राजनीति विज्ञान

भारत में व्यवस्थापिका | भारत की संसद की शक्तियाँ तथा कार्य

भारत में व्यवस्थापिका | भारत की संसद की शक्तियाँ तथा कार्य

भारत में व्यवस्थापिका

यहाँ की केन्द्रीय व्यवस्थापिका को संसद कहते हैं। इसके दो सदन होते हैं-लोकसभा और राज्यसभा। समस्त देश से जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि और राज्यसभा में देश के विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। राज्यसभा संसद का उच्च सदन है।

लोकसभा का गठन- लोकसभा संसद का निम्न और महत्त्वपूर्ण सदन होता है। इसमें समस्त देश के विभिन्न भागों के जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। निर्वाचन कार्य के लिए देश को कई निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है और इस प्रकार के प्रत्येक क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। लोकसभा के सदस्यों की संख्या 500 होती है। केन्द्र शासित क्षेत्रों से भी 25 सदस्य होते हैं जो संसद के नियमानुसार चुने जाते या मनोनीत किये जाते हैं। संविधान के अनुसार कम से कम प्रति 5 लाख जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि चुना जाना है। यह निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है। स्वतन्त्र भारत में संविधान के अनुसार पृथक या साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कर दिया गया है। अब सामूहिक निर्वाचन-विधि का ही पालन किया जाता है। इसके अनुसार सभी जातियों और धर्मों के लोग सामूहिक रूप से प्रतिनिधियों को चुनते हैं।

योग्यता- लोकसभा के निर्वाचन में मतदाता बनने हेतु निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए-(i) वह भारत का नागरिक हो, (ii) उसकी आयु 21 वर्ष से कम न हो, (iii) वह पागल, दिवालिया या अपराधी न हो तथा (iv) वह निवास-सम्बन्धी शर्तों को पूरा करता हओ

कार्य-काल- साधारणतः लोकसभा की संरचना पाँच वर्ष के लिए की जाती है। परन्तु इस अवधि से पहले भी राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के परामर्श पर इसे भंग कर सकता है। 5 वर्ष की अवधि की समाप्ति पर लोकसभा स्वयं भंग हो जाती है और उसके पुनः नये चुनाव कराये जाते हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रपति लोकसभा की अवधि बढ़ा सकता है। किन्तु यह अवधि किसी भी अवस्था में एक वर्ष से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती है।

संरचना- इसमें जनता द्वारा देश के विभिन्न क्षेत्रों से चुने 500 प्रतिनिधि सदस्य होते हैं। ये सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष चुन लेते हैं। ये दोनों अधिकारी अपने- अपने पदों पर तब तक कार्य कर सकते हैं जब तक कि वे स्वयं त्यागपत्र न दे दें अथवा लोकसभा उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित न कर दे। इनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने से 15 दिन पूर्व सूचना देना आवश्यक होता है। अविश्वास पास हो जाने पर अध्यक्ष को अपना पद त्यागना पड़ता है। लोकसभा की बैठकों में अध्यक्ष सभापति का कार्य करता है और उसकी अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष इस कार्य को करता है। अध्यक्ष का निर्वाचन सर्वसम्मति से किया जाता है। चुने जाने के पश्चात् वह अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है। इसका मुख्य कार्य लोकसभा में अनुशासन बनाये रखना है। यदि कोई सदस्य अनुचित व्यवहार करता है तो वह उसे निष्कासित कर सकता है। अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार प्राप्त है। लोकसभा भंग हो जाने और नई लोकसभा के प्रथम अधिवेशन तक अध्यक्ष अपने पद पर रहता है। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का वेतन और भत्ता संसद निश्चित करती है। एक वर्ष में दो बार अधिवेशन अवश्य होता है। इसका अधिवेशन राष्ट्रपति बुलाता और विसर्जित करता है। संविधान के अनुसार लोकसभा की कार्यवाही चलाने के लिए उसकी कुल सदस्य संख्या का दसवाँ भाग सदन में अवश्य उपस्थित होना चाहिए।

राज्यसभा का गठन- यह संसद का उच्च सदन कहलाता है। इसमें संघ के विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। यह एक स्थायी संस्था है। यह कभी भंग नहीं होती, किन्तु इसके एक- तिहाई सदस्य दो वर्ष बाद पद त्याग करते रहते हैं और इनके स्थान पर नये सदस्य चुन लिये जाते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं द्वारा प्रत्यक्ष विधि द्वारा किया जाता है। राज्यसभा में अधिक से अधिक 250 सदस्य होते हैं। इनमें 238 सदस्य राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाते हैं। ये सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान प्राप्त व्यक्ति होते हैं। भारत का उपराष्ट्रपति इसका सभापति होता है। राज्यसभा के सदस्य अपने में से एक उपसभापति भी चुन लेते हैं। सभापति का कार्य-काल 5 वर्ष होता है। सभापति बैठकों की अध्यक्षता करता है। वह सभा में अनुशासन स्थापित करता है। वह अनुचित प्रश्न करने पर सदस्य को बैठने का आदेश दे सकता है। अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार प्राप्त है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति उसके कार्यों को करता है। दोनों की अनुपस्थिति में राज्यसभा द्वारा नियुक्त कोई सदस्य इस पद पर कार्य करेगा।

