हिंदी साहित्य का इतिहास

हिन्दी आलोचना का विकास | हिन्दी आलोचना का विकास क्रम | हिन्दी आलोचना का उद्भव और विकास

हिन्दी आलोचना का विकास | हिन्दी आलोचना का विकास क्रम | हिन्दी आलोचना का उद्भव और विकास

हिन्दी आलोचना का विकास

भारतीय साहित्य में आलोचना की परम्परा बहुत प्राचीन है, विशेषकर संस्कृत- साहित्य काव्यशास्त्रीय विवेचन से अत्यन्त समृद्ध है, परन्तु जिस रूप में आज हम आलोचना को स्वीकार करते हैं, वह आधुनिक युग की देन है। गद्य की अन्य विधाओं की भाँति हिन्दी आलोचना का उदय भी भारतेन्दु युग में हुआ। तब से लेकर वह अनवरत रूप से विकसित हो रही है। अब तो आलोचना प्रौढ़ता को प्राप्त हो गई है।

हिन्दी आलोचना का प्रारम्भ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षाओं से हुआ। पं० बदरीनारायण द्वारा प्रकाशित ‘आनन्द’ कादम्बिनी नामक पत्रिका ने लला निवासदास कृत ‘संयोगिता स्वयंवर’ की समीक्षा प्रकाशित करके वस्तुतः इस क्षेत्र से अग्रदूत का कार्य किया। इसके बाद स्वनान्- धन्य आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित ‘सरस्वती’ का नाम आता है। इस पत्रिका के माध्यम से द्विवेदी जी ने बहुत ही उपयोगी एवं महत्वपूर्ण कार्य इस क्षेत्र में किया। उन्होंने भाषा सम्बन्धी गुण-दोष का विवेचन तो किया ही था, साथ ही कुछ प्राचीन ग्रन्थों की परिचायक आलोचना की।

मित्र-बन्धुओं, आचार्य पद्मसिंह शर्मा, लाला भगवानदीन ने तुलनात्मक आलोचना की नींव डाली। मिश्र-बन्धुओं ने ‘हिन्दी-नवरत्न’ तथा ‘मिश्र-बन्धु विनोद’ में गुण-दोष विवेचन की पद्धति जारी रखी। इसके अतिरिक्त उन्होंने पाठकों का ध्यान कवियों की विषयगत और भाषा सम्बन्धी विशेषताओं की ओर भी आकर्षित किया। इन्होंने देव और बिहारी की तुलनात्मक आलोचना करके तुलनात्मक आलोचना के क्षेत्र में एक विवाद खड़ा किया, जो कई दृष्टियों से बहुत ही उपयोगी था।

पं० पद्मसिंह शर्मा ने ‘बिहारी की सतसई’ की भूमिका लिखकर आलोचना के सजीव रूप को प्रस्तुत किया। यहाँ तक हमको रीतिकालीन सैद्धान्तिक पद्धति पर लिखी गयी आलोचनाओं के भी यत्र-तत्र दर्शन होते रहे, जैसे-

  1. अलंकार ग्रन्थ- कन्हैयालाल पोद्दार कृत अलंकार प्रकाश और अलंकार मंजरी तथा लाला भगवानदीन कृत अलंकार मंजूषा
  2. रस ग्रन्थ- कन्हैयालाल पोद्दार विरचित रस मंजरी तथा हरिऔध कृत रस कलस।
  3. शृंगार और नायिका भेद ग्रन्थ- हरिऔध कृत रस कलस तथा यशोदानन्द लिखित वरवै नायिका भेद।

इसके अतिरिक्त परिचयात्मक आलोचना का प्रारम्भिक रूप सन्निहित रखने वाले भी कुछ ग्रन्थ मिलते हैं, जैसे- सभाविलास (लल्लूलाल), सुन्दरी तिलक (भारतेन्दु रस-चन्द्रोदय (ठाकुर प्रसाद) इत्यादि। इसके पश्चात् इस क्षेत्र में डॉक्टर श्यामसुन्दर दास और आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल का आगमन हुआ।

इनके आगमन के साथ आलोचना साहित्य का पूर्ण विकास हो गया। उसमें शास्त्रीय सैद्धान्तिक व्याख्यात्मक प्रकार की आलोचना की रचना हुई। शुक्ल जी ने तो कई कवियों को अपनी आलोचना के आलोक में चमका दिया।

