समाज शास्‍त्र

हिन्दू महिलाओं की प्रमुख समस्याएँ | Main Problems of Hindu Women in Hindi

हिन्दू महिलाओं की प्रमुख समस्याएँ | Main Problems of Hindu Women in Hindi

हिन्दू महिलाओं की प्रमुख समस्याएँ

(Main Problems of Hindu Women)

हिन्दू महिलाओं की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  1. पारिवारिक समस्याएँ हिन्दू समाज पुरुष-प्रधान है। भारत में परम्परात्मक रूप से पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार व्यवस्था पायी जाती है जिसमें परिवार के पुरुष सदस्यों को तो अनेक अधिकार एवं सुविधाएँ प्राप्त हैं, किन्तु महिलाओं को उनसे वंचित किया गया है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में महिलाओं की बड़ी दुर्दशा होती है। वे दासी की तरह जीवन व्यतीत करती हैं। उनका जीवन खाना बनाने, बच्चों को जन्म देने, उनकी देख-रेख करने एवं परिवार के सदस्यों की सेवा में ही व्यतीत हो जाता है। महिला को मनोरंजन का साधन समझा जाता है। जैसे सास-ननद के उलहाने, गालियों एवं प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता है, शिक्षा एवं बाहरी संसार से उसका कोई नाता नहीं रह पाता है। वह भिन्न-भिन्न प्रकार की पारिवारिक यातनाएँ झेलती रहती हैं।
  2. वैवाहिक समस्याऐं- परिवार की भाँति ही भारतीय महिलाओं की वैवाहिक समस्याएँ भी गम्भीर हैं। विवाह से सम्बन्धित उनकी प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

(i) बाल विवाहप्राचीन समय से भारत में बाल-विवाह का प्रचलन रहा है। हमारे धर्म-ग्रन्थों के रचनाकार बाल विवाह के पक्ष में रहे हैं और कम आयु में ही लड़की का विवाह कर देना माता-पिता का धार्मिक कर्तव्य माना गया है भारत की धर्मभीरू जनता धार्मिक ग्रन्थों से प्रेरणा लेकर छोटे-मोटे अबोध बालकों का विवाह करती रही है और आज भी ग्रामों में ऐसे विवाह बहुत सम्पन्न होते हैं। कम आयु में विवाह होने, सन्तानें होने एवं पारिवारिक दायित्व आ जाने के कारण, महिलाओं का स्वास्थ्य गिर जाता है और वे रुग्ण बनी रहती हैं, फलस्वरूप उनकी मृत्यु दर बढ़ जाती है और औसत जीवन अवधि घट जाती है। कम आयु में विवाह के कारण जन्म-दर में भी वृद्धि हो जाती है और दुर्बल सन्तानें पैदा होती हैं।

(ii) विधवा-पुनर्विवाह का अभाव- हिन्दुओं में पत्नी की मृत्यु के बाद पति को तो दूसरा विवाह करने की छूट दी गई है, क्योंकि पत्नी के बिना वह धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता, किन्तु महिलाओं को पति की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह करने की मनाही है। विधवा महिला अच्छा भोजन नहीं कर सकती, उसके भोजन में मीठे, चटपटे, स्वादिष्ट एवं पौष्टिक तत्वों के स्थान पर सादी वस्तुएँ मात्र होनी चाहिए। उसे इत्र, तेल, फूल एवं चमकीले भड़कीले वस्त्र नहीं पहनने चाहिए, क्योंकि इनसे यौन उत्तेजना पैदा होती है जो उसे पथ-भ्रष्ट कर सकती है। विधवा-पुनर्विवाह के अभाव ने सती प्रथा को जन्म दिया। जिसके अनुसार एक महिला अपने पति की मृत्यु के बाद उसकी चिता में आत्मदाह कर लेती है। शुभ कार्यों में विधवाओं की उपस्थिति अपशकुन मानी जाती है। उन्हें परिवार में सम्पत्ति एवं अन्य अधिकारों तथा सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है तथा अनेक प्रकार की यातनाएँ दी जाती हैं। इस प्रकार विवाह की यह सुविधा एकपक्षीय है जो पुरुष ने अपने लिए तो रखी, किन्तु महिलाओं को इससे वंचित कर दिया।

