हिंदी साहित्य का इतिहास

आचार्य वाजपेयी के समीक्षा सिद्धान्त | वाजपेयी जी की दृष्टि में साहित्य का स्वरूप | वाजपेयी जी का भाषा विषयक दृष्टिकोण

आचार्य वाजपेयी के समीक्षा सिद्धान्त | वाजपेयी जी की दृष्टि में साहित्य का स्वरूप | वाजपेयी जी का भाषा विषयक दृष्टिकोण

आचार्य वाजपेयी के समीक्षा सिद्धान्त

हिन्दी में शुक्ल जी ने जिस गम्भीर समीक्षा कर्म की आधारशिला रखी, उसे पुष्ट करने तथा उसे आगे बढ़ाने का काम जिन समीक्षकों ने किया उनमें नन्द दुलारे वाजपेयी का नाम सबसे महत्वपूर्ण है। हिन्दी समीक्षा क्षेत्र में शुक्ल जी के पश्चात् वाजपेयी जी प्रखर समीक्षा दृष्टि के साथ अवतरित हुए जिन्होंने अपनी मौलिक मान्यताओं का प्रतिपादन अपने व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी ग्रन्थों में किया है। वस्तुतः वाजपेयी जी ने सैद्धान्तिक समीक्षा से सम्बन्ध किसी शास्त्रीय ग्रन्थ की रचना नहीं की, किन्तु उनकी व्यावहारिक आलोचनाओं में उनके समीक्षा सिद्धान्त सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। वाजपेयी जी हिन्दी के पुरानी पीढ़ी के आलोचक हैं जिन्होंने नये साहित्य को मान्यता दी है, इस प्रकार उनकी समीक्षा-दृष्टि बहुत व्यापक हैं। अब हम उनके विभिन्न काव्य सिद्धान्तों पर विचार करते हैं।

रस सम्बन्धी चिन्तन- आचार्य वाजपेयी जी को भारतीय रसवाद का सिद्धान्त मान्य है, पर उन्होंने रस सिद्धान्त की व्याख्या प्राचीन शास्त्रीय ढंग से नहीं की है। उस पर पाश्चात्य काव्यशास्त्र का पर्याप्त प्रभाव है। अतः रस संबंधी उनकी व्याख्या अपने ही ढंग की है। वे काव्य में हृदय स्पर्शिता तथा आह्लाद को प्रधान मानते हैं। वे रस को काव्य की आधार वस्तु तो मानते हैं, पर उन्हें रस का ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ अथवा अलौकिक रूप स्वीकार्य नहीं है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि – “रसानुभूति सम्बन्धी अलौकिकता के पाखण्ड से काव्य का अनिष्ट हुआ है। उनकी यह भी मान्यता है कि रस को इतने व्यापक ढंग से विश्लेषित किया जाना चाहिए कि वह काव्य का मापदण्ड बन सके। यह तभी सम्भव है जबकि हम उसकी व्याख्या पाश्चात्य समीक्षा सिद्धान्तों के आलोक में करें। डॉ0 भगवत स्वरूप मिश्र ने उनके रस सम्बन्धी दृष्टिकोणों को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “रस को वैद्यान्तर- संस्पर्श शून्यत्व और ब्रह्मानन्द सहोदर आदि विशेषणों द्वारा प्राप्त सीमित अर्थ में युक्त करके उसे केवल आह्लादकता का सूचक मानकर भाव, रसभाव, अलंकार, ध्वनि, वस्तु ध्वनि, आदि सबके आनन्द का प्रतीक मानना और कलामात्र के आनन्द को रस नाम से अभिहित करना है। रस की परिधि को इन विशेषणों से संकुचित करके बहुत सा साहित्य उपेक्षित हुआ है।

उनके रस सम्बन्धी दृष्टिकोण से स्पष्ट है कि वे अभिव्यंजनावादी नहीं हैं। वे काव्य में अनुभूति की तीव्रता को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं। उन्हें ऐसी अभिव्यक्ति ही मान्य है जिनमें अनुभूति की तीव्रता तथा हृदयस्पर्शिता का सामंजस्य हो। इसलिए रस को वाजपेयी जी ने एक उदात्त और व्यापक भूमि पर प्रतिष्ठित किया है। रस की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है, “जब हम कहते हैं कि रस काव्य की आत्मा है, तब हमारा आशय यह होता है कि प्रत्येक काव्य में यदि वह वस्तुतः काव्य है, मानव समाज के लिए आह्लादकारिणी, भावात्मक, नैतिक और बौद्धिक अनुभूतियों का संकलन होगा ही।