इसके बहुत तो आलोचना की अबाध परम्परा सी दिखाई देती है। आजकल की आलोचनाओं ने निबन्धों को निश्सेषप्रायः कर दिया है। ये आलोचनाएं कई रूपों में दिखाई देती है। नित्य नवीन आलोचक भी सामने आ रहे हैं। आजकल अनेक प्रकार की आलोचनाएँ देखने में आ रही हैं।

भारतेन्दु से लेकर अब तक आलोचना साहित्य के विकासात्मक क्रम सुविधा के विचार से हम निम्नलिखित युग में विभक्त करते हैं-

(1) भारतेन्दु युग – आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता एवं पोषक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी के सभी विधाओं में लेखनी चलाई अतः हिन्दी आलोचना का प्रारम्भ भी उन्हीं के नाटक नामक ग्रन्थ से होता है। यह ग्रन्थ से छोटा है। यह ग्रन्थ सैद्धान्तिक आलोचना का है तथा यह एक अत्यन्त प्रौद रचना है। जिसमें भारतेन्दु जी के प्राचीन भारतीय नाट्यशास्त्र तथा पाश्चात्य समीक्षा साहित्य का समन्वय है। उन्होंने अपने समकालीन नाटककारों के लिए सामान्य नियम निर्धारित किए तथा अपनी मौलिक उभावनाएं भी दीं। इस ग्रन्थ में भारतेन्दु जी की समीक्षा कहीं-कहीं तीखी और व्यंग्यात्मक भी हो गयी है जैसे उन्होंने पारसी नाटकों की तीखी आलोचना की है।

भारतेन्दु जी के साथ ही इस युग में चौधरी बद्रीनारायण प्रेमघन ने अपनी ‘आनन्द’ कादम्बनी पत्रिका में संयोगिता स्वयंवर तथा वंग-विजेता पुस्तकों की विस्तृत समीक्षाएं की तथा बालकृष्ण भट्ट ने भी ‘हिन्दी प्रदीप’ में संयोगिता स्वयंवर की समीक्षा की। इस प्रकार भारतेन्दु जी ने हिन्दी आलोचना का प्रवर्तन किया और प्रेमधन तथा बालकृष्ण भट्ट ने उस कार्य को आगे बढ़ाया। यदि भारतेन्दु जी ने सैद्धान्तिक समीक्षा का आरम्भ किया तो उक्त दोनों लेखकों ने हिन्दी में व्यावहारिक की समीक्षा की आधारशिला रखी। इसके बाद भी पत्र-पत्रिकाओं में इन लेखकों की समालोचनाएँ प्रकाशित होती रहीं। किन्तु इस युग में समीक्षा मुख्यतः गुण-दोष विवेचनात्मक रही तथा यह लेख, पुस्तक परिचय, टिप्पणी, सम्पादकीय आदि के रूप में ही सामने आयी।

(2) द्विवेदी युग – 1900 ई० में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका का सम्पादन प्रारम्भ किया, जिसके साथ हिन्दी समीक्षा में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। आचार्य द्विवेदी ने ‘कालीदास की निरंकुशता’ ‘नैमष चरित्र चर्चा’ विक्रामांक देव चरित चर्चा आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। वैसे द्विवेदी जी से पूर्व भी गंगा प्रसाद अग्निहोत्री की समालोचना तथा अम्बिकादत्त व्यास की ‘गद्य काव्य मीमांसा’ शीर्षक छोटी-छोटी पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी थीं। द्विवेदी जी ने अपने ग्रन्थों में प्राचीन तथा नवीन काव्यों के गुण, दोषों का विवेचन किया। स्वभाव से द्विवेदी शिक्षक, संशोधन एवं सुधारक थे। उन्होंने अपनी समीक्षाओं में हिन्दी कविता की शृंगारिकता का डटकर विरोध किया तथा कविता में देश प्रेम तथा समाजसुधार की भावनाओं की स्थापना की हिमायत की। ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी द्विवेदी जी को ही है।

इसी युग में समीक्षा क्षेत्र के मिश्र बन्धुओं (गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र तथा शुकदेव बिहारी मिश्र) का पदार्पण हुआ जिन्होंने ‘हिन्दी नवरत्न’ तथा ‘मिश्र-बन्धु विनोद’ ग्रन्थों की रचना की। ‘हिन्दी नवरत्न’ में उन्होंने हिन्दी कवियों को श्रेणियों में विभाजित किया। इस ग्रन्थ में मिश्र बन्धुओं ने देव को बिहारी से श्रेष्ठ कवि सिद्ध किया। बिहारी पर किये गये इस आक्रमण से प्रेरित होकर पं० पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी सतसई की भूमिका’ लिखी जिसमें उन्होंने बिहारी की श्रेष्ठता प्रमाणित करने का प्रयास किया। पं० कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘देव और बिहारी’ पुस्तक लिखी किन्तु उन्होंने भी बिहारी पर कुछ आक्षेप किए। लाला भगवानदीन ने ‘बिहारी और देव’ की पुस्तक में बिहारी की प्रतिष्ठा स्थापित की। इस चर्चा में हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना का प्रभावात्मक आलोचना का सूत्र पात्र हुआ।

