हिंदी साहित्य का इतिहास

भारतीय आलोचना पद्धति

भारतीय आलोचना पद्धति

भारतीय आलोचना पद्धति

भारतीय आलोचना पद्धति की प्रमुख विशेषता, वस्तु (तथ्य, सिद्धान्त और जीवन) को पूर्णता प्रदान करने का प्रयास है और इस प्रयास में आलोचक को अपने निजी व्यक्तित्व को प्रकट नहीं करना चाहिए। उसकी शैली या विचार पद्धति से चाहे वह भले ही प्रकट हो जाये अथवा अन्य मनीषियों के विचारों से भेद करने के लिए उसे प्रकट करना पड़े और इस दिशा में भी पूर्ववर्ती विचारों और आलोचकों की देन और प्रगति को स्वीकार और प्रकट करते हुए ही वह आगे बढ़ना चाहते हैं। इस बात को प्रमाणित करने के लिए केवल दो संस्कृताचायों की ओर संकेत कर देना ही पर्याप्त होगा। पहली कृति भरतमुनि कृत ‘नाट्य शास्त्र’ है जिसे हम नाटक पर लिखा गया सर्वप्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ मानते हैं। ये यदि चाहते हैं तो बड़ी सरलता से अपने ग्रन्थ में अपने सर्वप्रथम इस विषय के लेखक होने का आभास दे सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसा न करके अपने पूर्ववर्ती नट सूत्रों के प्रणेताओं कृशाश्व और शिलालिन का उल्लेख कर दिया है। दूसरी कृति मम्मट कृत ‘काव्य प्रकाश’ है। उन्होंने भी रसानुभूति की प्रक्रिया के वर्णन में जो सूचना दी है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है और आज भी हम इस प्रक्रिया का अध्ययन करते समय भट्ट लोल्लट के ‘आरोपवाद’ शंकुक के ‘अनुमानवाद’ आदि के लिए मम्मट का काव्य प्रकाश ही देखते हैं और उसी सूचना को महत्वपूर्ण समझते हैं। इसके साथ ही साथ सूचनाएं, सूक्तियां और रचनायें ऐसी भी हैं, जिनके नाम आज तक अज्ञात हैं। इस आत्म गोपन की प्रकृति के दुष्परिणाम और सुपरिणाम दोनों ही हुए हैं। दुष्परिणाम तो यह हुआ कि हमें ऐतिहासिक तथ्य को जानने में कठिनाई होती है। इतना ही अत्यधिक आत्मगोपन के भाव ने बहुत से तथ्यों की जानकारी असम्भव कर दी है और आज की किसी शास्त्र या वस्तु का क्रमबद्ध भारतीय इतिहास लिखना दुष्कर कार्य हो गया है। परन्तु एक सुन्दर परिणाम यह हुआ कि आलोचना पद्धति या विचार पद्धति अपने व्यक्तिगत विज्ञापन की प्रवृत्ति के अभाव में पूर्ण सैद्धान्तिक बन गयी है। इस प्रकार निष्पक्ष तथ्य निरूपण और सैद्धान्तिकता भारतीय आलोचना पद्धति की पहली विशेषता है। इसका प्रमाण हमें केवल साहित्य के ही क्षेत्र में नहीं मिलता, जिससे कि नाट्यशास्त्र, काव्यालंकार, काव्य मीमांसा, ध्वन्यालोक, काव्य प्रकाश, साहित्य दर्पण आदि अनेक सैद्धान्तिक ग्रन्थ मिलते हैं। वरन अध्यात्म, दर्शन, समाज शास्त्र, नीति, वैद्यक, ज्योतिष, वास्तु स्थापत्य कला आदि पर लिखे गये विभिन्न आचार्यों के ग्रन्थों में भी यही विशेषता देखने को मिलती हैं।

भारतीय आलोचना पद्धति की दूसरी विशेषता यह है कि वह व्यक्ति प्रधान होकर विषय प्रधान है अर्थात् उसके द्वारा जिस दृष्टिकोण की अभिव्यंजना की गयी है वह वर्ण्य विषय के सूक्ष्म  और सप्रमाण विश्लेषण होने के कारण उस व्यक्ति तक ही सीमित रहने वाले विशेष भाव के रूप में नहीं, वरन् वास्तव में अन्य बहुतों का दृष्टिकोण बन जाती है। विषय प्रधान होने के कारण जैसा अनुभव एक पूर्ववर्ती आलोचक का है वैसा ही परवर्ती दूसरे आलोचक का भी हो सकता है। इस पद्धति का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि परवर्ती आलोचकों के द्वारा पूर्ववर्ती आचार्यों के मत की अपूर्णता दूर करके उस विशिष्ट सिद्धान्त का सर्वांगीण रूप सामने रखने का प्रयत्न निर्वाध चलता रहा।

