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मानव संसाधन विकास | मानव संसाधन विकास का अर्थ एवं परिभाषाएँ | मानवीय सम्बन्ध का अर्थ एवं परिभाषाएँ | मानवीय सम्बन्धों की परिभाषा और उसकी परिभाषाएँ | मानवीय सम्बन्धों का महत्त्व | कार्य में मानवीय सम्बन्धों की मान्यताएँ | मानवीय सम्बन्धों के सिद्धान्त | मानवीय सम्बन्धों अवधारणा का उदय

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मानव संसाधन विकास

मानव संसाधन विकास आज के युग में पूरी दुनिया के उद्योग एवं श्रम बाजार में सर्वाधिक चर्चित विषय है। यद्यपे मोटे तौर पर मानव संसाधन विकास को औद्योगिक सफलता का पर्याय मान लिया गया है तथापि आज भी अधिकांशतः इसके लाभकारी स्वरूप के स्पष्टीकरण को लेकर उपापोह की स्थिति बनी रहती है। एक ओर तो इसे लाभ बढ़ाने का सिलसिलेवार युक्तियों के रूप में देखा जाता है वहीं दूसरी ओर श्रमिक कल्याण से भी जोड़ा जाता है। मानव संसाधन विकास की इस बहुपयोगी किन्तु जटिल अवधारणा को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

मानव संसाधन विकास का अर्थ एवं परिभाषाएँ

मानव संसाधन विकास व्यक्ति के व्यक्तित्व का इस प्रकार विकास करने से है जिसके अंतर्गत व्यक्ति के सहज गुण उत्पादन में तो वृद्धि करते ही हैं साथ ही वृद्धि के सार को लम्बे समय तक बनाए रखते हैं। मानव संसाधन विकास के अंतर्गत एक और उद्योग में जहाँ नये व्यक्तियों को नई आशाओं, नवीन विचारों व सकारात्मक ऊर्जा के साथ भर्ती किया जाता है वहीं दूसरी ओर पहले से कार्यरत श्रमशक्ति को जानकारी व प्रशिक्षण प्रदान कर उनके विचारों, रुझानों में ऐसा परिवर्तन किया जाता है। जिससे कि उनकी शक्ति एवं सामर्थ्य में उत्तरोक्त वृद्धि होती रहे। मानव संसाधन विकास को निम्नानुसार परिभाषित किया जा सकता है-

(1) पॉल पिगोर एवं चार्ल्स माथर के अनुसारमानव संसाधन विकास का अर्थ है, “श्रमिकों में इस उद्देश्य से सामर्थ्य विकसित करना की वे कार्य से अधिकतम संतुष्टि प्राप्त कर सकें। और अपनी सर्वश्रेष्ठ संगठन को दे सकें।”

(2) सी.एच. नॉर्थकोट के अनुसार “मानव संसाधन विकास सामान्य प्रबन्धन का इन अर्थों में विस्तार है कि इसके अंतर्गत प्रत्येक कर्मचारी को इस उद्देश्य से उत्तेजित किया जाता है कि वे व्यापार में अपना सम्पूर्ण योगदान दें।”

(3) माइकल आर्मस्टोग के अनुसार ” मानव संसाधन विकास प्रबन्धन व्यक्तिगत प्रबन्धन का एक दूसरा नाम समझा जाता है किन्तु वास्तव में यह उससे कहीं अधिक है, इसमें कर्मचारियों के सम्बन्ध में इस आशय से नीति निर्धारण किया जाता है कि वे उत्पादन प्रक्रिया के एक आवश्यक भाग ही नहीं वरन् केन्द्रिय संसाधन हैं।”

मानवीय सम्बन्ध का अर्थ एवं परिभाषाएँ

तकनीकी भाषा में मानवीय सम्बन्धों का अर्थ संगठन के उद्देश्यों और कर्मचारियों के हितों का एकीकरण करना है। सामान्यतः उद्योग में कर्मचारियों के साथ मानवता का व्यवहार करना, उनकी योगयता का विकास करना, कार्य के प्रति उनकी इच्छा जाग्रत करना, प्रबन्ध और कर्मचारियों के मध्य मसन्वय स्थापित करके उत्पादकता में वृद्धि करना एवं लक्ष्यों की प्राप्ति करना ही मानवीय  सम्बन्ध है।

मानवीय सम्बन्धों की परिभाषा और उसकी परिभाषाएँ

मानवीय सम्बन्ध के बारे में कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-

प्रबन्ध शब्दाकोश के अनुसार, “उद्योगों में मानवीय सम्बन्ध से आशय उस शब्द से है। जिसका प्रयोग वर्तमान समय में औद्योगिक व्यक्ति के आचरण (Behaviour) को स्पष्ट करने वाले व्यवस्थित एवं विकासशील ज्ञानपुंज के लिए किया जाता है।”

मेकफारलैण्ड “मानवीय सम्बन्ध कार्यरत व्यक्तियों की क्रियाओं, अभिवृत्तियों, भावनों तथा अन्तर सम्बन्धों की समझ एवं जानकारी द्वारा मानवीय साधनों के सदुपयोग की पद्धति एवं अध्ययन है।”