इसी युग में पद्मलाल पन्नालाल बख्शी तथा बाबू श्यामसुन्दर ने भी समीक्षा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बाबू श्यामसुन्दर दास ने साहित्यालोचना तथा ‘रूपक रहस्य’ जैसे सैद्धान्तिक समीक्षा के प्रौद ग्रन्थों की रचना की। बख्शी जी ‘विश्व साहित्य’ नामक ग्रन्थ में विश्व साहित्य का सामान्य परिचय दिया।

आचार्य शुक्ल का अवतरण- इसी युग में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी समीक्षा में अवतरण एक ऐतिहासिक घटना थी। शुक्ल जी से पूर्व हिन्दी समीक्षकों के समक्ष न तो कोई आदर्श था न कोई सिद्धान्त ही अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अपने-अपने ढंग से आलोचनाएँ लिखी जाती थी। मगर शुक्ल जी ने हिन्दी समीक्षा को सुनिश्चित मानदण्ड दिये तथा एक विकसित पद्धति प्रदान की। उन्होंने साहित्य की सूक्ष्म शक्ति भावों के उद्वेलन की शक्ति को समीक्षा की कसौटी के रूप में अपनाया। उन्होंने रस सिद्धान्त को नया जीवन प्रदान किया। उन्होंने सामाजिकता को भी साहित्य का एक तत्व माना तथा काव्य में लोकमंगल की भावना की स्थापना की। उन्होंने काव्य के भाव पक्ष व कला पक्ष दोनों पर समान रूप से विचार किया तथा उन्होंने ‘कला के लिए’ तथा ‘कला जीवन के लिए’ सिद्धान्तों को अपूर्व सामंजस्य प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र व पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों का भी समन्वय किया। आचार्य शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास ‘जायसी ग्रन्थावली की भूमिका’, ‘चिन्तामणि’, ‘गोस्वामी तुलसीदास’, ‘सूरदास’ आदि महत्वपूर्ण समीक्षा ग्रन्थ हैं। तुलसीदास उनके आदर्श कवि हैं। उनकी समीक्षा शैली में सूक्ष्मता, गम्भीरता और प्रौढ़ता है तथा उनकी स्थापनाएँ सर्वथा मौलिक हैं। उनके महत्व को स्वीकार करते हुए डॉ० नगेन्द्र ने लिखा है, – “आचार्य शुक्ल के सम्बन्ध में कदाचित यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि उनके समान मेधावी आलोचक किसी भी भारतीय भाषा में नहीं है।

(3) शुक्लोत्तर युग शुक्ल जी के पश्चात् हिन्दी समीक्षा का विकास बहुत तेजी से हुआ तथा समीक्षा के सभी अंग पूरी तरह विकसित हुए हैं। इस युग के विकास को निम्नांकित समक्षा प्रवृत्तियों के अन्तर्गत देखा जा सकता है-

(क) ऐतिहासिक समीक्षा – ऐतिहासिक समीक्षा के क्षेत्र में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. भगीरथ मिश्र प्रभूति आलोचकों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल’, ‘हिन्दी साहित्य’ उद्भव और विकास आदि ग्रन्थों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इतिहास पर नवीन दृष्टि से विचार करते हुए नई स्थापनाएँ की हैं। सन्त साहित्य व आदिकाल पर उनका कार्य महत्वपूर्ण है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने ‘हिन्दी साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास में आदिकाल एवं भक्तिकाल पर विस्तार से विचार किया है तथा नई दृष्टि दी है। इनके अतिरिक्त डॉ) केशरीनारायण शुक्ल आदि ने भी ऐतिहासिक समीक्षा को समृद्ध किया है।

