हिन्दी

प्रगतिवाद अथवा प्रयोगवाद का सामान्य परिचय | हिन्दी के प्रगतिवादी कवि और उनका काव्य | हिन्दी के प्रगतिवादी काव्य की विशेषतायें

प्रगतिवाद अथवा प्रयोगवाद का सामान्य परिचय | हिन्दी के प्रगतिवादी कवि और उनका काव्य | हिन्दी के प्रगतिवादी काव्य की विशेषतायें

प्रगतिवाद अथवा प्रयोगवाद का सामान्य परिचय

हिन्दी में प्रगतिवाद का आविर्भाव एवं क्रान्ति की कहानी है। मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित यह प्रगतिवाद छायावाद के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुआ था। छायावादी काव्य की रूमानी भावुकता और वैयक्तिकता एवं पलायन की प्रवृत्ति शनैः-शनैः अपना आकर्षण कम करती गयी क्योंकि डॉ0 रघुवंश के शब्दों में – ‘जीवन की अस्वीकृतियों को गौरवान्वित करके मानसिक कुण्ठाओं को छिपाकर कल्पना लोक के छायाभास और रहस्याभास के वैभव में अपने आपको रखना अधिक सम्भव नहीं था और सामाजिक भावनाओं के लिए अज्ञात अशरीर आलम्बन का रहस्यात्मक आधार भी अधिक टिकाऊ न सिद्ध हो सके। इसलिए डॉ0 रस्तोगी के शब्दों में (छायावाद की) सूक्ष्म आध्यात्मिकता एवं सौन्दर्य अशरीर कल्पना की उच्छङ्गल प्रवृत्तियों पर प्रगतिवाद एक प्रश्न चिन्ह की तरह टूट पड़ा।’

हिन्दी प्रगतिवाद की अवधि मात्र सात वर्ष की रही है। इस छोटी अवधि में अर्थात् 1936 ई. से 1943 ई. तक प्रगतिवाद का प्रभावी रूप काव्य की भूमि पर दृष्टिगत होता है।

प्रगतिवाद के तत्व-

प्रगतिवाद जीवन के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण लेकर उपस्थित हुआ। इसने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की ही भाँति अर्थ को सम्पूर्ण विशेषताओं का मूल कारण माना। इसलिए उसने भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाया और कला को अभिव्यक्ति का साधन मानकर उसके सहज, बोधगम्य स्वरूप को मान्यता प्रदान की। प्रगतिवाद का मूल उद्देश्य पूंजीवाद सामन्तवाद आदि प्रतिक्रियावादी तत्वों के सम्बद्ध सामाजिक, राजनीतिक नैतिक एवं साहित्यिक रूढ़ियों के विरोध द्वारा समाजवाद की स्थापना करना है।

हिन्दी के प्रगतिवादी कवि और उनका काव्य

‘गतिशील लेखक संघ’ ने प्रगतिवाद की आधारशिला रखी। ‘रूपाभ’ एवं ‘हंस’, आदि पत्रों ने प्रगतिशील विचारों का प्रकाशक प्रारभ किया और प्रगतिवादी काव्य के प्रवर्तन का कार्य सुमित्रानन्दन पन्त ने किया। उन्होंने छायावादी काव्य की रूमानी प्रवृत्तियों को तिलांजलि देकर ‘युगांत’ की घोषणा की। ‘युवावाणी’ का शंखनाद किया और ‘ग्राम्या’ की अनुभूतियों को लेकर वे काव्य-क्षेत्र में आगे बढ़े।

  1. सुमित्रानन्दन पन्त- पन्तजी श्रमिकों एवं किसानों की दीन-दशा देखकर क्षुब्ध हो उठे उन्होंने उनके दर्द को समझा और उसे वाणी देने का प्रयास किया। वर्गसंघर्षों के प्रति वे सचेष्ट हुए और जीवन के यथार्थ की ओर उन्मुख होने का प्रयास किया। उन्होंने आकाश को छोड़कर पृथ्वीवासियों की ओर ध्यान दिया-

