आलोचना का अर्थ | आलोचना विज्ञान है या कला | आलोचना को विज्ञान न मानने के कारण

आलोचना का अर्थ | आलोचना विज्ञान है या कला | आलोचना को विज्ञान न मानने के कारण

आलोचना का अर्थ

आलोचना का सीधा सरल अर्थ है- “किसी कृति की गुण-दोष युक्त विवेचना प्रस्तुत  करना। जो लोग आलोचना का अर्थ मात्र दोष निकालना समझते हैं वे भ्रम के शिकार हैं और ‘साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्ति नहीं माने जा सकते हैं। सम्भवतः ऐसे ही व्यक्तियों के प्रम के कारण आलोचना के स्थान पर समालोचन शब्द व्यवहत हुआ। हमारी राय में आलोचना का कार्य सरल नहीं है और वह भी साहित्यिक साधना के समान ही महत्व रखती है। जिस प्रकार कोई सृजक, ध्यानस्थ होकर एकांतिक क्षणों में साहित्यिक सृजन करता है, उसी तरह आलोचक भी वैसी ही साधना करता है। ऐसी स्थिति के कारण ही यह कहा जाता है कि आलोचना साहित्यिक साधना है। उसे व्यवसाय वा विज्ञापन समझना भूल है, जो लोग आलोचना को व्यवसाय और विज्ञापन मानते  हैं वे सच्चे साहित्यकार नहीं हैं।

मार्मिकता और अभिव्यंजना – आलोचना साहित्यिक साधना है। ऐसे मानने के कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि साहित्यिक साधना करने वाला व्यक्ति, कल्पना, कला और बुद्धि सभी का समुचित प्रयोग करता है। उनके समुचित उपयोग के बिना आलोचना भी नहीं हो सकती है। डॉ0 नगेन्द्र ने इसलिए आलोचना को ललित साहित्य का अंग कहा है। ठीक भी है कि कलाकार ने जिस भावना और विचारणा से प्रेरित होकर लिखा है, उसी सीमा तक आलोचक भी यदि भावुक नहीं होगा, संवेदनशील नहीं होगा तो फिर वह कैसे समीक्षा कर पायेगा और जब ऐसा होगा तो फिर उसकी आलोचना मात्र व्यावसायिक और विज्ञापनी वृत्ति से प्रेरित होगी। अतः निर्णयात्मक स्वर में आलोचना साहित्य का अंग है- साहित्यिक संसाधना है। जब वह साहित्यिक साधना है तो स्वतः ही यह भी प्रमाणित हो जाता है कि वह कला है।

व्यवसाय मानना अनुचित – आलोचना को व्यवसाय मानना अनुचित है। कारण उसे व्यवसाय या विज्ञापन तक सीमित करने का अर्थ है कला तत्व की अस्वीकृति। जो लोग आलोचना को विज्ञापन या व्यवसाय से जोड़ते हैं तो वे लोग हैं जो आलोचना का अर्थ मात्र दोषनिर्धारण समझते हैं। दोष निकालने अथवा व्यवसाय करने में बुद्धि की आवश्यकता अधिक पड़ती है। इस स्थिति में यदि आलोचना आ जाये तो वह बहुत कुछ विज्ञान के निकट पहुँच जाती है जो कोरे बुद्धिवाद से प्रेरित होकर लिखी जाती है। यह ठीक है कि आलोचना में भी विज्ञान के तत्व सम्मिलित रहते हैं और मनुष्य की व्यावसायिकता बुद्ध-कार्यरता रहती है, किन्तु सीमा तक इसका अतिरेक वहाँ नहीं होता। अतः यही कहना उपयुक्त है कि आलोचना साहित्यिक साधना है-कला है, विज्ञानवाद से प्रेरित व्यवसाय नहीं है। यों भी आलोचक बनने के लिए सहृदयता, प्रतिभा, अन्तर्दृष्टि विषयबोध, सहानुभूति और सरल व्यक्तित्व अपेक्षित होता है। ऐसी स्थिति में आलोचना व्यवसाय कैसे हो सकती है। इसी से यह प्रश्न भी जुड़ा हुआ है कि आलोचना विज्ञान है या कला। आलोचना कला है या विज्ञान यह प्रश्न नया नहीं है। आलोचना का स्वरूप व महत्व प्रतिपादित करते समय इस प्रश्न का समाधान आज की आवश्यकता है। आलोचना मूल्यांकन का कार्य है निष्पक्ष विवेचना। विवेचना करना एक बात है और निष्पक्ष निर्णयात्मक विवेचना करना उससे भी बड़ी बात है। सामान्यतः आलोचना को साहित्य का अंग माना जाता है। जब इसे साहित्य का अंग मान लेते हैं तो इसको विज्ञापन की कोटि में रखते हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं-

