शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार का तात्पर्य | शिक्षा के समाकी आवश्यकत आधार के उद्देश्य
शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार का तात्पर्य
शैक्षिक समाजशास्त्र का अध्ययन होने से आज शिक्षा का एक आधार समाजशास्त्रीय हो गया है, अतः प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार का क्या तात्पर्य है ? साधारण शब्दावली में इसका अर्थ होता है शिक्षा की प्रक्रिया को समाजशास्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित करना शिक्षा की प्रक्रिया शिक्षक-शिक्षार्थी एवं समाज के पर्यावरण के बीच होती है। ऐसी स्थिति में समाजशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुकूल शिक्षा की प्रक्रिया को बनाया गया तथा उसके परिणामस्वरूप शिक्षा का समाजशास्त्रीय आधार बना ।
चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए मनुष्य की शिक्षा समाज पर आधरित होती है। समाजशास्त्र एवं समाज के लोगों के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन करता है और समाजशास्त्र एक विज्ञान है इसलिए शिक्षा की प्रक्रिया को स्थायी बनाने के विचार से उनका समाजशास्त्रीय आधार होना अनिवार्य है। समाजशास्त्रीय आधार होने से शिक्षा की विषयवस्तु, उसके साधन एवं अभिकरण, शिक्षार्थी, शिक्षक, मानक, मूल्य एवं आदर्श सभी समाज की आवश्यकताओं पर आश्रित होते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार होने का अर्थ यह होता है कि शिक्षा की प्रक्रिया समाज के स्वरूप, सामयिक परिवर्तन, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थितियों, लोगों की अभिवृत्तियों, परम्पराओं, माँगों आदि से पूर्णतया प्रभावित एवं निश्चित होती है। इसके अलावा दूसरी और समाज की रीतियाँ, प्रगति, सदस्यता एवं सदस्यों के आचार-विचार एवं व्यवहार पर नियंत्रण एवं अनुशासन के विकास पर शिक्षा का भी प्रभाव पड़ता है। ऐसी दशा में शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार की दशा में यह प्रभाव भी पाया जाता है।
शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार होने का तात्पर्य शिक्षा को ऐसा साधन बनाना है जिससे सभी व्यक्ति समाज की संस्कृति को आत्मसात करें, उसे सुरक्षित रखें, उसे पीढ़ी- दर-पीढ़ी प्रचलित तथा हस्तान्तरित करें और फलस्वरूप आधार का तात्पर्य है शिक्षा का व्यक्ति को पूर्णरूप से समाज का योग्य सदस्य बनाने तथा समाज को हमेशा के लिए कायम रखने की प्रक्रिया बनना।
शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार के उद्देश्य
शिक्षा का समाजशास्त्रीय आधार होने से शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है। इस दृष्टि से शिक्षा की विभिन्न समस्याओं का अध्ययन होता है और समाधान भी होता है। इससे समाज एवं शिक्षा दोनों की प्रगति होती है। समाज की माँगों की पूर्ति का प्रयत्न भी इसके द्वारा किया जाता है। अतएव स्पष्ट है कि शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार के कुछ निश्चित उद्देश्य होते हैं जो विद्वानों की राय में निम्नलिखित कहे जाते हैं-
(i) सामाजिक कारकों का अध्ययन करना जो शिक्षालय, शिक्षार्थी, शिक्षक को प्रभावित करते हैं।
(ii) शिक्षा के प्रति सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सामाजिक अभिवृत्तियों को धारण करने में सहायता देना।
(iii) व्यक्ति के कार्य-व्यवहार को प्रभावित करने वाले सभी सामाजिक साधनों नाता एवं शक्तियों का ज्ञान, विश्लेषण एवं अध्ययन करना।
(iv) व्यक्ति, शिक्षा की सामग्री, शिक्षा की विधि आदि को समाजीकृत करने का प्रयास करना।
(v) शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारकों के सम्बन्ध में प्रयोग, परीक्षण एवं शोध करना, नियम एवं उपनियम तैयार करना ।
(vi) समाज के प्रत्येक नागरिक के व्यक्तित्व का सर्वाङ्गीण विकास करना तथा उन्हें उपयोगी सदस्य के रूप में आगे बढ़ने में सहायता देना।
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