‘ताक रहे हो गगन? मृत्यु नीलिमा गहन गगन,

निरचन्द, शून्य नित्य, निःस्वप्न ? देखी भू को, स्वर्गिक भू को,

मानव पुण्य प्रसू को।

‘ग्राम्या’ में तो कवि ने ग्राम्य-जीवन का दर्शन किया है। इसमें कवि ने ग्रामीण जीवन में विभिन्न रूपों का चित्र उपस्थित किया है। कवि पीड़ा, दुःख और दैन्य से भरे हुए ग्राम्य के प्रति संवेदनशील है-

मनुष्यत्व के मूल तत्व ग्रामों में ही अन्तर्हित।

उपादान भावी संस्कृत के भरे यहाँ अविकृत॥

अकथनीय शुद्धता, विवशता भरी यहाँ के जग में।

गृह-गृह में कलह, खेत में कलह, कलह मग में।।

  1. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला-निराला जी ने प्रगतिवादी विचार को पुष्ट कर उसका संवर्धन किया है। उन्होंने दीन-दुखियों एवं सर्वहारा की करूणा को बड़े ही मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्त की है। ‘विधवा’, ‘वह तोड़ती पत्थर’ आदि कविताएँ उनकी उच्चकाटि की प्रगतिवादी कविताएँ हैं। भिक्षुक कविता में भिक्षुक की दीनावस्था का वर्णन देखिए-

दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक॥

मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को।

मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता।।

  1. रामधारी सिंह ‘दिनकर’-दिनकर जी ने प्रगतिवाद को सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना के रूप में उपस्थित किया है। ग्रामीण जनता के दुःखों को देखकर उनका हृदय चीत्कार करता है। ग्रामीण की वेदनाएं, भूख से व्याकुल बच्चे, नंगी भूखी माताएँ, अपाहिज लोगों का कष्ट उनके हृदय को झकझोर देते हैं और फलतः उनकी वाणी दीन-हीनों के गीत गाने लगी। ‘हुंकार’, ‘रेणुका’, कुरुक्षेत्र ‘नीलकमल’ ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ तथा ‘धूप और धुआँ’, आदि प्रगतिवादी काव्यों की सर्जना हुई।

श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं।

माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं।

युवती की लज्जा वसन बेच, जब ब्याज चुकाये जाते हैं।

मालिक तब तेल-फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य बहाते हैं।

  1. शिवमंगल सिंह सुमन-सुमनजी मार्क्सवाद के प्रबल पोषक एवं समर्थक हैं। उनके विचार से मार्क्सवाद ही दीन-दलितों का उद्धारक है। इसलिए उनका उद्घोष है कि-

युगों की खड़ी रूढ़ियों को कुचलती, लहर भी लहर से सदा ही मचलती।

अँधेरी निशा मशालों से मचलती। चली आ रही बढ़ी लाल सेना।

  1. नरेन्द्र शर्मा- ‘पलाश-वन’ और ‘मिट्टी का फूल’ शर्माजी की प्रगतिवादी रचनाओं के संग्रह हैं। इन संग्रहों की कविताओं में समाज के दीन-हीनों के कष्टों को वाणी मिली है और साथ ही साथ उन्होंने प्राचीन रूढ़ियों का विरोध किया है। अर्थव्यवस्था के वैषम्य को लक्ष्य कर वे लिखते हैं-

एक व्यक्ति संचित करता है, अर्थ कर्म के बल से।

और भोगता उसे दूसरा, अरे भाग्य के छल से॥

शर्माजी अपना लाल निशान नामक कृति में यहाँ तक कहते हैं कि-

लाल रूस का दुश्मन साथी,

दुश्मन सब इन्सानों का।

इस प्रकार ‘अंचल’ के काव्य में क्रान्ति का उद्घोष सुनायी पड़ता है। विश्वास है कि वह दिन दूर नहीं जब समाज की ये वेश्यायें ज्वालामुखी बनकर सम्पूर्ण समाज को जलाकर राख कर देंगी-