रस की उक्त व्याख्या मानवतावादी है तथा वाजपेयी जी जीवन के शाश्वत मूल्यों को मानवतावाद कह कर पुकारते हैं तथा उनकी रससिद्धान्त सम्बन्धी व्याख्या उस युग-युगीन सार्वभौमिक मानवतावाद पर आधारित है जिसमें नीति, भावना और दर्शन का समन्वय होता है। अपनी विशिष्ट प्रतिभा के बल पर वाजपेयी जी ने रस पर व्यापकता से विचार किया है।

आचार्य वाजपेयी रस सिद्धान्त के अन्तर्गत साधारणीकरण के सिद्धान्त पर भी विचार किया है तथा उनकी दृष्टि में साधारणीकरण कवि की अनुभूतियों का होता है। इस बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है, “साधारणीकरण का अर्थ रचयिता और उपभोक्ता (कवि और दर्शक) साधारणीकरण वास्तव में कवि कल्पित समस्त व्यापार का होता है। इससे स्पष्ट है कि रस विषयक चिन्तन में वाजपेयी जी पर्याप्त स्पष्ट रहे हैं।

वाजपेयी जी की दृष्टि में साहित्य का स्वरूप

वाजपेयी जी साहित्य को जीवन के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते हैं, इसलिए वे कहते हैं, “साहित्य से हमारा आशय उन विशिष्ट और प्रतिनिधि रचनाओं से है जो किसी युग के भावात्मक जीवन का प्रतिमान होती है जो समाज और सामाजिक जीवन की भली बुरी दिशा में ले जाने की सामर्थ्य रखती है। लेकिन वाजपेयी जी काव्य का मूल्यस्वरूप भावात्यक मानते हैं तथा उसमें अनुभूति की तीव्रता का हृदय स्पर्शिता को प्रमुख स्थान देते हैं। इस दृष्टि से उनके ये विचार द्रष्टव्य हैं, “काव्य का क्षेत्र भावों का क्रीड़ा भूमि है, कविता के इस मूल स्वरूप को हम सभी स्वीकार करते हैं। यह तो काव्य, कलाओं की पहली कोटि है, जिसके अभाव में उनका अस्तित्व ही असम्भव है।

वाजपेयी जी काव्य में मानव जगत और मानव वृत्तियों की अभिव्यक्ति आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में ये चीजें तो अभिव्यंजना से भी ज्यादा महत्व रखती हैं, तभी वे कहते हैं, “काव्य अथवा कला का सम्पूर्ण सौन्दर्य अभिव्यंजना ही नहीं है। अभिव्यंजना काव्य नहीं है। काव्य अभिव्यंजना से उच्चतर तत्व है। उनका सीधा सम्बन्ध मानव जगत और मानस वृत्तियों से है, जबकि अभिव्यंजना का संबंध केवल सौन्दर्य प्रकाशन से है।

काव्य का प्रयोजन- यों तो आचार्य वाजपेयी जी तो काव्य का लक्ष्य रसानुभूति ही स्वीकार करते हैं तभी तो वे कहते हैं, ‘रुपया सौन्दर्य की सृष्टि द्वारा उच्च कोटि के लौकिक या अलौकिक आनन्द का उद्रेक ही साहित्य या कलाओं का लक्ष्य है। किन्तु वाजपेयी जी काव्य का लक्ष्य केवल इतना भर ही नहीं मानते। वे काव्य को जीवन की प्रेरणा, सांस्कृतिक चेतना और भावनाओं के परिष्कार की शक्ति स्वीकार करते हैं। यद्यपि वे काव्य में नीतिवादी सिद्धान्त के हिमायती नहीं हैं पर काव्य पर नैतिक आदर्शों का नियन्त्रण परोक्ष रूप से ही मानते हैं। उनकी दृष्टि में काव्य का योजन तो वृहत्तर जीवन मूल्यों को रेखांकित करना है पर धर्मशास्त्र का सीमित आधार उन्हें स्वीकार नहीं है। अतः वे कहते हैं, “महान कला कभी अश्लील नहीं हो सकती है। उसके बाहरी स्वरूप में यदा-कदा शीलता-अश्लीलता सम्बन्धी रूढ़ आदर्शों का क्रम भले ही हो और भक्तिकाल में ऐसा भी हो जाता है। पर वास्तविक अश्लीलता, अमर्यादा या मानसिक स्खलन उसमें नहीं हो सकता है। साहित्य सदैव सवल सृष्टि का हिमायती होता है।