इस बात को प्रकट करने में भारतीय आलोचना पद्धति की एक तीसरी विशेषता भी स्पष्ट होती है। वह यह कि भारतीय आलोचक पूर्ववर्ती आचार्यों के विचारों का ध्यानपूर्वक तटस्थ भाव से अध्ययन कर, फिर अपने विशिष्ट शिक्षा या संस्कार वश पड़े प्रभावों के आधार पर किसी सिद्धान्त को बढ़ाने का प्रयत्न करता है और इस प्रकार चिन्तन शृंखला में बराबर आगे अपनी कड़ियां जोड़ता चलता है। वास्तव में हमारी आज की वैज्ञानिक विकास पद्धति का भी यही क्रम है। तर्क द्वारा सिद्धान्त या तथ्य के असत्य पक्ष का खण्डन कर जिसे हम ठीक समझते हैं, उस अंश को आगे बढ़ाना हमारा कर्तव्य है। आलोचना और विशेष रूप से अलंकार शास्त्र के क्षेत्र में भारतीय आलोचकों ने यही किया है। यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा है तो भारतीय काव्यालोचना के क्षेत्र में विभिन्न काव्य सिद्धान्त क्यों उठ खड़े हुए हैं? वास्तव में बात यह है कि विश्व में परिव्याप्त अखण्ड सत्य के असंख्य पक्ष और रूप हैं और मेरा अपना व्यक्तिगत विचार है कि एक चिन्तनशील व्यक्ति जब तटस्थ रूप से तर्क पर आधारित सत्य का उद्घाटन करता है तो वह पूर्व-प्रकाशित सत्य का पूरक ही अधिक होता है। उससे नितान्त भित्र या विरोधी कोई तथ्य नहीं निकलता है। वे एक व्यापक सिद्धान्त के अंग बनते जाते हैं और सभी तथ्य मिलकर एक व्यापक सत्य के उद्घाटन में सफल होते हैं।

भारतीय आलोचना-पद्धति की चौथी विशेषता यह है कि वह अपने समस्त तथ्यान्वेषण को एक स्वतः सिद्ध, पूर्ण और व्यापक सत्य के साथ एक सूत्र में बाँधने का प्रयत्न करती है। अपने इस प्रयत्न में यह पद्धति सदैव तथ्यवादी नहीं रहती, वरन काल्पनिक हो जाती है। यह भी हमें मानना पड़ेगा और यही पाश्चात्य पद्धति से उसका प्रमुख भेद भी स्पष्ट हो जाता है जो हमारी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विभिन्नता के कारण है।

पाश्चात्य आलोचना पद्धति काव्य को जीवन की अनुकृति, आलोचना आदि के रूप में मानती है। इसमें यह स्पष्ट होता है कि यह विवेचना काव्य कर्ता की दृष्टि से विशेष है। काव्यकार की दृष्टि से कर्ता की व्यक्तिगत और परिस्थितियों कठिनाइयों को ध्यान में रखकर जो आलोचना आती है उसमें उसके प्रति सहानुभूति का भाव होने से वह अधिक यथार्थ और तथ्यवादी होती है पर सामाजिक दृष्टि वास्तविक आलोचक की दृष्टि है, जो कृतिविशेष की प्रशंसा उसके भीतर व्याप्त सौन्दर्य या आनन्द के तथ्यों के आधार पर करती है जिसका आदर्श उसके सामने आता है। इस प्रकार भारतीय आलोचना-पद्धति आदर्शात्मक है। पाश्चात्य आलोचना पद्धति जहाँ पर ऐतिहासिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आधारों को प्रमुख महत्व प्रदान करती हैं, वहाँ भारतीय आलोचना पद्धति प्रत्येक स्थिति में व्याप्त तथ्यों और सिद्धान्तों को। उसका आधार दार्शनिक अधिक है। इन तथ्यों और सिद्धान्तों के प्रकाश में व्यक्ति का अपना प्रयत्न केवल पूर्णता की ओर प्रयास है। परन्तु यहाँ पर हमें यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि ये दोनों पद्धतियों एक दूसरे की विरोधिनी नहीं वरनुपूरक हैं और आधुनिक युग में हमें पाश्चात्य पद्धतियों को सहर्ष अपनाते हुए भी भारतीय पद्धति को मूलाधार के रूप में ग्रहण करके चलना ही अधिक आवश्यक है।