क्रान्ति का तूफान जब विश्व को हिलायेगा,

ये बाजार की असंस्कृता निर्लज्ज नारियाँ।

जो कि योनि मात्र रहकर बनेंगी प्रदीप्त,

उगलेंगी       ज्वालामुखी॥

हिन्दी के प्रगतिवादी काव्य की विशेषतायें

प्रगतिवाद का मूल उद्देश्य किसान-मजदूर और ग्रामीणों के प्रति सहानुभूति तथा पूँजीपतियों के प्रति घृणा प्रकट करना ही रहा है। इस नवीन धारा के लक्षण, शीघ्र ही साहित्याकाश में मंडराने लगे। हिन्दी के कवि इस धारा की ओर आकृष्ट हुए और हिन्दी में भी प्रगतिवादी काव्य का प्रणयन हुआ। इस धारा की कतिपय विशेषताएं निम्न हैं-

  1. क्रान्ति का भावना- प्रगतिवादी काव्य का मूलमन्त्र है क्रान्ति। वे सामन्तवाद के विनाश के लिए क्रान्ति को अवश्यम्भावी मानते हैं। इसलिए प्रगतिवादी क्रान्ति के गीत गाता है। बच्चन का क्रान्तिकारी गीत देखिए-

उस समय से मोरचा ले, धूलधूसर वस्त्र मानव।

देह पर फबते नहीं हैं, देह के ही रक्त से तू देह के कपड़े रंगा ले।

  1. पाशववादी विचारधारा का विरोध- हिन्दी का प्रगतिवादी काव्य पाशववादी विचारधारा का घोर विरोधी है। दिनकर जी फासिस्टवाद का विरोध करते हुए लिखते हैं-

राइन तट पर लिखी सभ्यता, हिटलर खड़ा कौन बोले?

सस्ता खून यहूदी का है, नाजी निज स्वस्तिक खोले।

  1. साम्राज्यवाद का विरोध-प्रगतिवादी कवि साम्राज्यवाद का विरोधी है। उसके अनुसार पूँजीवाद के साथ साम्राज्यवाद का भी महल ढहना जरूरी है, क्योंकि साम्राज्यवाद का कार्य ही विषवमन करना है-

मरणासन्न साम्राज्य, कर वन्हि विष-वर्णन।

अन्तिम रण को है सचेष्अ रच निज-विनाश आयोजन।।

निष्कर्ष :

उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि जब छायावाद अपनी अत्यधिक कल्पनाप्रियता, अवैज्ञानिकता एवं एकांगिता के कारण जनमानस को सनतुष्ट न कर सका फलतः इसकी प्रतिक्रिया हुई, उसमें परिवर्तन आया। परिवर्तन की यह धारा समाज और राजनीति के कछारों को स्पर्श करती हुई जब आगे बढ़ी तो जन-जीवन का लिपिबद्ध चित्र साहित्य भी उसके विस्तार के भीतर समा गया और राजनीति जगत का मार्क्सवाद साहित्यिक जगत में प्रगतिवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसमें छायावादी प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त थी। छायावादी कवि जीवन के संघर्ष से दूर भागते थे, किन्तु प्रगतिवाद के संघर्ष और क्रान्ति में इस समस्या का समाधान ढूंढ निकाला। अब छायावाद की काल्पनिकता के स्थान पर यथार्थता तथा कलात्मकता के स्थान पर स्पष्टता को स्थान दिया गया। इस प्रकार परमुखापेक्षिता और अवशता का स्थान संघर्ष, विद्रोह और क्रान्ति ने ले लिया। यही कारण है कि हिन्दी के प्रगतिवादी काव्य में क्रान्ति का स्वर अत्यधिक बुलन्द हुआ है। बाबू गुलाबराय के शब्दों में- प्रगतिवाद हमको स्वार्थपरायण व्यक्तिवाद से हटाकर समष्टिवाद की ओर ले जाता है। उसने साहित्यिकों को शय्यासेवी अकर्मण्य नहीं रखा है।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!