वाजपेयी जी और अलंकार- वाजपेयी जी काव्य में अलंकारों को रस सिद्धि का साधन मात्र मानते हैं। डॉ० भगवत स्वरूप मिश्र की दृष्टि में वाजपेयी जी अलंकार को शब्द भमियान मानकर बन्धे प्रकार मानते हैं। किन्तु अलंकारों की सत्ता तो काव्य में वैसी ही होती है, जैसे दूध में पानी, इसलिए वाजपेयी जी कहते हैं, “कविता अपने उच्चतर स्तर को पहुँच कर अलंकार विहीन हो जाती है। वहाँ पर वेगवती नदी की भाँति हाहाकार करती हुई हृदय को स्तम्भित कर देती है। उस समय उसके प्रवाह में अलंकार, ध्वनि, वक्रोक्ति, आदि न जाने कहाँ बह जाते हैं और सारे सम्प्रदाय न जाने कहाँ मटियामेट हो जाते हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि वाजपेयी जी काव्य के कलापक्ष से ज्यादा महत्व उसके भावपक्ष को देते हैं।

काव्य के तत्व और वाजपेयी जी – जय शंकर प्रसाद की आलोचना लिखते हुए वाजपेयी जी ने लिखा है कि, “जीवन सन्देश के साथ ही उदात्त भाव और ललित कल्पनायें भी साहित्य के आवश्यक तत्व है। इसका अर्थ है कि उनकी दृष्टि में काव्य और साहित्य के प्रमुख तत्व तीन हैं।

जीव सन्देश, उदात्त भाव तथा ललित कल्पना कल्पना उनकी दृष्टि में अभिव्यक्ति का माध्यम है, भावाश्रित तथा अनुभूति प्रेरित है। वाजपेयी जी मानते हैं कि कल्पना का मूल जोर अनुभूति है तथा काव्य में उसकी परिणति अभिव्यंजना में होती है।

वाजपेयी जी का भाषा विषयक दृष्टिकोण

भाषा काव्य में भावाभिव्यक्ति का माध्यम है तथा उनकी सार्थकता उसी में है कि वह पाठकों पर इच्छित प्रभाव छोड़े। उन्होंने भाषा की विशेषताएँ बताते हुए लिखा है कि “पदों का सुन्दर प्रयोग वह है जो संगीत (उच्चारण) व्याकरण, कोष आदि सबसे अनुमोदित हो और सबकी सहायता से संगठित हो, जिसके ध्वनि मात्र से अनुरूप चित्रात्मकता प्रकट हो और जो वाक्य विन्यास का प्रकृति अभिन्न अंग बनकर वहीं निवास करने लगे।

भाषा की शक्ति पर विचार करते हुए वाजपेयी जी ऐसी भाषा के प्रयोग को महत्व देते हैं। जिसमें व्यंजना का प्रभाव हो। अभिधात्मक व लक्षणात्मक प्रयोग उनकी दृष्टि में उच्च काव्य की सृष्टि नहीं करते।

वाजपेयी तथा समीक्षा कर्म- बाजपेयी जी सौष्ठववादी समीक्षक थे। उनकी दृष्टि में सौष्ठववादी समीक्षक वही है जो काव्य में भावों के उदात्त, सार्वजनिक और उनकी साहित्यिक मार्मिकता के दर्शन कर लेता है। इस दृष्टि से उनकी दृष्टि में “काव्य शास्त्र के तत्वों से ऊपर उठकर सौन्दर्य का उद्घाटन ही उनकी दृष्टि से आलोचक का प्रधान कार्य है। उन्होंने काव्य की समीक्षा के मापदण्ड के रूप में भावना का उद्रेक ‘उच्छ्वास’ परिष्कृत और ‘प्रेरकता’ को महत्वपूर्ण माना है।

वाजपेयी जी की दृष्टि में सच्ची समीक्षा कतिपय विशिष्ट बातों पर निर्भर करती है। वाजपेयी जी ने समीक्षा में जिन बातों पर विचार करना आवश्यक माना है, वे इस प्रकार हैं। ये बातें समीक्षक की समीक्षा पद्धति और उसके समीक्षा कर्म को वैशिष्टय प्रदान करती है –

  1. रचना में कवि की अन्तर्वृत्तियों का अध्ययन आवश्यक होता है।
  2. रचना में कवि की मौलिकता, शक्तिमता और सृजन के, कलात्मक सौष्ठव का अध्ययन अनिवार्यतः अपेक्षित रहता है।
  3. रीतियों शैलियों और रचना के बाह्यांगों का अध्ययन समीक्षा में न केवल अनिवार्य है, अपितु अवश्य करणीय कम है।
  4. समय और समाज तथा उसकी प्रेरणाओं का अध्ययन भी आवश्यक होता है।
  5. कवि के मानस का विश्लेषण समीक्षा का अपरिहार्य तत्व होता है।
  6. कवि की विचारधारा का अध्ययन भी समीक्षक कर्म के अन्तर्गत ही परिगणित होता है।
  7. काव्य में जीवन सम्बन्धी सामंजस्य और सन्देश का अध्ययन करने से समीक्षा बलवती प्रभावी और भार्मिक बनती है।
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Pankaja Singh

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