स्काट “प्रबन्ध मानवीय सम्बन्ध का प्रयोग व्यवसाय में मानवीय सन्तुष्टि और मानवीय संघर्ष की असुलझी हुई समस्याओं के समाधार के लिए करता है।”

कीथ डेविस, “प्रबन्ध व्यवहार के क्षेत्र में मानवीय सम्बन्ध व्यक्तियों का कार्य के साथ समन्वय है, जो उन्हें उत्पादकीय ढंग से, सहकारिता से आर्थिक, मनौवैज्ञानिक एवं सामाजिक सन्तुष्टि से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है।”

मानवीय सम्बन्धों का महत्त्व

राष्ट्र के औद्योगिक विकास एवं अधिकतम सामाजिक हित के लिए यह आवश्यक है कि प्रबन्ध एवं श्रमिकों के बीच अच्छे सम्बन्ध बने रहें। हमारे उद्योग-धन्धों की सफलता उनमें कार्य करने वालों की कार्यकुशलता एवं उनके प्रशिक्षण पर ही निर्भर नहीं करती बल्कि कर्मचारियों की रुचि, काम के प्रति उनकी भावना तथा उस कार्य को करने से उन्हें कितनी संतुष्टि मिलती है, इन बातों पर भी निर्भर करती है। सेवायोजक का श्रमिकों के प्रति कैसा सम्बन्ध है, वह उन्हें कितनी अच्छी तरह समझता है? कारखाने का वातावरण कैसा है? इन समस्त बातों का प्रभाव उद्यारेग की सफलता पर पड़ता है क्योंकि इन सब बातों का विचार न किया जाये तो उद्योग में कार्य करने वालों में आपस में सद्भावना की कमी हो जायेगी, उनके कुसमायोजन की संभावना उत्पन्न होगी, और उद्योग की क्षमता में कमी आ जायेगी। संक्षेप में एक उद्योग के लिए अच्छे मानवीय सम्बन्धों को निम्न प्रकार रखा जा सकता है।

(1) श्रम मूल्यवान सम्पदा- श्रम के बिना कोई भी उत्पादन सम्भव नहीं है। कार्ल मार्क्स ने उत्पादन प्रक्रिया में श्रम को ही सर्वप्रमुख स्थान दिया है। इसके अनुसार पूँजी भी अंतिम रूप में श्रम से ही उत्पन्न होती है। फ्रेडरिक एंजिल्स ने भी कहा है “श्रम ही सम्पूर्ण सम्पत्ति का स्रोत है। वर्तमान युग में श्रम का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है और श्रमिक राष्ट्र की शीढ़ बन गया है। उद्योग-धन्यों में जितना विस्तार होता जायेगा, श्रमिकों का महत्व भी उसी अनुपात में अवश्य बढ़ेगा। परन्तु इस विस्तार से राष्ट्र को वास्तविक लाभ तभी हो सकता है जब सेवायोजक और श्रमिकों का पारस्परिक सम्बन्ध मित्रतापूर्ण हो। केवल मित्रतापूर्ण व्यवहार द्वारा ही श्रमिकों की विश्वास दिलाकर आधिक व श्रेष्ठ कार्य लिया जा सकता है। अतः अधिक और सस्ते उत्पादन के लिए जहाँ, अच्छी मशीनों की आवश्यकता है वहाँ मानवीय शक्ति, मानवीय योग्यता व मानवीय प्रेरक की पूर्ण उपयोगिता प्राप्त करना ही अपेक्षित है।”

(2) सामाजिक, नैतिक और मनोवैज्ञानिक महत्त्व प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह कोई भी निम्न स्तर का कार्य क्यों न करता हो, वह आर्थिक लाभ के अतिरिक्त सामाजिक, नैतिक व मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सम्मान व आत्मसंतोष चाहता है। सभी व्यक्तियों में अपने अस्तित्व को स्थिर रखने की सहज प्रवृत्ति होती है, सभी मनुष्य सुरक्षा चहते हैं, सभी चाहते हैं कि उनके मानवीय सम्मान का ध्यान रखा जाये।

(3) मानवीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग मानवीय संसाधन राष्ट्र के औद्योगिक और आर्थिक विकास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संसाधन होता है। इस संसाधन के अभाव में उत्पादन के अन्य तत्त्व प्रभावहीन ही रहते है। जब व्यक्ति की आवश्यकताएँ संतुष्ट होती है तभी उसमें कार्य करने की इच्छा जागृत होती है तथा उसकी सुप्त प्रतिभाएँ जाग्रत होती हैं, कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। मानवीय सम्बन्धों के माध्यम से ही इस लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव होती है।

कार्य में मानवीय सम्बन्धों की मान्यताएँ-

हैरोलड जे0 होविट के अनुसार, मानवीय सम्बन्धों को निम्न दो प्रकार विभाजित किया जा सकता है।