(iii) दहेज- वर्तमान में दहेज एक गम्भीर समस्या बनी हुई है। इसके कारण माता-पिता के लिए लड़कियों का विवाह एक अभिशाप बन गया है। जीवन साथी चुनने का सीमित क्षेत्र बाल-विवाह की अनिवार्यता, कुलीन विवाह, शिक्षा एवं सामाजिक प्रतिष्ठा, धन का महत्व, मँहगी शिक्षा, सामाजिक प्रथा एवं प्रदर्शन तथा झूठी शान आदि के कारण दहेज लेना और देना आवश्यक हो गया है। दहेज के कारण न जाने कितनी महिलाओं को जला दिया गया, यातनाएँ दी गयीं और आत्महत्याएँ हुई हैं। दहेज ने ही बालिका-बधू, पारिवारिक विघटन, ऋणग्रस्तता, निम्न जीवन-स्तर, बहुपत्नी प्रथा, बेमेल-विवाह, अनैतिकता, अपराध, भ्रष्टाचार एवं अनेक मानसिक बीमारियों को जन्म दिया है। दहेज के कारण ही कई परिवारों में पुत्री के जनम को अपशकुन माना जाता है।

(iv) तलाक- हिन्दुओं में महिला के लिए पतिव्रत एवं सतीत्व की बात कही गयी है, अतः महिला द्वारा पति को त्यागने की कल्पना नहीं की जा सकती और ऐसा करना उसके लिए सामाजिक व धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया है। यद्यपि वैदिक काल में कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में जैसे पति दुश्चरित्र हो, जाति से युक्त हो, बहुत समय से विदेश में हो, पुरुषविहीन हो, उससे पत्नी के जीवन को संकट उत्पन्न हो सकता हो, ऐसी स्थिति में पत्नी पति को तलाक दे सकती थी। किन्तु ईसा काल से ही नैतिकता की दुहाई देकर विवाह-विच्छेद को अधार्मिक, अपवित्र एवं घृणित कार्य समझा जाने लगा और बाद में इस पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। आज भी महिला द्वारा पति तलाक देने को उचित नहीं माना जाता, यद्यपि पुरुष तो जब चाहे ऐसा कर सकता है। जो अधिकार पुरुषों को है, समानता के युग में वही अधिकार महिलाओं को भी होना चाहिए।

(v) बेमेल विवाह- बाल-विवाह एवं जीवन साथी के चुनाव की स्वतन्त्रता के नहीं होने के कारण कई बार लड़कियो का विवाह अनुपयुक्त लड़कों से करवा दिया जाता है जब वर एवं वधू मानसिक धरातल पर एक होने में असमर्थ हों, उनमें वैचारिक भिन्नता हो, शिक्षा के स्तर एवं सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में अन्तर हो तो उनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं होता है।

(vi) अन्तर्जातीय विवाह का अभाव वैदिक युग में अन्तरवर्ण विवाह प्रचलित थे। किन्तु रक्त को पवित्र बनाये रखने की भावना, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की धारणा, मुसलमानों एवं अन्य आक्रमणकारियों से धर्म की रक्षा एवं कठोर जातीय नियमों के कारण भारत में अन्तर्जातीय विवाह करने को पाप एवं अपराध माना गया, ऐसे व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। अपनी ही जाति में विवाह करने के कारण विवाह का दायरा बहुत सीमित हो जाता है, दहेज की समस्या पैदा होती है, बेमेल विवाह होते हैं और विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं मिल पाती। ये सभी स्थितियाँ नारी की अनेक वैवाहिक समस्याओं को जन्म देती हैं।

