राजनीति विज्ञान

व्यवस्थापिका प्रणाली का महत्त्व | एक सदनीय प्रणाली के पक्ष में तर्क | द्वितीय व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क | द्विसदनीय प्रणाली के विपक्ष में तर्क

व्यवस्थापिका प्रणाली का महत्त्व | एक सदनीय प्रणाली के पक्ष में तर्क | द्वितीय व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क | द्विसदनीय प्रणाली के विपक्ष में तर्क

व्यवस्थापिका प्रणाली का महत्त्व

व्यवस्थापिका के दो मुख्य प्रकार देखने को मिलते हैं- एक सदनीय और द्विसदनीय । जहां पर एक सदन होता है उसे एकसदनीय व्यवस्थापिका कहा जाता है तथा जहाँ पर दो सदन  होते हैं उसे द्विसदनीय व्यवस्थापिका के नाम से पुकारा जाता है। प्रारम्भ में संसार के अधिकांश देशों में एकसदनीय व्यवस्थापिका प्रणाली प्रचलित थी। परन्तु आजकल कुछ देशों को छोड़कर अधिकांश देशों में द्विसदनीय व्यवस्थापिका प्रणाली प्रचलित है। जैसे हालैण्ड में हाउस ऑफ कामन्स और हाउस ऑफ लाईस अमरीका में सीनेट और प्रतिनिधि सभा तथा भारत में राज्यसभा और लोकसभा।

व्यवस्थापिका एकसदनीय हो या द्विसदनीय, इस विषय पर विभिन्न राजनीतिशास्त्रियों में मतभेद है। यहाँ हम नीचे एकसदनीय और द्विसदनीय व्यवस्थापिकाओं के पक्ष और विपक्ष में तर्कों का अध्ययन करेंगे।

एक सदनीय प्रणाली के पक्ष में तर्क

कुछ विद्वानों ने एक सदनीय प्रणाली के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये हैं:-

(1) द्वितीय सदन की अनुपयोगिता- प्रत्येक  विद्वानों के अनुसार व्यवस्थापिका का द्वितीय सदन अनुपयोगी तथा उद्देश्यहीन है।

(2) व्यवस्थापिका में एकरूपता- एक सदनीय प्रणाली व्यवस्थापिका में एकरूपता लाती है।

(3) अपव्यय- आधुनिक राज्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति एकसंदनीय व्यवस्था से भी हो सकती है, इससे द्विसदनीय व्यवस्था पर होने वाले अपव्ययं से बचा जा सकता है।

(4) उत्तरदायित्व की भावना- एक सदन में उत्तरदायित्व की पूर्ण भावना रहती है।

(5) गतिरोध का अभाव- दो सदनों के होने से गतिरोध की सम्भावना बनी रहती है। एकसदनीय प्रणाली में ऐसा अवसर नहीं आता।

(6) द्वितीय सदन अनावश्यक- किसी विधेयक को बड़े वाद-विवाद के पश्चात् ही पास किया जाता है; अतः उस पर पुनर्विचार के लिए द्वितीय सदन. अनावश्यक है। यह समस्त कार्य एक सदन भी सुचारू रूप से कर लेता है।

अब हम द्विसदनीय प्रणाली के पक्ष-विपक्ष में तर्कों का अध्ययन करेंगे।

द्वितीय व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क

द्वितीय व्यवस्थापिका के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं:-

(1) निचले सदन की जल्दबाजी पर रोक- कई बार निचला सदन जल्दबाजी और आवेश में बिना पूर्ण विचार किये किसी कानून को पास कर देता है। इस प्रकार के कानूनों को उच्च सदन होने से पास होने से रोका जा सकता है।

(2) कानून पर सुधारात्मक प्रभाव- जिस प्रकार किसी बात पर दो आदमी अलग-अलग विचार करके अच्छे निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं; उसी प्रकार किसी कानून पर एक सदन की अपेक्षा दो सदन विचार करें तो अधिक अच्छे निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं और कानून में त्रुटियों की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है।

(3) सदस्यों की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश- एकसदनीय व्यवस्थापिका में सदस्य स्वेच्छाचारी और निरंकुश हो सकते हैं। किन्तु द्वितीय सदन होने से ऐसा सम्भव नहीं हो पाता और वह अंकुश का कार्य करता है।

(4) विशेष हितों की रक्षा- सभी वर्गों के प्रतिनिधि निचले सदन में नहीं पहुंच पाते हैं। वर्ग विशेष को प्रतिनिधित्व देने हेतु उच्च सदन आवश्यक है।

(5) संघ की इकाइयों प्रतिनिधित्व- जिन देशों में संघात्मक शासन-व्यवस्था पूर्णतया उपयुक्त है, वहाँ पहले सदन में जनता के चुने प्रतिनिधि होते हैं तथा दूसरे सदन में राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है।

