राजनीति विज्ञान

व्यवस्थापिका किसे कहते हैं  | व्यवस्थापिका का महत्व | व्यवस्थापिका का संगठन | व्यवस्थापिका की रचना | व्यवस्थापिका के कार्य

व्यवस्थापिका किसे कहते हैं  | व्यवस्थापिका का महत्व | व्यवस्थापिका का संगठन | व्यवस्थापिका की रचना | व्यवस्थापिका के कार्य

भूमिका (व्यवस्थापिका किसे कहते हैं )

सरकार राज्य के प्रमुख तत्वों में से एक है। बहुधा लोग राज्य और सरकार को एक ही चीज समझते है; परन्तु इन दोनों में अन्तर है। इस प्रकार यह एक ऐसी संस्था है जिस पर, राज्य के कानून बनाने, उनका पालन कराने तथा उनका पालन न करने वालों को उचित दण्ड देने का दायित्व होता है। सरकार के इन तीनों कार्यों के लिए उसके तीन अलग-अलग अंग होते हैं-

(अ) व्यवस्थापिका (Legislature), (ब) कार्यपालिका (Executive) और (स) न्यायपालिका (Indiciary)।

व्यवस्थापिका का महत्व-

त्यवस्थापिका सरकार का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग है। यह कानून बनाती है जिनके द्वारा कार्यपालिका शासन चलाती है और न्यायपालिका उनका उल्लंघन करने वालों को दण्ड देती है।

प्रजातन्त्र में व्यवस्थापिका का जो विशेष महत्त्व है वह तानाशाही और अधिनायकतन्त्र में नहीं रहता। अध्यक्षात्मक सरकारों में भी व्यवस्थापिका का महत्त्व होता है। संसदात्मक सरकारो में व्यवस्थापिका का महत्त्व कार्यपालिका और न्यायपालिका से अधिक होता है। व्यवस्थापिका को विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है.-जैसे संसद, कांग्रेस एवं जनरल एसेम्बली आदि।

व्यवस्थापिका का संगठन-

व्यवस्थापिका या तो एकसदनीय या द्विसदनीय है। एक सदन वाली व्यवस्थापिका को एक सदनीय व्यवस्थापिका कहा जाता है। दूसरे प्रकार की व्यवस्थापिका में दो सदन होते हैं | आरम्भ में संसार के अधिकांश देशों में एकसदनीय व्यवस्थापिका थी परन्तु आज स्थिति यह है कि कुछ छोटे देशों को छोड़कर अधिकांश देशों में द्विसदनीय व्यवस्थापिकाएँ विद्यमान हैं। द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के एक सदन को निम्न सदन, दूसरे को उच्च सदन कहते हैं। प्रायः प्रत्येक देश में निम्न सदन जन-साधारण का प्रतिनिधित्व करता है और उच्च सदन जनता के कुछ विशिष्ट वर्गों का । जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करने के कारण निम्न सदन उच्च सदन से प्रायः अधिक शक्तिशाली और अधिकारसम्पन्न होता है।

व्यवस्थापिका की रचना- 

जहाँ तक प्रथम सदन की रचना का प्रश्न है, सभी जगह उसकी रचना देश की जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों से होती है। द्वितीय सदन की रचना में अवश्य भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों का पालन किया है।

व्यवस्थापिका के कार्य-

विभिन्न प्रकार की शासन-व्यवस्था में व्यवस्थापिका के कार्य भिन्न- भिन्न होते हैं। आधुनिक राज्यों में व्यवस्थापिका के मुख्य-मुख्य कार्य निम्नलिखित होते हैं:-

(1) विधि-निर्माणका कार्य- व्यवस्थापिका का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कानूनों का निर्माण करना है। विधि- निर्माण में स्थापिका विधि का उद्देश्य, रूपरेखा तथा मसविदा तैयार करती है तथा उस पर वाचन कराती है।

(2) बजट पर नियंत्रण- वर्तमान प्रजातंत्र- प्रणाली में व्यवस्थापिका बजट पर भी नियन्त्रण रखती है। समस्त राष्ट्र की अर्थव्यवस्था व्यवस्थापिका-सभा के ही अधीन होती है। व्यवस्थापिका बजट के स्वरूप को निश्चित करती है और धन-संग्रह और धन के व्यय की स्वीकृति भी देती है।

(3) कार्यपालिका पर नियन्त्रण- व्यवस्थापिका का एक मुख्य कार्य कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना है। भारत में संसद कार्यपालिका पर निम्नलिखित उपायों द्वारा नियन्त्रण रखती है:-

(i) प्रश्न काल द्वारा, (ii) कटौती के प्रस्ताव द्वारा,(iii) अविश्वास के प्रस्ताव द्वारा।

(4) न्यायिक कार्य- विभिन्न देशों में यह न्यायिक कार्य भी करती है।

(5) निर्वाचनसम्बन्धी कार्य- भारतीय संसद तथा राज्यों के विधानमण्डल राष्ट्रपति को निर्वाचित करते हैं।

(6) संविधान में संशोधन का कार्य- सभी देशों में व्यवस्थापिका सभा संविधान में संशोधन कर सकती है।

(7) कठिनाइयों पर विचार- व्यवस्थापिका सभाओं में जनता की शिकायतों को रखा और सुना जाता है तथा उनका निराकरण भी किया जाता है।

(8) आयोगों की नियुक्ति- व्यवस्थापिका प्रशासनिक कार्यों की जाँच तथा अनेकानेक कार्यों के लिए समय-समय पर आयोगों की नियुक्ति करती है।

आधुनिक युग में राज्य सरकारों के कार्यों में वृद्धि के साथ-साथ व्यवस्थापिका के कार्यों में वृद्धि हो गई है। परिणामस्वरूप कार्यपालिका के कार्यों पर कार्यपालिका का नियन्त्रण बढ़ता जा रहा है।

इस प्रकार कह सकते हैं कि आज प्रजातन्त्र के युग में व्यवस्थापिका का बहुत महत्त्व है और इसका होना प्रजातन्त्र के लिये आवश्यक भी है। व्यवस्थापिका प्रजातन्त्र की पूरक है।

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Pankaja Singh

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