ऐसी बात नहीं कि भारतीय समालोचना के भीतर कभी भी पाश्चात्य और पाश्चात्य समालोचना के भीतर कभी भी भारतीय दृष्टिकोण आया ही न हो। परन्तु प्रधानतया दोनों की निजी विशेषताएं इसी प्रकार की हैं। भारतीय आलोचना-पद्धति के भीतर खण्डन और मण्डन पद्धति पर पूर्ववर्ती सिद्धान्त को आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया गया है। इसमें कहीं-कहीं अपने मत का हठ है, पर सदा नहीं। अधिकांश में अपने मत का आग्रह न होकर उसमें तर्क और युक्तिपूर्वक प्रतिपादन ही देखने को मिलता है जो विषय प्रधान आलोचना के लिए नितान्त आवश्यक है।

उपर्युक्त विशेषताओं से युक्त भारतीय आलोचना-पद्धति विभिन्न रूपों में हमें देखने को मिलती है। सबसे महत्वपूर्ण रूप सूत्रमयी सैद्धान्तिक आलोचना का है। सैद्धान्तिक, सूत्र दो प्रकार के प्रयत्नों के फलस्वरूप लिखे गये। प्रथम काव्य की आत्मा को खोजने के और द्वितीय कवि शिक्षा की बातें लिखने के। बड़े-बड़े महत्वपूर्ण ग्रन्थों में दोनों ही प्रकार के सूत्र एक साथ भी मिलते हैं। काव्यात्मा की खोज करने वाले साहित्यालोचन के सैद्धान्तिक सूत्रग्रन्थों में प्रमुख नाट्यशास्त्र (भरत), काव्यालंकार (भामह), ध्वन्यालोक (आनन्दवर्धन), काव्यप्रकाश (मम्मट), साहित्यदर्पण (विश्वनाथ) आदि हैं। इनके भीतर काव्य-सौन्दर्य को स्पष्ट करते-करते यह भी आचार्यों द्वारा खोज निकाला गया है कि काव्य की आत्मा अलंकार वक्रोक्ति, रीति, ध्वनि अथवा रस है। इनके सिद्धान्त-ग्रन्थों में सूत्र रूप में आये इन्हीं कथनों को पूर्णतः स्पष्ट करने का प्रयत्न है और जैसा पहले कहा जा चुका है कि इन विचारकों ने पूर्ववर्ती सिद्धान्तों का खण्डन कर या तो अपना निजी सिद्धान्त खड़ा किया अथवा उसका ही अधिक स्पष्टीकरण किया है। काव्यात्मा से सम्बन्धित विभिन्न सम्प्रदायों के सिद्धान्त सूत्र इस प्रकार देखे जा सकते हैं-

अलंकार सम्प्रदाय-

  1. काव्यं ग्राह्मलंकारात्। सौन्दर्यमलंकारः (वामन ) ।
  2. काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते। (दंडी)।

रीति सम्प्रदाय – रीतिरात्मा काव्यस्य (वामन )

वक्रोक्ति सम्प्रदाय- वक्रोक्तिः काव्यजीवितम् (कुंटक)

ध्वनि सम्प्रदाय – काव्यस्मास्यात्मा ध्वनिः (आनन्दवर्धन)।

रस सम्प्रदाय- वाक्यं रसात्मकं काव्यम् (विश्वनाथ)

इस प्रकार की सैद्धान्तिक सूत्रमय आलोचना जो काव्यात्मा को खोजने के लिए की गयी, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है और ये सिद्धान्त पूर्णरूप प्रस्फुटित हुए हैं उस विशिष्ट भारतीय आलोचना पद्धति के द्वारा जिसमें पूर्ववर्ती सत्य-तथ्य को आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है।

