अर्थशास्त्र

साम्प्रदायिकता का अर्थ | साम्प्रदायिकता के कारण | साम्प्रदायिकता को दूर करने के उपाय

साम्प्रदायिकता का अर्थ | साम्प्रदायिकता के कारण | साम्प्रदायिकता को दूर करने के उपाय

साम्प्रदायिकता का अर्थ

पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने स्वाधीनता पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा। – “साम्प्रदायिक असहिष्णुता देश के ताने-बाने में खतरा पैदा कर सकता है। सूखे और बाढ़ की तरह सम्प्रदायिक दंगे भी देश के समक्ष चुनौती हैं।”

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी लाल किले से अपने भाषण में कहा था – “साम्प्रदायिकता और जातिवाद ने किस प्रकार लोगों को बाँट दिया है।” एक सभ्य समाज में ऐसी हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।”.

वास्तव में साम्प्रदायिकता के विषबीज ढूढ़ने के लिए हमें ब्रिटिश राज के पन्ने पलटने होंगे। अंग्रेजों ने भारत में ‘फुट डालों और राज करो’ (Divide and rule) की नीति अपनाकर हिन्दू व मुस्लिम समुदाय में एक विभाजन को जन्म दिया जिसकी परिणिति पाकिस्तान के निर्माण में हुई। पर, क्या इससे साम्प्रदायिकता कम हो गई? क्या इससे शांति स्थापित हो गई? बी.जे. गोखर ने तब आर्शीवाद का सहारा लेकर कहा था कि “संविधान में धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त स्थापित करके साम्प्रदायिकता समाप्त हो जाएगी, राजनीति से धर्म के अलग हो जाने से हिन्दू और मुसलमानों के पुराने विरोध फिर कभी न उत्पन्न होंगे। लेकिन यह आशा भी निर्मूल साबित हुई। पिछले वर्षों के सारे घटनाक्रों में साम्प्रदायिकता हिंसा का जमकर ताडव हुआ। हिन्दू व मुसिलमों से आगे बढ़कर यह साम्प्रदायिक संघर्ष सिखों व ईसाइयों तथा बहुसंख्यक हिन्दुओं के मध्य तक आया। देश का संघर्ष राष्ट्रीय समस्याओं से न होकर साप्रदायिक हिंसा से हो गया जो कभी भी, कहीं भी भड़क जाती है। राजनीतिक चेतना शून्य हो गई और धार्मिक समुदायों ने साम्प्रदायिकता का खतरनाक खेल खेलना शुरू कर दिया है। इसमें राजनीतिक संरक्षण ने भी अपनी हिस्सेदारी निभाई। घृणा व पृथकतावाद ने हिंसा को जन्म दिया। यह हिंसात्मक गतिविधियों के आधार हैं। इसी सन्दर्भ में गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों व कश्मीर के आतंकवादी गुटों को देखा जाना चाहिए।

साम्प्रदायिकता की परिभाषा करते हुए विन्सेण्ट स्मिथ ने कहा – “एक साम्प्रदायिकता व्यक्ति या व्यक्ति समूह वह है जो कि प्रत्येक धार्मिक अथवा भाषाई समूह को एक ऐसी पृथक् सामाजिक तथा राजनीतिक इकाई मानता है जिसके हित अन्य समूहों से पृथक् होते हैं और उनके विरोधी भी हो सकते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों अथवा व्यक्ति समूह की विचारधारा को सम्प्रदायवाद या साम्प्रदायिकता कहा जायगा।’ साम्प्रदायिकता में समूह के, सम्प्रदाय के संकीर्ण हितों को पूरा करने के लिए देश के हितों, राष्ट्रीय उद्देश्यों की भी उपेक्षा कर दी जाती है।