(6) कार्य के विभाजन- जिन विधेयकों पर कम मतभेद है उनको दूसरे सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे पहले सदन का कार्य हलका हो जाता है।

(7) स्थायित्व- द्विसदनात्मक व्यवस्था में एक प्रतिनिधि हो जाने के बाद भी दूसरा सदन ज्यों का त्यों बना रहता है। इस प्रकार व्यवस्थापिका के स्थायित्व हेतु द्वितीय सदन आवश्यक है।

(8) अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा- दूसरा सदन अल्पसंख्यकों के अधिकारों और स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।

(9) कार्यपालिका की शक्ति हेतु आवश्यक- द्विसदनीय-प्रणाली में कार्यपलिका ओपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली हो जाती है और वह राष्ट्र-निर्माण की योजनाओं में सुचारु रूप से कार्य कर पाती है।

(10) जनता का मत जानने के लिए आवश्यक- दूसरे सदन के विचार के समय जनता को भी उस विधेयक पर अपने विचार व्यक्त करने का अवसर मिल जाता है तथा इस प्रकार जनता का मत उस विधेयक के सम्बन्ध में ज्ञात हो जाता है। उसी प्रतिक्रिया पर विधेयक का भविष्य निर्भर करता है।

(11) सुयोग्य व्यक्तियों की सेवा प्राप्त करना सम्भव- योग्य और विद्वान् व्यक्ति राजनीति के दाँव-पेंचों से अनभिज्ञ होते हैं तथा चुनाव इत्यादि के पचड़ों में नहीं पड़ते; अतः इनकी सेवाओं को प्राप्त करना केवल द्विसदन में इनको प्रतिनिधित्व देकर सम्भव होता है।

द्विसदनीय प्रणाली के विपक्ष में तर्क

इसी प्रकार कुछ विद्वान द्विसदनीय प्रणाली के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते है:-

(1) अनावश्यक विस्तार- द्विसदनीय का होना अनावश्यक है। क्योंकि उससे व्यवस्थापिका के आकार में बेकार की वृद्धि होती है।

(2) आवेश और जल्दबाजी पर रोक नहीं- व्यवहार में यह देखा जाता है कि प्रथम सदन किसी कानून को अविचारपूर्ण ढंग से या जल्दबाजी में पारित ही नहीं करता; अतः द्वितीय सदन को इस प्रकार की रोक की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

(3) निरंकुशता को नहीं रोकता- व्यवहार में देखा गया है कि पहला सदन दूसरे सदन की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली होता है और दूसरे सदन के लिए पहले सदन पर नियन्त्रण रखना पूर्णतया असम्भव है।

(4) संघीय राज्यों के लिए भी अनावश्यक- यह मत भी पूर्णतया सही नहीं है कि संघीय राज्यों में विभिन्न राज्यों को प्रतिनिधित्व देने के लिए यह आवश्यक है। क्योंकि दूसरे सदन में भी पहले सदन की भाँति मत दलीय आधार पर पड़ते हैं न कि राज्यों के आधार पर।

(5) द्वितीय सदन की रचना में कठिनाई- द्वितीय सदन का गठन किस आधार पर किया जाय यह निश्चय करना बड़ा कठिन कार्य है।

(6) द्वितीय सदन की शक्तियों को निश्चित करना कठिन- दोनों सदनों की शक्तियों को सीमा निर्धारण का कार्य एक कठिन कार्य है। यदि दोनों की शक्तियाँ समान हो जाती हैं तो परस्पर विरोध की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं।

(7) अपव्यय होता है- द्वितीय सदन के गठन से व्यय में वृद्धि होती है जिससे जन-धन का अपव्यय होता है।

(8) विशेष वर्ग का प्रतिनिधित्व आवश्यक नहीं- विशेष वर्ग को प्रतिनिधित्व देने हेतु द्वितीय सदन की आवश्यकता नहीं है। बहुधा इसमें रूढ़िवादी व्यक्ति पहुँच जाते हैं।

(9) अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देना आवश्यक नहीं अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने हेतु द्वितीय सदन का गठन भी अनावश्यक है।

उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर कह सकते हैं कि द्विसदनीय-प्रणाली में अनेक दोष हैं किन्तु द्विसदनीय व्यवस्थापिका से हानि कम और लाभ अधिक है।

मेरियट का विचार है कि ऐतिहासिक अनुभव द्विसदनीय व्यवस्थापिका के पक्ष में हैं। आधुनिक युग में संसार के अधिकतर देशों में द्विसदनीय व्यवस्थापिका की स्थापना की गई है।

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Pankaja Singh

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