सूत्रमयी सैद्धान्तिक आलोचना का दूसरा रूप हमें काव्यरूपों और कवि-शिक्षा के ग्रन्थों में मिलता है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है कि ये ग्रन्थ एकदम पूर्ववर्ती ग्रन्थों से अलग नहीं है, परन्तु इनमें जिस वृत्ति की अपेक्षा है, वह पहली से भिन्न है। इन ग्रन्थों में काव्य के विविध रूपों को देखकर उनके लक्षण निकालना, प्रयुक्त भाषा आदि के विषय में नियम निरूपित करना,, वर्ण्य-विषयों एवं वर्णन-परम्परा को समझना तथा काव्यदोषादि का निर्देश करना रहता है। इसमें सिद्धान्त निकालने का प्रयत्न उतना नहीं है, जितना निरूपण करने या लक्षण और रीति बताने का। इन दो प्रकार के प्रयत्नों से हम भेद करना चाहें तो कह सकते हैं कि प्रथम प्रकार का प्रयत्न काव्य- सैद्धान्तिक हैं और द्वितीय प्रकार का प्रयत्न काव्यशास्त्रीय काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में काव्य की रीति-नीति, सम्बन्धी बातें और सूचना ही रहती है सिद्धान्त निर्णय नहीं। काव्यादर्श, काव्य प्रकाश, साहित्यदर्पण, काव्य- कल्पलता- वृत्ति (अमर सिंह), अलंकारशेखर (केशव मिश्र) आदि ग्रन्थों में काव्यशास्त्रीय प्रयत्न ही प्रधान है। इस प्रकार भारतीय आलोचना पद्धति का यह रूप कितना महत्वपूर्ण है, यह अधिक कहने की आवश्यकता नहीं।

इसके उपरान्त आलोचना पद्धति के अन्य भेदों को स्पष्ट करते हुए यह कहा जा सकता है कि ये भेद अपना अलग-अलग स्वतन्त्र रूप नहीं रखते, वरन् उपर्युक्त आलोचना के रूप में ही इनका सम्बन्ध है, फिर भी चिरकाल से चलती आयी भारतीय परम्परा के भीतर इन रूपों का स्थान है। ये भेद प्रथम प्रकार की आलोचना पद्धति की व्याख्या रूप में हैं, अतः इन्हें हम व्याख्यात्मक आलोचना-पद्धति के विभिन्न रूप कह सकते हैं। इस व्याख्यात्मक आलोचना-पद्धति के प्रसंग में हमज्ञविभिन्न नाम सुनते हैं, जिनमें से कुछ अधिक प्रसिद्ध हैं- सूत्र, कारिका, फक्किका, वृत्ति, टिप्पणी, भाष्य, वार्तिक, वचनिक, टीका, व्याख्यान आदि। ये शब्द सामान्यतया एक-दूसरे के पर्याय रूप में भी प्रयुक्त किये जाते हैं, परन्तु इनके अर्थों और उद्देश्यों में परस्पर भेद है। उनकी व्याख्या इस प्रकार है-

सूत्र- किसी सिद्धान्त या नियम का अति संक्षेप में असन्दिग्ध कथन ‘सूत्र’ कहा जाता है। कहा भी गया है-

स्वल्पाक्षरमसन्दिग्धं साखद्विशतोमुखम् ।

अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥

इस प्रसंग में प्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र, वेदान्तसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिक-मीमांसा सूत्रादि दर्शन के क्षेत्र में है और काव्यालंकारसूत्र (वामन) नाट्यसूत्र (भरत), काव्यकल्पलता-सूत्र (अमरसिंह कृत) काव्य- प्रकाशसूत्र (मम्मट) आदि काव्य-क्षेत्र के कारिका भी सूत्र के समान ही सिद्धान्त कथन करती है, व्याख्या नहीं। परन्तु सूत्र जहाँ पर केवल कथनमात्र है कि कारिका पद्यमयी सूक्ति होती है और सुस्मरणीय भी, जैसे सांख्यकारिका, ध्वनिकारिका आदि। कारिका के समान ही दूसरा शब्द फक्किका है जो सिद्धान्तनिरूपण से सम्बन्ध रखता है। किसी तथ्य के तर्क संगत प्रतिपादन या स्पष्टीकरण की विशेष स्थिति फक्किका है।

वृत्ति- किसी सूत्र आदि को स्पष्ट करने वाली संक्षिप्त व्याख्या वृत्ति कहलाती है। सूत्रों को स्पष्ट करने के लिए स्वयं सूत्रकार के द्वारा अथवा अन्य किसी विद्वान के द्वारा वृत्तियां लिखी गयी हैं। कुछ प्रसिद्ध वृत्तियाँ है आनन्दवर्धन की ध्वनिकारिका पर वृत्ति, मम्मट की काव्य-प्रकाश पर वृत्ति, विश्वनाथ की न्यायसूत्रों पर वृत्ति, अमरचन्द्र यति की काव्य-कल्पलता-वृत्ति आदि।

