हिंदी साहित्य का इतिहास

ललित निबन्ध और उसकी परम्परा | हिंदी नाटकों का उद्भव और विकास | हिन्दी नाटकों के विकास पर निबन्ध

ललित निबन्ध और उसकी परम्परा | हिंदी नाटकों का उद्भव और विकास | हिन्दी नाटकों के विकास पर निबन्ध

ललित निबन्ध और उसकी परम्परा

संस्कृत में नाटक का साहित्यिक विकास ईसा की प्रथम शदी से मिलता है तथा अश्वघोष के नाटक ही प्राचीनता की दृष्टि से उद्धकाल में आते हैं, जिसका उत्कृष्ट रूप परवर्ती रचनाकारों विशेषतः कालिदास में मिलता है। संस्कृत नाटकों की परंपरा 13वीं शताब्दी तक विद्यमान रही, जिसका पर्याप्त प्रभाव हिंदी साहित्य पर पड़ा। संस्कृत नाटकों के अतिरिक्त डॉ० दशरथ ओझा एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के लोकनाट्य विधियों में भी हिंदी के मध्यकाल से ही प्रचलित हैं। और लोक पर इनका प्रभाव है।

साहित्य क्षेत्र में भी हिंदी नाटकों का विकास उत्तर रीतिकाल में ही लक्षित होता है किंतु उस युग में गद्य भाषा का विकास न होने के कारण पद्यमयता ही अधिक है। ये सभी नाटक ब्रजभाषा में लिखे गये थे। इस काल के प्रमुख नाटकों में प्राणचंद्र चौहान कृत रामायण महानाटक (सं0 1667) रघुराज नागर कृत सभासार (सं0 1757), लछिराम कृत करुणामरण (सं0 1772) उल्लेखनीय हैं किंतु ये सभी नाटक काव्यमय और छंदबद्ध हैं। इसके पश्चात् ब्रजभाषा गद्य और पद्य में लिखे गये रीवाँ नरेश विश्वनाथ सिंह कृत ‘आनंद रघुनंदन तथा भारतेंदु के पिता गोपाल चंद्र कृत ‘नहुष’ (सन् 1841) को प्रारंभिक नाटकों में रखा जा सकता है।

भारतेंदु युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र जी हिंदी नाटकों के मौलिक प्रोयक्ता रहे हैं। भारतेंदु के अतिरिक्त अन्य समस्त साहित्यकारों ने उसी परंपरा का अनुधावन मात्र किया है और जयशंकर प्रसाद के आविर्भावकाल तक भारतेंदु द्वारा निर्देशित दिशा में ही नाटकीय प्रयोग होते रहे हैं। भारतेंदु के काल में स्वयं भारतेंदु ने ही नाटक की विषयवस्तु को व्यापक आधार प्रदान किया है, उनके अतिरिक्त अन्य युगीन नाटककारों ने भी उसी परंपरा के आधार पर विभिन्न प्रकार के भाव भूमियों पर नाटक लिखा है, जिनमें रोमांटिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, राष्ट्रीय-सांस्कृतिक और व्यंग्यात्मक नाटक प्रमुख हैं। रोमांटिक नाटकों का विकास पारसिक नाट्य मंडलियों के प्रभाव स्वरूप हुआ जबकि अन्य कथा रूप तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप प्रस्तुत हुए। भारतेंदु युग के प्रमुख नाटककारों में लाला श्री निवास, किशोरीलाल गोस्वामी, राधाकृष्ण दास, शालिग्राम, काशी नाथ खत्री रोमांटिक और ऐतिहासिक नाटककार हैं। भारतेंदु युग में सर्वाधिक संख्या प्रहसनों को मिलती है, क्योंकि प्रहसनों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने का अवसर मिलता है। इस युग के प्रमुख प्रहसनकारों में भारतेंदु के अतिरिक्त राधाचरण गोस्वामी, राधा कृष्ण दास, देवकीनंदन, प्रतापनारायण मिश्र, गोपाल राम गहमरी, अम्बिकादत्त व्यास का नाम लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त तत्कालीन नारी समस्या को लेकर अनेक सामाजिक नाटक भी लिखे गये, जिनमें बालकृष्ण भट्ट कृत, ‘जैसा काम वैसा परिणाम’ राधाकृष्ण कुत ‘दुःखिनी बाला’ गोपालराम गहमरी कृत ‘विद्या-विनोद’ प्रमुख है।

हिंदी नाटकों के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद का आविर्भाव नाटकों के विकास का एक नया चरण है। प्रसाद ने हिंदी नाटक को उच्च भावभूमि और वैचारिक गम्भीर्य प्रदान किया, जिससे नाटकों का साहित्यिक वैशिष्टय बढ़ा। यद्यपि वैचारिक जटिलता के कारण उनके नाटकों की अभिनेयता बाधित हुई किंतु उससे प्रसाद के नाटकों की श्रेष्ठता में कमी नहीं आई।