  1. विज्ञान परीक्षण सिद्ध तथ्यों का निष्पक्ष विवेचन व समर्थक होता है। वह प्रयोग व परीक्षण के बिना किसी भी कथन को स्वीकार नहीं करता है।
  2. विज्ञान तर्काश्रित है। उसमें विकल्प की गुंजाइश ही नहीं है। आलोचना भी तर्कभाव में सम्भव नहीं हैं तथा संकल्पित प्रज्ञा का परिणाम है, इन कारणों से विद्वानों ने आलोचना कार्य को भी विज्ञान से जोड़ दिया है। इस दृष्टि से तो आलोचना और विज्ञान मानना उचित ही प्रतीत होता है।

लेकिन बात यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती है। कारण, आलोचना केवल निर्णय नहीं है। यह विषय की व्याख्या भी है और उसको सही रूप में प्रदान करने की कला भी है। विज्ञान का सम्बन्ध तो मात्र तर्क व परीक्षण से ही है। जबकि आलोचना का सम्बन्ध तर्काश्रित होकर भी भावना से बराबर बना रहता है। साहित्य जीवन की व्याख्या है और आलोचना जब तो व्याख्या ही व्याख्या हो जाती है, व्याख्या में मात्र निर्णयों से काम नहीं चलता है। उसमें निर्णयों तक पहुँचने से पूर्व विषय को समझना पड़ता है। कलाकार या रचनाकार के मानस से उद्भव वस्तु को हृदयंगम करना पड़ता है। इसी भूमिका पर आलोचना साहित्य की श्रेणी में आ जाती है। आलोचना का इस श्रेणी में आ जाना ही इस बात का प्रमाण है कि वह कला है- साहित्य का ललित और आकर्षण अंग है, विज्ञान नहीं है।

आलोचना को विज्ञान न मानने के कारण

विज्ञान पूरी तरह तथ्यों पर आधारित होता है। वह तथ्यों और प्रयोगों के बिना एक कदम भी नहीं चल सकता है। तथ्यान्वेषण और उसका प्रमाणीकरण विज्ञान का कार्य है, उसकी प्रमाणशक्ति है। साहित्य में तथ्य की अपेक्षा सत्य और सत्यान्वेषण का महत्व होता है। यों भी विज्ञान और साहित्य के सत्य में अन्तर है-

  1. विज्ञान की प्रकृति विश्लेषणात्मक और आपरेटिव होती है। तब हर वस्तु को तार-तार करके देखता है जबकि साहित्य और साहित्यकार की प्रकृति संश्लेषणात्मक होती है। वह बिखरे हुए तत्वों में विश्लेषण करता है।

आलोचना भी संश्लेषण ही करती है। विश्लेषण तो उसकी विधि है जिसके द्वारा वह संश्लेषण तक की यात्रा करती है। अतः आलोचना विज्ञान नहीं हो सकती।

  1. विज्ञान प्रयोगों से परिणामों को प्राप्त करता है और साहित्य परिणामों से प्रयोगों तक का अनुसंधान करता है। आलोचना भी साहित्य में प्रस्तुत परिणामों के सहारे ही सत्यान्वेषण का कार्य करती है। अतः वह विज्ञान नहीं है।
  2. आलोचना सहृदयता की अपेक्षा करती है और विज्ञान सहृदय व कारुणिक होकर असफल हो जाती है। यदि आलोचना सहृदय नहीं है तो वह ईमानदार नहीं हो सकती है। इसलिए उसे रसग्राही होना पड़ता है।
  3. आलोचना व्यापार में कवि-व्यापार भी शामिल है विज्ञान में यह बात नहीं है। यदि आलोचना कवि के मानस और उसमें तरंगित विचारों, भावों और अनुभूतियों के साथ तादात्म्य नहीं करता है तो वह वर्ण्य-विषय का हृदयंगम ही नहीं कर पायेगा। फिर हृदयंगम कसा और तब विषां का पुनः सृजन कैसे सम्भव होगा। स्पष्ट ही आलोचक को पुनः सृजना करना पड़ता है। अतः उसकी आलोचना विज्ञान नहीं हो सकती है।
  4. रसास्वादन किये बिना आलोचना नहीं हो सकती है। विज्ञान की स्थिति अवश्य सम्भव है ‘प्रतिमा’ शब्द में ही सहृदयता और भावुकता का समावेश रहता है। कारण नवनवोन्मेषशालिनी होती है। यही प्रतिमा आलोचक का प्रथम गुण होता है। ऐसी स्थिति में आलोचना के विज्ञान होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
  5. कविता नाटक और उपन्यास की भाँति आलोचना भी सृजनात्मक से युक्त रहती है। कवि यदि रमणीय अनुभूतियों के माध्यम से आत्माभिव्यक्ति करता है तो आलोचक कवि की इस आत्माभिव्यक्ति के आख्यान के माध्यम से ऐसी स्थिति में आलोचना साहित्य का ही अंग है, विज्ञान का नहीं।