साम्प्रदायिकता के कारण

  1. पाकिस्तान द्वारा दुष्प्रचार- पाकिस्तान का निर्माण घृणा व साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ। जिन्ना, सोहरावर्दी और यहाँ तक कि अल्मा इकबाल ने वर्षों तक इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को एक अलग समुदाय मान कर, एक अलग देश की माँग की। लेकिन पाकिस्तान बनने से नफरत की आग ठंडी नहीं हुई। पाकिस्तानी नेता, पाकिस्तान के प्रचार माध्यम जैसे समाचार-पत्र, रेडियो, टेलीविजन आदि द्वारा भारत के विरुद्ध निरन्तर दुष्प्रचार करते रहते हैं। भारतीय मुसलमानों को भड़काने में पाकिस्तान का अहम् रोल है। पाकिस्तान की विदेशी नीति का एकसूत्रीय कार्यक्रम है – भारत निरन्तर आलोचना करना। पाकिस्तान का एकमात्र लक्ष्य है भारत को अस्थिर करना। भारत में आतंकवादी गतिविधियाँ पाकिस्तान द्वारा संचालित होती हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव तो दूर उल्टे नफरत की आग को भड़काने में पाकिस्तान बढ़-चढ़कर भाग लेता है। पाकिस्तान के साथ-साथ अब सभी इस्लामिक संगठन केवल एक लक्ष्य में लगे हैं और वह है ‘जेहाद’।
  2. मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता- भारत की स्वाधीनता के साथ एक दुःखद घटना भी हुई है – वह है भारत का विभाजन। पाकिस्तान का निर्माण धार्मिक कट्टरता का परिणाम था, पर पाकिस्तान बनने के बाद भी भारत में रह रहे मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता उदार नहीं हुई, बल्कि और हुई। वे जामा मस्जिद के इमाम के फतवे पर वोट देते हैं, मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई परिवर्तन नहीं करने देना चाहते, शाह बानों के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं। वे स्वयं को राष्ट्र में एक अलग इकाई के रूप में देखते हैं। जब तक भारतीय मुसलमान राष्ट्रहित व देश को अपनी सोच का मुख्य उद्देश्य नहीं मानेगा, तब तक साम्प्रदायिकता का हल असंभव है।
  3. आर्थिक व शैक्षणिक पिछड़ापन- मुस्लिम समाज का आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ापन उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर करता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् समाज में जिस अनुपात से विभिन्न वर्गों में (चाहे फिर वह हिन्दू धर्म की पिछड़ी जातियाँ ही क्यों न हों) शिक्षा का प्रसार हुआ उनका आर्थिक स्तर ऊपर उठा है उस अनुपात में मुस्लिम सम्प्रदाय में विकास नहीं हुआ। आंकड़े बताते हैं कि हिन्दू व मुसलमानों के सामाजिक व आर्थिक विकास में भिन्नता 1990 तक भी कम नहीं हुई, बल्कि भारतीय मुस्लिम समुदाय की स्थिति इस दशक के अंत तक भी खराब बनी रही। दोनों समुदायों की साक्षरता बढ़ी है पर ग्रामीण क्षेत्रों में दोनों के बीच का अनुपात वैसे का वैसा है। नगरों व शहरों में 1993-94 से यह अनुपात थोड़ा कम हुआ है। मुस्लिम परिवारों में आज भी महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत अत्यन्त कम है। यही स्थिति आर्थिक क्षेत्र में भी है। शिक्षा के अभाव में मुस्लिम समुदाय ने नौकरियों या उच्च स्तरीय व्यवसाय में सफलता प्राप्त नहीं की। कमजोर आर्थिक स्थिति साम्प्रदायिकता बनाने व बिगाड़ने में मददगार रही। ज्यों-ज्यों आर्थिक विषमताएं बढ़ीं, दोनों समुदायों के बीच खाई बढ़ी, त्यों-त्यों साम्प्रदायिकता को फैलाने में मदद मिली। जेब खाली हो, रोजगार न हो, शिक्षा के अभाव में विचार प्रक्रिया न हो तो कोई भी किसी तरह के भड़कावे में आ सकता है। जब तक मुस्लिम समुदाय की आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति में बुनियादी बदलाव नहीं आता तब तक, साम्प्रदायिक सद्भाव की बात करना निरर्थक है।