टिप्पणी- किसी कथन चा व्याख्या के उपरान्त किसी अस्पष्ट अंश को स्पष्ट करने या उसे शुद्ध अथवा पुष्ट करने के लिए कोई सूचना या वक्तव्य, बाद में जोड़ने का कार्य टिप्पणी कहलाता है। आजकल पृष्ठ के अन्त में टिप्पणी देने की प्रथा है।

भाष्य- सूत्रार्थों की सूत्र में आये शब्दों और पदों की क्रमशः ऐसी व्याख्या जिसमें साथ-साथ अपने द्वारा प्रयुक्त पदों का भी, स्पष्टीकरण होता रहे, भाष्य कहलाता है- कहा है-

सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र पदैः सूत्रानि सूरभिः ।

स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः ॥

इस प्रकार ऊपर वर्णित व्याख्यात्मक आलोचना के प्रकारों में भाष्य सबसे महत्वपूर्ण है। कुछ भाष्य तो अति प्रसिद्ध हैं- जैसे पतन्जलि का महाभाष्य, शंकर का वेदान्त सूत्र पर भाष्य, सायणाचार्य का ऋग्वेद-संहिता पर भाष्य, वात्स्यायन का न्यायसूत्र पर भाष्य आदि।

वार्तिक- व्याख्यात्मक आलोचना के विविध प्रकारों में सर्वाधिक पूर्णरूप वर्तिक है इसके अन्तर्गत किसी भी सूत्र, सिद्धान्त तथ्य या नियम की इस प्रकार से पूर्ण व्याख्या की जाती है कि जो कहा गया है वह स्पष्ट हो जाये। भाष्य और वार्तिक में भेद यह है कि भाष्य में केवल मूल ग्रन्थ का आशय प्रकट किया जाता है जबकि वार्तिक में उससे सम्बन्धित और भी बातें मिलायी जा सकती हैं। वास्तव में वार्तिक ही व्याख्यात्मक आलोचना है। यह वृत्ति द्वारा स्पष्ट व्याख्या को और भी पूर्ण बनाता है। वार्तिकों में प्रसिद्ध कात्यायन का पाणिनी-सूत्रों पर वार्तिक, कुमारिलभट्ट का मीमांसा पर श्लोक और तन्त्रवार्तिक आदि हैं।

वचनिका, वार्ता, चर्चा- हिन्दी काव्यशास्त्र के अर्न्तगत इस वार्तिक के कुछ और भी नाम मिलते हैं- जैसे वार्ता, वचनिका, चर्चा। हिन्दी रीति-शास्त्र के भीतर हम कह सकते हैं कि पद्य में दिये मूल लक्षणों के साथ-साथ अर्थ स्पष्टीकरण के लिए जो गद्य में व्याख्या लिखी गयी है उसी को किसी ने वचनिका, किसी ने चर्चा और किसी ने वार्ता कहा है। उदाहरणार्थ : कुलपति मिश्र ने अपने  ग्रन्थ रस-रहस्य के भीतर पद्म में लक्षण उनका स्पष्टीकरण जो अपने गद्य वार्तिकी में किया है, उसका नाम बचनिका रखा है। वे लिखते हैं-

“वाचक विंजक लच्छवी, सब्द तीन विधि होय।

वाच्य लक्ष्य अरू व्यंग्य पुनि, अर्थ तीन विधि टोय।।”

अरु इन तीनौनि के  व्यवहार ते न्यारी ही प्रतीत करे सोक एक तातपरज का व्रति कहत है। याको शब्द नहीं।” आचार्य सोमनाथ ने अपने ग्रन्थ ‘रसपीयूषनिधि’ में भी इसी प्रकार की वचनिका लिखी है। इसी प्रकार की वार्ता और चर्चा भी है। यहाँ पर प्रसिद्ध आचार्य चिन्तामणि त्रिपाठी की शृंगार मंजरी में आयी चर्चा की चर्चा कर देना आवश्यक है, क्योंकि वह वास्तव में वार्तिक का ही रूप है। यह बात निम्नलिखित उद्धरण से स्पष्ट हो जायेगी जो 1700 ई0 के आसपास ब्रजभाषा के पण्डिताऊ गद्य का भी सुन्दर उदाहरण है-