प्रसाद ने हिंदी नाट्य-साहित्य को बारह श्रेष्ठ नाटक दिये। इनमें से सज्जन (1910), कल्याणी-परिणय (1912), करुणालय (1912), प्रायश्चित (1914), लघु रूपक हैं। उनकी प्रौढ़ नाट्यकला के उदाहरण राज्यश्री (1915), विशाखा (1912), अजातशत्रु (1921), जनमेजय का नागयज्ञ (1916), कामना (1927), स्कंदगुप्त (1928), चंद्रगुप्त (1931) और ध्रुवस्वामिनी (1934 ई०) हैं। प्रसाद के समस्त नाटक परंपरित रंगमंच की अवधारणा से मुक्त एक मानसिक रंगमंच पर पठनीय है। प्रसाद के नाटकों पर शिल्प की दृष्टि से भी प्रभाव पड़े हैं। प्रसाद परंपरित पारसी मंडलियों के अतिरिक्त पाश्चात्य और बंगला रंगमंच से भी प्रभावित थे। नाटकीय तत्वों के समावेश की दृष्टि से प्रसाद संस्कृत नाट्य परंपरा के निकट प्रतीत होते हैं जो चरित्र सृष्टि में सेक्सपियर और बर्नाड शॉ से भावित रहे हैं।

विवेच्यकाल में प्रसाद के अतिरिक्त हिंदी नाटक को नई दिशा देनेवाले प्रतिनिधि नाटककारों में हरिकृष्ण प्रेमी और लक्ष्मीनरायण मिश्र का भी विशिष्ट स्थान है। प्रेमी जी भी मुख्यतः ऐतिहासिक नाटककार हैं तथा इस दृष्टि से प्रसाद के अनुगामी प्रतीत होते हैं किंतु प्रसाद जहाँ भारतीय इतिहास के प्राचीन काल को आधार बनाते हैं, वहीं प्रेमी जी ने मध्यकालीन इतिहास की घटनाओं को आधार बनाकर सांप्रदायिक कटुता को समाप्त करने का प्रयत्न किया है। हरिकृष्ण प्रेमी के प्रमुख नाटकों में ‘स्वर्ण विहान’ (1930), ‘रक्षाबंधन’ (1934), पाताल विजय (1936), प्रतिशोध (1937), ‘शिवसाधना’ (1937), प्रमुख हैं। प्रसाद के युग में ही समस्या मूलक नाटकों के प्रयोग भी हुए और प्रसाद की प्रक्रिया स्वरूप समाज की समस्याओं पर प्रहार करने वाला लक्ष्मीनारायण मिश्र एक नये प्रयोग के साथ सामने आये। यद्यपि प्रसादोत्तर युग में उन्होंने ऐतिहासिक कथाकारों को आधार बनाया परन्तु प्रसाद के युग तथा मिश्र जी ऐतिहासिक नाटकों के कटु आलोचक बने रहे। परंतु

लक्ष्मीनारायण मिश्र ने छः समस्या मूलक नाटकों का प्रणयन किया है- संन्यासी, राक्षस का मंदिर, मुक्ति का रहस्य, राजयोग, सिंदूर की होली और आधी रात इन नाटकों की मूल प्रवृत्ति काम-समस्या है। स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम की वासना की जो व्याप्ति लक्षित होती है, मिश्र जी ने उसी का चित्रण किया है और इसके लिए सह-शिक्षा को दोषी ठहराया है। हिंदी के अन्य समस्यामूलक नाटककारों में भी नारी-समस्या का ही चित्रण मूलरूप से हुआ है। पृथ्वीनाय शर्मा कृत दुविधा, साध उदयशंकर भट्ट कृत कमला आदि में प्रेम, विवाह और सेक्स का ही प्रश्न उठाया गया। किंतु सेठ गोविंददास ने ‘सिद्धांत स्वातन्त्रय’, सेवापथ, ‘त्याग का ग्रहण’ ‘पाकिस्तान, ‘गरीबी और अमीरी’ जैसे नाटकों में राजनीतिक समस्याओं को भी प्रस्तुत किया है। समस्या नाटकों में सत्येंद्रनाथ अश्क तथा नरेश मेहता का भी उल्लेखनीय स्थान है किंतु अश्क जी भी स्त्री समस्याओं को ही विशेष महत्व देते रहे हैं। हिंदी के आधुनिक समस्यास नाटककारों में विष्णु प्रभाकर, डॉ0 लक्ष्मीनारायण लाल, कृष्ण किशोर श्रीवास्तव, चिरंजीत, मन्त्रूभंडारी का भी उल्लेख किया जा सकता है परंतु इन नाटककारों ने समाज की व्यापक समस्याओं को न प्रस्तुत कर नारी-पुरुष के वैयक्तिक संबंधों को ही प्रस्तुत किया युग चरित्र की सर्जना संभव नहीं हुई है।