भारत की संसद की शक्तियाँ तथा कार्य

भारत की संसद अत्यन्त शक्तिशाली है। परन्तु यह शक्ति असीमित सम्प्रभु भी नहीं है। इसके निम्नलिखित कार्यों का वर्णन हम यहाँ करेंग:-

(i) विधि- निर्माणसम्बन्धी अधिकार- भारतीय संसद को कानून बनाने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया गया है। संविधान के विधि-निर्माण के विषयों को तीन सूचियों में रखा गया है-

(अ) संघ सूची- इसमें भारतीय सुरक्षा, आणविक शक्ति, युद्ध और शान्ति आदि विषय आते हैं। इन विषयों पर केवल संसद ही कानून बना सकती है। राज्य सरकारों को इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार नहीं है।

(ब) राज्य सूची- इसके अन्तर्गत आने वाले विषयों पर. राज्यों के विधानमण्डलों को कानून बनाने का अधिकार होता है। परन्तु कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में संसद राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है; जैसे-संकटकालीन स्थिति में।

(स) समवर्ती सूची- इसके अन्तर्गत आनेवाले विषयों पर राज्यों के विधानमण्डल और संसद दोनों ही कानून बना सकते हैं।

(ii) कार्यपालिकासम्बन्धी अधिकार- संसद का कार्य यह जानकारी करना भी है कि उसके द्वारा बनाये कानूनों का ठीक से पालन हो रहा है अथवा नहीं। वह देखती है कि कार्यपालिका नियमानुसार कार्य कर रही है कि नहीं। मन्त्रिपरिषद् के गठन में संसद महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। संसद के बहुमत दल का नेता ही प्रधानमन्त्री बनता है। संसद मन्त्रिपरिषद् और कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है।

(iii) वित्तसम्बन्धी अधिकार-आर्थिक क्षेत्र में भी संसद को काफी अधिकार प्राप्त है। लोकसभा राज्यसभा से अधिक वित्तीय अधिकार रखती है। राष्ट्रीय आय-व्यय के प्रारूप (बजट) को स्वीकृत करने का कार्य भी संसद का ही है। केन्द्रीय सरकार का वित्त मन्त्री प्रतिवर्ष बजट को संसद में प्रस्तुत करता है। बजट में आय-व्यय के अनुमान के सम्बन्ध में दो प्रकार की रकमें दिखाई जाती हैं-भारत की संचित निधि जिसमें राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को वेतन और भत्ते मिलते हैं। बजट के इस भाग पर संसद में केवल बहस हो सकती है, मतदान नहीं। इन मदों में संसद को कटौती का अधिकार नहीं है।

(iv) संविधान में संशोधन का अधिकार- संसद को विशेष परिस्थितियों में संविधान में संशोधन का भी अधिकार प्राप्त है। संशोधन की दृष्टि से विभिन्न विषयों को तीन कोटियों में बाँटा गया है-प्रथम कोटि में वे विषय आते हैं जिनमें संसद कोई संशोधन नहीं कर पाती; जैसे-नागरिकों को मूलाधिकार। इन मूलाधिकारों को संसद स्थगित अवश्य कर सकती है। दूसरी कोटि में वे विषय आते हैं जिनमें संशोधन के लिये राज्यों की स्वीकृति अनिवार्य है। तीसरी कोटि के विषय में संसद स्वेच्छा से संशोधन कर सकती है। इस प्रकार के संशोधन भी संसद के दोनों सदनों की कुल संख्या के बहुमत या उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुत से है किये जा सकते हैं।

(v) निर्वाचनसम्बन्धी अधिकार- संसद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेती है।

(vi) अन्य अधिकार- उपर्युक्त अधिकारों के अतिरिक्त संसद को अन्य अधिकार भी प्राप्त हैं, जैसे-राष्ट्रपति पर दोषारोपण या महाभियोग की जाँच संसद ही करती है। उच्चतम न्यायालय परीक्षक को हटाने का कार्य भी संसद करती है। अधिकारियों एवं सदस्यों आदि की योग्यता, वेतन और भत्तों आदि का निश्चय भी संसद द्वारा ही होता है।

सारांश में हम कह सकते हैं कि भारतीय संसद अत्यन्त शक्तिशाली है। संविधान द्वारा उसे विस्तृत शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। परन्तु इसके अधिकार ब्रिटिश संसद की अपेक्षा कम है।

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Pankaja Singh

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