“रस मंजरी, आमोद परिमल और तिलक रसिकप्रिय रसावर्ण प्रतापकड़ी व सुन्दर शृंगार सरसकाव्य दशरूपक विलास रत्नाकर काव्य प्रकाश प्रमुख ग्रन्थ विचार प्राचीन ग्रन्थनि में जो लक्षण भक्तियुक्त तिनको संग्रह करि और प्राचीनों बाहरणानुसार नाइका भेद कल्पित करि तिनके लक्षण, लसि, कल्पि, अरु जिनके उदाहरन नाहीं। तिनके उदाहरन बनाई निजि के नाम राशि अजुक्त नाम स्थल विष युक्त नाम राखि विस्तार करन स्थल विषे विस्तार करि संक्षेप करन स्थल विषै संक्षेप करि सर्व स्थल साधारन लक्षन सा धारन उदाहरन करि प्राचीन लक्षनति में जो उपयुक्त उदाहरण है ते ते तत् नाइका-भेद में लिपि चरचा ग्रन्थ गद्यरूप लक्षन उदाहरन ग्रन्थ पद्यरूप लक्षन उदाहरन नाइका-भेद, शृंगार हास्य, करुना रौद्र, वीर, भयानक, अद्भुत शान्त नव रसानि में शृंगार प्रधान है ताते शृंगार रसालम्बन विभाव नायिका नामक तिनिके सलय संख्यादिक अगरसानुकूल सात्विक भात, पूर्वोक्त ग्रन्थ वर्जित पदिनन्यादि जाति संकर भेद जैसे प्रकार सरस आरोपि विशेष निरुपिमतु है।”

(शृंगार मंजरी, चिन्तामणि)

इसके भीतर वार्तिक लिखने का उद्देश्य लक्षित होता है, परन्तु यह उससे कुछ भिन्न इस बात में है कि यह किसी दूसरे विशेष ग्रन्थ में आये लक्षणों की व्याख्या और पूर्णता का प्रयत्न न होकर अपने ही लक्षणों की व्याख्या कर उन्हें पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया।

हिन्दी के भीतर व्याख्यात्मक आलोचना के ये वार्तिक रूप प्रायः अपनी ही पद्यमयी लक्षण वृत्तियों की व्याख्या स्वरूप आये हैं। परन्तु टीका या तिलक आदि किसी दूसरे की लिखी पुस्तक की व्याख्या है और यह भी वार्तिक रूप में देखने को मिलती है। हिन्दी के 18वीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य सूरति मिश्र द्वारा रचित केशव की रसिक-प्रिया की जोरावर प्रकाश नामक, जोरावर सिंह के आश्रय में लिखी गयी टीका इसका उदाहरण है।

जैसे रसिक प्रिया बिन, देखिन दिन दीन। त्योंही भाषा कवि सवै रसिक प्रिया करि दीन।। 5।। या रसिक प्रिया के पटे रति मति आति बढ़े अरु सब रस कहा नव रस तिनकी रीति जानै और स्वारथ कहा चातुर्थता ताहै सब राज पूजा को बल्लभ होई व भाँति तो स्वारथ अहे अरु श्री राधाकृष्ण को बर्ननु है यामै तिनके ध्यान ते परमार्थ लहै व रसिक प्रिया की प्रीति ते दोऊ बात सिद्ध होर्यं ।।13।।

इस प्रकार टीका के अन्तर्गत प्रायः भाष्य, वृत्ति वार्तिक आदि सभी रूप समाविष्ट हो गये हैं। व्याख्यान जिसे हम आजकल भाषण के रूप में प्रयुक्त करते हैं, वह वास्तव में किसी सिद्धान्त या भाव को किसी आख्यान से स्पष्ट करने वाली व्याख्या है परन्तु अब इस शब्द ने अपना वह अर्थ छोड़ दिया है और भाषण के अर्थ में ही रूढ़ हो गया है। इसी प्रकार एक और शब्द अवतरणिका का भी प्रयोग मिलता है, जिसके भीतर किसी बड़े कथानक या प्रबन्ध का सार लेकर व्याख्या करते हैं।

ये समस्त रूप भारतीय व्याख्यात्मक आलोचना के भेद हैं। ये भेद जिस प्रकार साहित्य के सिद्धान्त या सूत्र-ग्रन्थों के लिए आते हैं उसी प्रकार काव्य-कृतियों के लिए भी। काव्य-कृतियों के प्रसंग में अधिक प्रचलित प्रकार टीका, तिलक, वचनिका, या व्याख्या ही है। जिन्हें भी हम भारतीय व्याख्यात्मक आलोचना के प्रकार मान सकते हैं।