शासन की उदासीनता- साम्प्रदायिकता को दूर करने में शासन की कोई विशेष सक्रिय भूमिका नहीं रही। सामान्य सी घटना से उपजे साम्प्रदायिक दंगों को दबाने में शासन कभी इतना दबंग साबित नहीं हुआ कि दोबारा कोई दंगा करने का साहस न कर सके। वर्षों तक अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण होता रहा। इसी तुष्टीकरण के तहत शाहबानो प्रकरण, बाबरी मजिस्द कमेटी, यहाँ तक कि कश्मीर के आतंकवाद में भी एकसूत्रता दिखाई देती है। हिन्दू धर्म के कानूनों में तो समय-समय पर परिवर्तन हुए हैं किन्तु कोई भी मुस्लिम पर्सनल लॉ एकता स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान उत्पन्न हुई थी, वह आजादी पाने के लिए लड़खड़ाने लगी थी। उस समय भारत में भाषावाद, क्षेत्रीयतावाद, जातिवाद उग्रवाद पृथकतावाद और साम्प्रदायिकता आदि को लेकर विभिन्न स्थानों पर आन्दोलन, संघर्ष और खूनी दंगे हुए थे। इस प्रकार की विघटनात्मक घटनाओं की रोकथाम करने तथा राष्ट्रीय एकीकरण को प्रोत्साहित करने के उद्देश्यवश भारत सरकार ने 15 मई, 1960 ई. को भावात्मक एकीकरण समिति (Emotional Integration Committee) की स्थापना की। इस समिति ने 1962 ई. में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। समिति के उद्घाटन के असवर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल लेहरू ने एकीकरण के विभिन्न सांस्कृतिक, शैक्षिक, भाषायी तथा प्रशासकीय पक्षों को स्पष्ट किया। नेहरू स्वयं भी राष्ट्रीय एकीकरण के प्रबल पक्षधर थे। भारत के 14वें स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से जारी अपने भाषण में उन्होंने राष्ट्रीय एकीकरण की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा था। कि “भारत में जबकि नए सूर्य का उदय हो रहा है, हम सभी के लिये यह उपयुक्त होगा कि हम सही मार्ग पर रहें, धीरे-धीरे एकता की ओर बढ़े, स्वतन्त्रता की रक्षा करें और राष्ट्रीय समृद्धि के लिये कार्य करें।”

साम्प्रदायिकता को दूर करने के उपाय

साम्प्रदायिकता एक पतनशील समाज का लक्षण है। जहाँ व्यक्तिगत स्वार्थ के साथ सामूहिक स्वार्थ जुड़ जाता है, वहाँ साम्प्रदायिकता आ जाती है। आज देश में आर्थिक संघर्ष में वर्ग संघर्ष का नहीं बल्कि धार्मिक संघर्ष का खतरा मंडरा रहा है। यह हमारे लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है। समय रहते इसका उपचार ढूंढ़ना होगा –

(1) भारतीय मुसलमानों को पिछले अनुभवों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचाना होगा कि भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज का दार, सहिष्णु तथा धर्म निरपेक्ष चरित्र वास्तविकता है। किसी भी कारण से असुरक्षा की भावना से ग्रसित होकर तीव्र प्रतिक्रिया करना तथा हिंसात्मक गतिविधियाँ करना उचित नहीं है।

(2) शिक्षा मानसिक जागरूकता लाती है। शिक्षा से बौद्धिक चेतना बढ़ती है और हम दूसरों के दृष्टिकोण को भी समझ पाते हैं। आर्थिक प्रगति से भी संकीर्ण विचारों से मुक्ति मिलती है। आर्थिक व सामाजिक बदलाव से साम्प्रदायिक गतिविधियों को विराम मिलेगा।

(3) राष्ट्रवादी विचारधारा – भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने सम्प्रदाय, धर्म व जाति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय आदर्शों के प्रति क्रियाशील होना होगा। पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीयता के आदर्शो का पतन हुआ है। राष्ट्रीयता का भाव कमजोर हुआ है। इसलिए सभी अलगाववादों से उभरकर राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च मानना होगा। किसी भी विदेशी शक्ति में इतना बल नहीं होगा कि वह हमारे राष्ट्रीय मानदण्डों को हिला सके।

चुनाव राजनीति में वोटों की राजनीति को अलग करना होगा। भारत में अधिकांश राजनीतिक दल और उनके नेता चुनावों में धर्म व सम्प्रदाय के आधार पर वोट मांगते हैं। वोटों के लिए विभिन्न धर्मों के अध्यक्षों से सम्पर्क किया जाता है। साम्प्रदायिक रूप से वोटों के थोकबन्द हो जाने की नीति पर प्रायः अधिकांश दल राजनीति करते हैं। इससे साम्प्रदायिकता बढ़ती है। सभी दल हिन्दु कार्ड, मुस्लिम कार्ड और अब ईसाई व सिख कार्ड खेलना बंद करें। राजनीति ताश के पत्तों का खेल नहीं, बल्कि कुछ आदर्शो, नैतिक मूल्यों और राष्ट्रीय हितों की संरक्षक होनी चाहिए।

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Pankaja Singh

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