(ख) सैद्धान्तिक समीक्षा – डॉ. गुलाबराय, डॉ. नगेन्द्र, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, आचार्य बल्देव उपाध्याय, डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी आदि ने सैद्धान्तिक समीक्षा के क्षेत्र को समृद्ध किया है। बाबू गुलाबराय की ‘सिद्धान्त और अध्ययन’, ‘काव्य के रूप’, ‘हिन्दी नाट्य विमर्श’ आदि कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। डॉ. नगेन्द्र इस क्षेत्र में आचार्य शुक्ल के अधिकारी हैं। रीतिकाव्य की भूमिका, ‘रस सिद्धान्त’, ‘काव्य विम्व’, ‘अरस्तू का काव्यशास्त्र’ आदि ग्रन्थ उनकी समीक्षा मेघा का प्रमाण देते हैं। उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा को पुनर्जीवित किया है तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र को हिन्दी में सुलभ किया है। आचार्य बल्देव उपाध्याय के ‘भारतीय साहित्य शास्त्र’ डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी के ‘भारतीय साहित्य दर्शन’ तथा ‘रस विमर्श’ डॉ. रामलाल सिंह के ‘समीक्षा दर्शन’ डॉ. सत्यदेव चौधरी के रीतिकालीन आचार्य, डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित के ‘रससिद्धान्त’, स्वरूप और विश्लेषण, आदि ग्रन्थ इस प्रकार की समीक्षा के उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं।

(ग) व्यावहारिक समीक्षा- आचार्य नन्दुदलारे वाजपेयी का नाम व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में सर्वोपरि है। उनके ‘हिन्दी साहित्य बीसवीं शताब्दी’ आधुनिक हिन्दी साहित्य, नया साहित्य नये प्रश्न, जयशंकर प्रसाद, सूरदास आदि ग्रन्थ अपनी मौलिकता के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। पुराने आचार्यों में छायावादी काव्य को महत्व देने का साहस आचार्य वाजपेयी ने ही किया। इसके अतिरिक्त आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. मनमोहन शर्मा, डॉ. हरिवंश लाल शर्मा, डा. सत्येन्द्र, डॉ. पद्मसिंह शर्मा, कमलेश, डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत आदि के नाम इस क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं।

(घ) मनोविश्लेषणवादी समीक्षा- इस क्षेत्र में डॉ. देवराज उपाध्याय का नाम सर्वोपरि है। उनके हिन्दी कथा साहित्य और मनोविज्ञान जैनेन्द्र के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन आदि ग्रन्थ सर्वथा नई दृष्टि लेकर उभरे हैं। अज्ञेय इलाचन्द्र जोशी, प्रकाशचन्द्र गुप्ता आदि के नाम भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं।

(ङ) मार्क्सवादी समीक्षा – डॉ. रामबिलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय, नवल किशोर, डॉ. रणजीत, अमृतराय आदि समीक्षकों के नाम मार्क्सवादी समीक्षकों के लिए जाते हैं।

(च) वैज्ञानिक समीक्षा- डॉ. मताप्रसाद गुप्त का नाम इस क्षेत्र में बहुत आदर्श से लिया  जाता है। उनके ग्रन्थ ‘तुलसीदास’ ‘पद्मावत’, चांदायन, मृगावती आदि उनकी वैज्ञानिक दृष्टि को प्रस्तुत करते हैं। इनके अतिरिक्त डॉ. दीनदयाल गुप्त, डॉ. विजयेन्द्र स्नातक, डॉ. विजयपाल सिंह  आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं।

(छ) लोकसाहित्य सम्बन्धी समीक्षा – डॉ. सत्येन्द्र का नाम इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण है। उनकी लोक साहित्य विज्ञान कृत अपनी जैसी अकेली ही रही। इसके अतिरिक्त डॉ. कन्हैयालाल सहल, डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, डॉ. श्याम परमार, डॉ. रवीन्द्र भ्रमर आदि के नाम भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं।

(ज) तुलनात्मक समीक्षा – इस प्रकार की समीक्षा का सूत्रपात द्विवेदी युग में ही हो गया था किन्तु इसका पूर्ण विकास शुक्लोत्तर युग में हुआ। डॉ. नगेन्द्र ने भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र का तुलनात्मक विवेचन किया है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने प्रसाद तथा निराला का तुलनात्मक आकलन बड़ी सूक्ष्मता से किया। हिन्दी के अनेक ऐसे ग्रन्थ निकले है जो तुलनात्मक समीक्षा के अन्तर्गत आते हैं। जैसे, हिन्दी और गुजराती के कृष्ण काव्य का तुलनात्मक अध्ययन ‘हिन्दी और कन्नड़ में भी भक्ति आन्दोलनों का तुलनात्मक अध्ययन ‘रामचरित मानस का तुलनात्मक अध्ययन आदि।