आधुनिक ऐतिहासिक आलोचना का विकास भारतीय आलोचना पद्धति के भीतर देखने को नहीं मिलता। उसका उद्भव और विस्तार आधुनिक युग की देन है और इसका श्रेय पाश्चात्य आलोचना-पद्धति के सम्पर्क को ही दिया जा सकता है। हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि अनेक संग्रह ग्रन्थ जिनके साथ कवियों या साहित्यकारों का कुछ परिचय भी रहता था, इस आलोचना का रूप प्रकट करते हैं। संस्कृत में ऐसे उदाहरण श्रीधरदास कृत ‘सूक्ति-कर्णामृत’ (1205 ई0) भगदत्त जल्हण कृत सूक्तिमुक्तावली’ (1258 ई0), आदि और हिन्दी में प्राचीन ग्रन्थों में ‘कालिदासहजारा’, ‘हाफिजुल्ला का हजारा’ आदि ग्रन्थ हैं। परन्तु वास्तविक ऐतिहासिक आलोचना का बीसवीं शताब्दी में ही विकास हुआ है। संस्कृत-ग्रन्थों में प्रायः इस आलोचना के रूप अब भी प्रस्तावना, भूमिका, उपोद्घात आदि के रूप में तथा हिन्दी में साहित्य के इतिहास और व्यक्तिगत कवियों के अध्ययनों में मिलते हैं।

तुलनात्मक आलोचना का जो विस्तृत आधुनिक रूप है, वह भारतीय आलोचना पद्धति के भीतर देखने को नहीं मिलती। हाँ पूर्ववर्ती युगों में कवियों की प्रशंसा में कही हुई कुछ सूक्तियाँ अवश्य मिल सकती हैं। इन सूक्तियों में तो कुछ ऐसी है जो सामान्य रूप से कवियों की प्रशंसा करती हैं, जैसे-

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।

नास्ति येषां यशः काये जरामराजं भयम् ॥

इसी प्रकार साहित्य रसिक और आलोचकों की प्रशंसा है-

जयन्तु ते सहृदयाः काव्यामृतनिषेविणः ।

येषां आह्लादनन्नान्यत् कवीनां स्वकृतेः फलम् ॥

काव्य की प्रशंसा भी इसी प्रकार की गयी है जो साहित्यकार की कृति को विशेष आकर्षण प्रदान करती है, जैसे-

कं पृच्छामः सुराः स्वर्गे निवसामो वयं भुवि ।

किं वा काव्यरसः स्वादुः किं वा स्वादीयसी सुधा॥

इस प्रकार की काव्य और कवियों की प्रशंसा में लिखी गयी उक्तियाँ बहुत है। इसी प्रकार कविविशेष की प्रशंसा में भी कही गयी सूक्तिबद्ध आलोचना देखने को मिलती है जो भारतीय आलोचना पद्धति का एक रूप प्रकट करती है। प्रायः सभी बड़े-बड़े संस्कृत के आचार्यों और कवियों की प्रशंसा में लिखे इस प्रकार के वाक्य मिलते हैं। जैसे-

स्वनितातिगमिरेण काव्यतत्वनिवेशिना ।

आनन्दवर्धनः कस्य नासीदानन्दवर्धनः ॥

नीलोत्पलदलश्यामां विज्जकां मामजनता।

वृथैव दण्डिनाऽप्युक्तं सर्वशुक्ला सरस्वती ॥

कविश्मरः कविश्चलः कविरभिनन्दश्चकालिदासश्च ।

अन्ये कवयः कपयश्चापलमात्रं पदं दधति ॥  

(राजशेखर)

(श्री शंकर वर्मा)

तुलनात्मक पद्धति पर एक साथ कई कवियों के मूल्यांकन का प्रयत्न भी किया गया है जो कि विशेष रूप से आलंकारिक पद्धति पर ही है। इस पद्धति के दो-एक उदाहरण बड़े रोचक हैं-

यास्याश्चौरश्चिकुरनिकरः कर्णपुरो मयूरो

दसो भासः कविकुलगुरुः कालिदासो विलासः

हर्षो हर्षः हृदयवसति पंचबाणस्तु बाणः

केषां नैषां कथय कविताकामिनी कौतुकाय ॥

(जगदेव)