प्रसाद के पश्चात् हिंदी नाटकों की ऐतिहासिक कथाभूमि पर भी अनेक नाटककारों ने ध्यान केंद्रित किया है। ऐतिहासिक दृष्टि को प्रस्तुत करने वाले नाटकों के दो रूप मिलते हैं- (1) ऐतिहासिक सांस्कृतिक और (2) ऐतिहासिक राष्ट्रीय।

सांस्कृतिक चेतना के अनुप्राणिक ऐतिहासिक नाटकों पर प्रसाद का प्रभाव पड़ा है तथा ऐसे कथानक भारत के स्वर्णिम अतीत से लिए गये हैं जबकि राष्ट्रीय चेतना से संबद्ध नाटकों की कथावस्तु भारत के मध्यकालीन इतिहास से संबद्ध है। हिंदी के सांस्कृतिक नाटककारों में चंद्रगुप्त विद्यालंकार, सेठ गोविंददास, उदयशंकर भट्ट, गोविंद बल्लभ पंत, लक्ष्मी नारायण मिश्र, वृंदावनलाल वर्मा का प्रमुख स्थान है जबकि राष्ट्रीय चेतना के ऐतिहासिक राष्ट्रीय नाटकों में देश प्रेम, त्याग, बलिदान की भावना ही व्यक्त हुई। देश-प्रेम के नाटकों का दूसरा युग स्वाधीनता के पश्चात् आरंभ होता है जिसमें नाटककार अतीत से हटकर वर्तमान में शौर्य एवं पराक्रम को कथा का केंद्र बनाता है। ऐसे नाटककारों में शिवप्रसाद सिंह कृत ‘घंटियाँ गूंजती’ है, चिरंजीत कृत ‘तस्वीर उसकी’ उल्लेखनीय है। इसी परंपरा में भारतीय इतिहास के कतिपय महत्वपूर्ण व्यक्तियों के जीवन से संबद्ध नाटकों का उल्लेख भी किया जा सकता है। इन जीवनोपरक नाटकों में सेठ गोविंददास कृत भारतेंदु, रहीम तथा महात्मा गाँधी लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत ‘मृत्युञ्जय’, मोहन राकेश कृत ‘आषाढ़ का एक दिन’ प्रमुख है। मोहनराकेश कृत ‘आषाढ़ का एक दिन’ हिंदी नाटकों के क्षेत्र में एक नया प्रयोग है। यह नाटक त्रासद होते हुए भी प्रेम की उदात्तता एवं भावुकता का प्रतीक है।

स्वतंत्रता के पश्चात देश के विकास के साथ अनेक परिवर्तन हुए। आकाशवाणी के प्रसार के कारण रंगमंच का स्थान ध्वनि ने ले लिया तथा नाट्य दृश्य तो रहे ही श्रव्य होकर भी प्रभविष्णु हो गये। श्रव्य नाटकों का प्रसारण रेडियो के माध्यम से होने लगा। रेडियो नाटकों के विकास के साथ नाट्यशिल्प में भी व्यापक परिवर्तन हुआ है तथा स्वगतकथन, संगीत, संक्षिप्तता एवं मनोवैज्ञानिकता का प्रभाव नाटकों में बढ़ा है। इसी प्रकार दृश्य न होने के कारण घटनाओं की अपेक्षा संवादों को भी अधिक महत्व दिया जाने लगा है। हिंदी के प्रमुख रेडियो नाटककारों में रामकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट, लक्ष्मीनारायण मिश्र, सुमित्रानंदन पंत, जगदीश चंद्र माथुर, प्रभाकर माचवे, सत्येंद्र शरत्, वृहस्पति, लक्ष्मीनारायण पाल, विश्वंभर मानव और लक्ष्मीकांत वर्मा उल्लेखनीय हैं।

हिंदी नाटक अद्यावधि अपनी अन्यतम उपलब्धियों के कारण हिंदी साहित्य की श्रेष्ठ और लोकप्रिय विद्या के रूप में प्रतिष्ठित है। नये हिंदी नाटककारों ने भी प्रयोगों की दृष्टि से उल्लेखनीय कार्य किये हैं। इधर लोकनाट्यों की विशेषताओं को नाट्य रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास भी कतिपय लेखकों ने किया है इस दृष्टि से सर्वेश्वरदयाल सक्सेना कृत ‘बकरी’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिंदी के नये नाटककारों में मुद्रा राक्षस, गिरिराज किशोर, सर्वेश्वर प्रयोगधर्मी सशक्त नाटककार है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि वस्तु और शिल्प की दृष्टि से नाट्य साहित्य अत्यधिक विकसित हुआ है।

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Pankaja Singh

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