अनुसंधान और हिन्दी समीक्षा – हिन्दी में अनुसंधान कार्य यद्यपि स्वतन्त्रता के पूर्व ही प्रारम्भ हो गया था तथापि इस कार्य को गति स्वतन्त्रता के पश्चात ही मिली। भारत के विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग इस कार्य को गम्भीरता से ले रहे हैं। डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने हिन्दी में पहली बार शोध प्रबन्ध लिखा जिस पर उन्हें पेरिस विश्वविद्यालय से डॉ. की उपाधि मिली थी हिन्दी में सभी प्रकार के विषयों पर शोध कार्य हुए हैं तथा हो रहे हैं। अनुसंधान की प्रवृत्ति ने हिन्दी समीक्षा को बहुत समृद्ध किया है।

हिन्दी में पाठ : शोध एवं टीका कार्य- पाठलोचन, पाठ-शोध अथवा पाठानुशील भी हिन्दी समीक्षा का ही एक प्रकार है। वस्तुतः प्राचीन वृत्तियों का शुद्ध पाठ निर्धारण करना एक कठिन कार्य है। इस कार्य के लिए प्राचीन भाषा का ज्ञान सतत साधना तथा वैज्ञानिक दृष्टि की आवश्यकता होती है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इस क्षेत्र में बड़ा सराहनीय कार्य किया है। पृथ्वीराज रासो, वीसलदेव रासो, जायसी ग्रन्थावली, कुतुबशतक आदि ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनका पाठ उन्होंने निर्धारण किया है। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रामचरित का पाठ अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया है। डॉ. पारसनाथ तिवारी ने कबीर की रचनाओं का शुद्ध रूप प्रस्तुत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।

टीका अथवा भाष्य लेखन की समीक्षा का एक महत्वपूर्ण प्रकार है। हिन्दी में भक्तिकाल व रीतिकाल पर ब्रजभाषी गद्य में बहुत सी टीकायें हुई। पुरानी टीकाओं में ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ तथा ‘दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता’ पर गुसाई हरिराय की तथा नाभादास के ‘भक्तिकाल’ पर प्रियास की टीकाएं प्रसिद्ध हैं। सरदार कवि ने ‘कविप्रिया’ ‘रसिक प्रिया’, ‘बिहारी सतसई’ आदि की टीकाएं लिखीं। लाला भगवानदीन की ‘रामचन्द्रिका’ कवि जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर दत्त लिखित बिहारी रत्नाकर नामक बिहारी सतसई की टीका अत्यन्त प्रसिद्ध प्रामाणिक व विद्वतापूर्ण मानी जाती है। वियोगी हरि की ‘विनय पत्रिका’ की टीका तथा वासुदेवशरण अग्रवाल की ‘पद्मावत’ की टीका बहुत प्रसिद्ध है। डॉ. द्वारका प्रसाद सक्सेना लिखित ‘कामायनी भाष्य’ भी एक सुन्दर टीका है।

हिन्दी की नयी समीक्षा-

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों का परिवर्तन हुआ है। साहित्य के व मानदण्ड भी बदल गये हैं। इस दृष्टि से हिन्दी के नव्य-समीक्षा का अपना ही स्वरूप मुखरित हुआ है। नव्य समीक्षा में आलोचकों ने जीवन व काव्य साहित्य के नये मूल्यों का निर्धारण करने की दिशा में कार्य किया है जिसमें उन्होंने मानव और उसके अस्तित्व के स्वरूप पर विचार किया है। नये आलोचकों ने नये साहित्य का मूल्यांकन किया तथा पुरानी कृतियों का पुर्नमूल्यांकन किया है। इस प्रकार की समीक्षा में मानव नियति तथा उसके व्यक्तित्व को लेकर गम्भीरता से विचार किया है। आज समीक्षक किसी बंधी बंधायी लीक पर न चलकर मौलिक कृतियों को उसके अपने स्वरूप में देखने की चेष्टा करता है।

इस कार्य में मौलिक रचनाकारों का पूरा योगदान रहा है। डॉ. रघुवंश की साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य, अज्ञेय की ‘आत्मनेपद’, डॉ0 धर्मवीर भारती की ‘मानव मूल्य और साहित्य’, डॉ. नामवर सिंह की ‘कविता के नये प्रतिमान’ मुक्तिबोध की ‘नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ तथा ‘एक साहित्यिक की डायरी’ आदि कृतियाँ नई समीक्षा की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

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Pankaja Singh

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