(1) परम्परागत मान्यताएं। (2) आधुनिक मान्यताएँ-

(अ) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से,

(ब) सामाजिक दृष्टिकोण से,

(स) सामाजिक मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से।

मानवीय सम्बन्धों के सिद्धान्त

मानवीय सम्बन्धों के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(1) व्यक्तिगत भावनाओं को महत्व देने का सिद्धान्त इस सिद्धान्त के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत भावनाओं को पर्यात महत्व दिया जाना चाहिए। प्रबन्धकों द्वारा प्रत्येक सदस्य के साथ किया जाने वाला व्यवहार उस सदस्य की भावनाओं के अनुरूप होना चाहिए।

(2) सामान्य हित का सिद्धान्त अच्छे मानवीय सम्बन्धों के निर्माण के लिए यह आवश्यक है, कि प्रबन्धक और श्रमिक दोनों यह महसूस करें कि दोनों का सामान्य हित है।

(3) सही व्यक्ति को सही कार्य पर लगाने का सिद्धान्त कर्मचारियों को यदि उनकी योग्यता और रुचि के अनुसार कार्य मिल जाता है तो वे उसका अधिक कुशलता से निष्पादन करते हैं फलतः अच्छे मानवीय सम्बन्धों का निर्माण होता है।

(4) सहभागिता का सिद्धान्त यह सिद्धान्त इस तथ्य पर बल देता है कि कर्मचारी सहभागिता सौहार्द्रपूर्ण मानवीय सम्बन्धों की स्थापना के लिए अत्यनत आवश्यक है। अतः कर्मचारियों को प्रबन्ध में हिस्सा देना चाहिए।

(5) अभिप्रेरणा का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार, कर्मचारियों को कार्य के लिए, प्रेरित करने के लिए और उनकी कार्य के प्रति सदैव रुचि बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि कर्मचारियों को निरंन्तर मौद्रिक एवं अमौद्रिक प्रेरणाएं दी जानी चाहिए।

मानवीय सम्बन्धों अवधारणा का उदय

उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप और अमरीका में उद्योगों का विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा था कि उत्पादन कार्य में लगे श्रमिकों की समस्याओं एवं उनके निराकरण की दिशा में प्रबन्धकों द्वारा किसी प्रकार का प्रयास ही नहीं किया जा सका। प्रबन्धकों का ध्यान किस प्रकार कम पूँजी लगाकर, पुरानी मशीनों को नई मशीनों में बदलकर, उत्पादन वृद्धि कर अधिक-से-अधिक लाभ कमाने की ओर रहता था। इस काल में श्रमिकों के प्रति दृष्टिकोण वस्तु-मूल्य प्रधान ही था। यह समझा जाता था कि जिस प्रकार भूमि एवं सम्पत्ति आदि को खरीदा जा सकता है उसी प्रकार पैसे के बल पर श्रमिकों को भी बाजार से खरीदा जा सकता है तथा जिस प्रकार मशीन एवं इसके कल-पूजें खराब होने पर अलग कर दिए जाते हैं उसी प्रकार उत्पादन-कार्य में श्रमिकों की उपयोगिता एवं आवश्यकता समाप्त होने पर उन्हें बदला या हटाया जा सकता हैं उद्योगों में मशीन का मूल्य एवं महत्त्व बढ़ता ही जा रहा था। किन्तु इन मशीनों के परिचालक श्रमिकों का महत्त्व नगण्य होता जा रहा था मशीन पर दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई निर्भरता ने न केवल उद्योगों को यांत्रिक बना दिया था बल्कि शनैः शनै श्रमिकों का भी जीवन यंत्रवत् होता जा रहा था।

नये-नये अविष्कारों, उत्पादन में बड़ी-बड़ी मशीनों के प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि तो हो ही रही थी। इसके साथ ही बाजारों का भी तीवग्रगामी का विस्तार हो रहा था। बड़े उद्योगों की उत्पादन एवं प्रबन्ध से जटिल समस्याएं भी उत्पन्न होने लगी। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि छोटे- छोटे कारखानों के प्रबन्ध का स्वरूप अनौपचारिक (Informal) था किन्तु बड़े उद्योगों में प्रबन्ध के अनौपचारिक संगठन का स्वरूप औपचारिक संगठन (Formal Organisation) में परिपत होने के लिए बाध्य हो गया।

उद्योगों के प्रबन्ध में इस औपचारिक संगठन की आवश्यकता एवं विकास ने तकनीकी विशेषज्ञों एवं इंजीनियर्स को इस दिशा में एक नए दृष्टिकोण से विचार करने के लिए प्रेरित किया।

‘वैज्ञानिक प्रबन्ध’ की विचारधारा जो संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में चालू शताब्दी के प्रारम्भ में ही विकसित हो गई, उसके जनक फिलाडेल्फिया नगर में जन्म फैड्रिक विस्लो टेलर (Frdric Winslow Taylor 1856-1915) थे।

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Pankaja Singh

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