इसी प्रकार विशिष्ट गुणों का संकेत करने वाली भी सूक्तियाँ हैं, जैसे-

उपमा कालिदासस्य भारवेर्यगौरवम् ।

दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः ॥

इस प्रकार भारतीय आलोचना का आदर्श प्रकट हुआ। व्यावहारिक आलोचना का क्रियात्मा रूप भी कहीं-कहीं ढूँढ़ने पर मिलता है। एक स्थल पर आलोचक जिस प्रकार से आलोचना करता है, उसके कार्य का पूरा सजीव चित्रण, चित्रण ही नहीं, उसका अभिनय सा स्पष्ट करता हुआ कथन है –

उक्तं च वक्ष्यमाणं च भर्त्सनं तिवर्गीक्षणम् ।

क्वचिद्य यथार्थकथनं व्याख्या तंत्रस्य षडविद्याः ॥

(सूक्तिमुक्तावली)

इसमें आलोचना-पद्धति (व्याख्यातन्त्र) की छः विधियाँ स्पष्ट की गयी हैं जो ये हैं- किसी कृति का नाम ले देना, उसके सम्बन्ध में कुछ अधिक बात कहना, निन्दा करना, तिरछे देखकर प्रशंसा का भाव प्रकट करना, कुछ वास्तविक बात कहना और उसकी व्याख्या करना। इन कथनों से हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ये सूक्तियाँ केवल उलजलूल कथनमात्र नहीं, वरन वास्तविक आलोचना की दृष्टि से अपने मूल में छिपाये हुए हैं। इस सूक्ति पद्धति का आलम्बन हिन्दी साहित्य में भी बराबर मिलता है जिससे बड़े-बड़े कवियों, तुलसी, सूर, कबीर, केशव, बिहारी आदि की विशेषतायें और तुलनात्मक मूल्यों पर प्रकाश डाला गया है।

भारतीय आलोचना-पद्धति के उपर्युक्त संक्षिप्त परिचय से हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि आधुनिक आलोचना विधियों में से बहुतों के तो उसके भीतर बीजांकुर भी नहीं मिलता है, कुछ के अंकुर आधुनिक युग में आकर पल्लवित हो रही है और कुछ के रूप अर्द्धविकसित एवं कुछ अत्यन्त पूर्ण विकसित और उत्कर्ष की सीमा पर पहुँचती हुई है। परन्तु यह मानना पड़ेगा कि भारतीय आलोचना पद्धति के भीतर सबसे अधिक सम्मान सैद्धान्तिक आलोचना को ही मिला है। अध्यापक और व्यक्तिप्रधान आलोचना तो स्फुट रूप से इधर-उधर ही मिलती है, किन्तु सैद्धान्तिक आलोचना का धारा प्रवाह रूप बड़ा ही गम्भीर और विस्तृत है।

इस आलोचना पद्धति की हमारे आज के युग में बड़ी उपयोगिता है। आज हमारे सामने जो आलोचना के प्रमुख विकसित रूप हैं, वे शास्त्रीय, ऐतिहासिक, तुलनात्मक, व्याख्यात्मक, भावात्मक, मनोवैज्ञानिक आदि हैं। शास्त्रीय आलोचना के भीतर केवल काव्शास्त्र का ही आधार नहीं वरन राजनीति और समाजशास्त्रों का भी आधार लिया जाता है और उसके आधार पर समाजशास्त्रीय आलोचना का ही रूप विकसित हो रहा है, परन्तु वह वर्ण्य विषयक की ओर लक्ष्य कर सकती है, शुद्ध साहित्यिक उत्कृष्टता को लाने में उतनी सहायता नहीं हो सकती। हम कह सकते हैं कि आज सैद्धान्तिक आलोचना का अभाव है। आधुनिक आलोचना पद्धति के इस रूप को विकास करने के लिए आलोचनात्मक लेख पढ़ना उतना आवश्यक नहीं जितना कि कलाकृतियाँ। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि एक कलाकृति पढ़कर ही कुछ विचार या धारणा बना लेना भी सैद्धान्तिक आलोचना के लिए ठीक नहीं। कलाकृतियों के अनवरत सेवन और अध्ययन के पाश्चात्य सामान्य विशेषताओं के आधार पर निष्कर्ष निकलते हैं वे ही सैद्धान्तिक आलोचना के आधार बनते हैं।

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Pankaja Singh

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