यही कारण है कि द्विवेदी जी की गणना प्रगतिशील आलोचकों में भी की जा सकती है। अपनी मानवतावादी और प्रगतिशील दृष्टिकोण के कारण ही वे प्रेमचन्द्र जी साहित्यगत महानता को समझ सके हैं।
निष्कर्ष –
उपर्युक्त विवेचनोपरान्त यह कह सकते हैं कि हिन्दी आलोचना में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का स्थान उपर्युक्त कारणों से विशेषोल्लेख है। उनकी आलोचना में अनेक मौलिकतायें तो हैं ही वह है भी तो सांस्कृतिक और मानवीय विश्वासों से प्रेरित और पुष्ट यह दृष्टि उन्हें हिन्दी आलोचना में शीर्ष स्थानीय प्रमाणित करती है।
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