  1. परदा प्रथा- भारतीय महिलाओं की प्राचीन काल से चली आ रही एक समस्या परदा रखने की भी है। महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे घूँघट निकाले और अन्य पुरुषों से दूरी बरतें, उनके सामने खुले मुँह बात न करें। परदा प्रथा के कारण महिलाओं के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है, वे शिक्षा ग्रहण करने एवं अर्जन करने से वंचित रह जाती है तथा इससे उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
  2. वेश्यावृत्ति- वेश्यावृत्ति एक सामाजिक बुराई के रूप में अति प्राचीन काल से प्रचलित रही हैं। वेश्यावृत्ति, यौन-तृप्ति का एक विकृत एवं घृणित साधन माना गया है। इस प्राचीन व्यवसाय का वर्तमान में व्यापारीकरण हुआ है। यौन पवित्रता पर बल, बाल-विवाह, विधवा विवाह का अभाव दहेज, जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने की इच्छा, गरीबी, नारी की आर्थिक पराश्रितता, दुखी वैवाहिक जीवन एवं महिलाओं के लिए बेरोजगार के अपर्याप्त अवसर, आदि ऐसे कारण है जिन्होंने इस बुराई को फैलाने में योग दिया है।
  3. स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ – भारत में स्वास्थ्य का निम्न स्तर पाया जाता है। इसके कई कारण हैं, जैसे गरीबी, बेकारी, स्वास्थ्य के नियमों के प्रति अज्ञानता, चिकित्सा सुविधाओं का अभाव एवं व्यापक बीमारियों। चूँकि भारतीय समाज पुरुष प्रधान है, अतः पुरुषों के स्वास्थ्य का तो फिर भी ध्यान रखा जाता है किन्तु महिलाओं के स्वास्थ्य की तरफ समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है। इसी कारण यहाँ लिंग अनुपात में पुरुषों की अधिकता, महिलाओं में मृत्यु दर की अधिकता एवं जीवन अवाधे कम है। यद्यपि महिला-पुरुष दोनों की औसत आयु में वृद्धि हुई है फिर भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की जीवन अवधि सदैव डी कम रही है।
  4. शैक्षणिक समस्याएँ- भारत में साक्षता का प्रतिशत बहुत कम है। महिलाओं में तो यह प्रतिशत और भी निम्न है। 1971 में महिलाओं में सामता का प्रतिशत 18.4 व पुरुषों में 39.5 था जो 1991 में बढ़कर क्रमश 62.13 व 39.29 हो गया। यह भिन्नता अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। केरल में साक्षता का प्रतिशत सर्वाधिक है, जबकि राजस्थान व अरुणाचल में कम है। राजस्थान में 1991 की जनगणना के अनुसार साक्षरता की दर 35.55 है। राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत केवल 20.44 करोड़ महिलाएँ निरक्षर हैं। भारत के नगरों की तुलना में गाँवों में तो महिला साक्षरता बहुत कम है। डॉक्टरी, इन्जीनियरिंग, वकालत एवं अन्य तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाली लड़कियों की संख्या तो और भी कम है। महिलाओं को शिक्षा न दिलाने का कारण परदा-प्रथा और महिलाओं की पुरुषों पर निर्भरता एवं उनका कार्य क्षेत्र घर तक ही सीमित होना है।
  5. राजनीतिक समस्याएँ- जब महिलाओं का कार्य-क्षेत्र घर ही तय कर दिया हो और वाह्य जीवन में उनके किसी भी प्रकार के योगदान की अपेक्षा नहीं की गयी हो तो उन्हें राजनीतिक जीवन से लेना-देना ही क्या है? यही कारण है कि भारत में महिलाओं में कभी राजनीतिक चेतना नहीं रही और वे राजकाज में भागीदार नहीं हुई। महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए कुछ सुधार आन्दोलनों का प्रयत्न भी नारी को परिवार में ही में नई स्थिति दिलाना रहा। 20वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में महिला संगठनों की स्थापना हुई जिन्होंने राजनीतिक अधिकारों की माँग की। 1917 में सरोजनी नायडू ने ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में महिलाओं को भी पुरुषों समान मताधिकार की माँग की। 1921 में संपन्न एवं शिक्षित महिलाओं को मतदान का अधिकार दे दिया गया। विदेशी शासकों को यह विश्वास भी नहीं होता था कि भारतीय समाज में भी कभी महिलाओं को पुरुषों के समक्ष राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे। गाँधी जी ने भी महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों पर बल दिया और स्वतंत्रता आन्दोलन में उनसे प्रेरित होकर कई महिलाओं ने भाग लिया। स्वतंत्रता के बाद महिलाओं ने विधायकों, सांसदों, राज्यपाल, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक का दायित्व संभाला है। इससे स्पष्ट है कि उनमें राजनीतिक चेतना बढ़ी है, फिर भी पुरुषों की तुलना में वे अब भी पिछड़ी हुई है।
  6. आर्थिक समस्याएँ- गरीबी देश की सबसे बड़ी समस्या है जो अनेक अन्य समस्याओं को भी जन्म देती है। भारतीय महिलाओं की भी समस्याएँ उनकी गरीबी, आर्थिक पराश्रितता एवं शोषण से जुड़ी हुई है। भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कम वेतन एवं पारिश्रमिक एवं शोषण दिया जाता रहा है। चाहे वह कृषि कार्य से ही सम्बन्धित है। इसके अतिरिक्त वे खनन, पशु-पालन एवं श्रमिक कार्य में भी लगी हुई हैं। उच्च पदों पर आसीन महिलाएँ तो गिनती की हैं। जब महिलाएँ रोजगार कार्य में भागीदार बहुत कम हैं तो उनकी आय भी कम है। संयुक्त परिवार प्रणाली, पुरुषों पर निर्भरता, महिला अशिक्षा, अज्ञानता, परदा-प्रथा, रूढ़िवादिता, आदि कारणों से महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर तक ही सीमित है और वे अक्सर कमाने के लिए बाहर नहीं जाती, फलस्वरूप उन्हें अपने भरण-पोषण तक के लिए पुरुष की ओर देखना होता है। निम्न आर्थिक स्थिति के कारण परिवार एवं समाज में भी प्रतिष्ठा उच्च नहीं हो पाती है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारतीय नारियाँ आज भी विभन्न पारिवारिक, वैवाहिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से ग्रसित है।
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Pankaja Singh

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