सम्भवतः इसी कारण डॉ० नगेन्द्र ने आलोचना का अन्तःस्वरूप विश्लेषित करते समय उसे ललित साहित्य का अंग माना है। उनके ही शब्दों में- “आलोचना की आत्मा कलामय” है किन्तु इसकी शरीर रचना वैज्ञानिक है। आत्मा के कलात्मक होने का अर्थ है कि आलोचना भी मूलतः आत्माभिव्यक्ति ही है। आलोचना का विषय रसात्मकता होता है और उसकी परिणति भी आत्म सिद्धि में ही है। अतः रस का अभिषेक आलोचना में रहता है। शरीर के वैज्ञानिक होने का अर्थ यह है कि उसमें ‘विज्ञान’ के नियमों का प्रयोग करना पड़ता है। विश्लेषण, तर्क के तटस्थता और प्रयोग सिद्ध आलोचना के बाहरी शरीर के लिए आवश्यक है। ऐसी स्थिति में आलोचना को कला माना जा सकता है, विज्ञान नहीं। विज्ञान बनकर आलोचना शुष्क, नीरस और अव्यावहारिक हो जाती है।

इसको भुलाकर आलोचना अपना काम नहीं चला सकती विज्ञान चला सकता है। अधिक से अधिक आलोचना वैज्ञानिक हो सकती है। ऐसा होना इसके लिए जरूरी भी है। प्रकृति से आलोचना का वैज्ञानिक होना आवश्यक है और आन्तरिक प्रकृति के अनुसार उसका रसात्मक होना अनिवार्य है। ऐसी स्थिति में आलोचना को कला ही कहा जा सकता है विज्ञान नहीं विज्ञान बोध पाकर आलोचक सटीक, तार्किक और अच्छा विश्लेषक हो सकता है, किन्तु सहृदय एवं रसग्राही होना सम्भव नहीं है। रसग्राही हुए बिना आलोचक साहित्य में गर्भ का उद्घाटन नहीं कर सकता है। कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि आलोचना मार्मिक अभिव्यंजना है, कला है, विज्ञान नहीं। उसकी अन्तः प्रकृति रस निरूपिणी है।

यद्यपि यह सही है कि वैज्ञानिक के लिए जिस वस्तुनिष्ठ दृष्टि व्यवस्थित तर्क सम्मत विवेचन तथा नियम स्थापना की आवश्यकता पड़ती है और ये आवश्यकतायें समालोचक के लिए भी अपरिहार्य है। वैज्ञानिक की भाँति ही आलोचक को विज्ञान के निकट ले जाती है। इतने पर भी स्मरणीय तथ्य यह है कि आलोचना यह सब होकर रसग्रहिता व मर्मोद्घाटन क्षमता को लेकर व्यर्थ हो जाती है। आलोचक कृति की व्याख्या करके उसके सौन्दर्य के उद्घाटन द्वारा काव्यगत रस को सहृदय तक प्रेषित करता है। वह एक सहृदय पाठक है, ज्ञानवर्धक और विश्लेषण तो बाद में आते हैं। पहले तो आलोचक को भी भाव रस-मीमांसा और साहित्य के मर्म से जूझना पड़ता है अर्थात् उसे हृदयगंम करना पड़ता है। ऐसा करना इसलिए आवश्यक है कि इसे किये बिना आलोचक कर्म सही ढंग से निभाना कठिन है। आलोचक को सही अर्थ में पहले रसज्ञ पाठक बनना पड़ता है। अतः निश्चय ही आलोचना कला है, विज्ञान नहीं है। अधिक से अधिक यह कह सकते हैं कि उसकी शैली वैज्ञानिक है, लक्ष्य तो साहित्य का आस्वादन और अभिव्यंजन ही है, अतः आलोचना कला है भले ही वह अपनी प्रकृति में वैज्ञानिक क्यों न हो।

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