अर्थशास्त्र

हैरोडं का विकास मॉडल | हैरोड-मॉडल की शिलाएँ व सामग्री

हैरोडं का विकास मॉडल | हैरोड-मॉडल की शिलाएँ व सामग्री

आर्थिक विकास का कीन्सवादी विश्लेषण अल्पकालीन विश्लेषण था। कीन्सोत्तर अर्थशास्त्रियों ने कीन्सवादी मॉडल का प्रावैगिक विस्तार करके कीन्स के उत्पादन और रोजगार के सिद्धान्त को अधिक विस्तृत तथा दीर्घकालीन सिद्धान्त में बदल दिया है। इस सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान प्रो० आर० एफ० हैरोड (R.F. Harrod) तथा प्रो० ई० डी० डोमर (E.D. Domar) ने किया है जिनके आर्थिक विकास के मॉडल विकसित देशों में आर्थिक विकास की प्रक्रिया और समस्याओं को समझने में सहायक है। प्रो० हैरोड ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “A Essay in Dynamic Theory” तथा (1939) तथा ई० डी० डोमर ने “Essays in the Theory of economic Growth” (1957) में अपने-अपने विकास के मॉडल में अपने विचार प्रस्तुत किये।

हैरोडं का विकास मॉडल

(Harrod’s Growth Model)

हैरोड का सिद्धान्त उन्हीं के शब्दों में, “गुणक एवं त्वरक सिद्धान्तों के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध है।” हैरोड कीन्सवादी विश्लेषण को प्रावैधिक बनाना चाहते हैं क्योंकि कीन्स ने अपने

सिद्धान्त में त्वरक (accelerator) के विचार को कोई स्थान नहीं दिया। हैरोड का उद्देश्य सतत् वृद्धि की दशाओं का पता लगाना है और विकास के उन सम्भावित मार्गों की जानकारी करना है जिन पर अर्थव्यवस्था सपाट रूप से आगे बढ़ सकती है।

माडल की मान्यताएँ

(Assumptions)

हैरोड का विकास मॉडल निम्न मान्यताओं पर आधारित है-

(1) समाज में अपेक्षित बचतें (intended ex-ante savings) तथा वास्तविक बचतें बराबर होती हैं । अर्थात् औसत बचत प्रवृत्ति (APS) सीमान्त बचत प्रवृत्ति (MPS) के बराबर होती है और APS स्थिर बनी रहती है।

(2) अर्थव्यवस्था में अपेक्षित निवेश तथा वास्तविक निवेश भी बराबर होते हैं अर्थात् S = I;

(3) उत्पादन का उद्देश्य साम्य की स्थिति को प्राप्त करना है।

(4) विनियोग की दर उत्पादन व आय- वृद्धि की दर पर निर्भर करती है।

(5) अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति विद्यमान है।

(6) मूल्य-स्तर तथा ब्याज की दर में कोई परिवर्तन नहीं होता और पूँजी-श्रम अनुपात तथा पूँजी-उत्पाद अनुपात भी यथा स्थिर है।

(7) राज्य हस्तक्षेप का अभाव है।

(8) पूँजी-गुणांक (Capital co-efficient) अर्थात् पूँजीगत स्टाक का आय से अनुपात स्थिर मान लिया गया है।

(9) यह मॉडल बन्द अर्थव्यवस्था के लिए है अर्थात् जिसमें विदेशी व्यापार नहीं होता। परन्तु बाद में हैरोड ने विदेशी व्यापार को शामिल कर लिया था।

(10) पूँजीगत वस्तुओं का मूल्य ह्रास नहीं होता है।

हैरोड-मॉडल की शिलाएँ व सामग्री

(Bricks & Straws of Harrod Model)

हैरोड मॉडल के मुख्य आधार इस प्रकार हैं-

(1) प्रावैगिक साम्य को उत्पन्न करना ही विकास है- किसी देश के आर्थिक विकास के तीन प्रमुख आवश्यक तत्त्व हैं- (i) प्राकृतिक साधन, (ii) कुशल श्रमशक्ति का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना, (iii) प्रति व्यक्ति ऊँची उत्पादकता, जो उन्नत तकनीक तथा नव-प्रवर्तन का फलन है।

(2) पूँजी संचय विकास की कुन्जी है- आर्थिक वृद्धि के लिए पूँजी एक महत्त्वपूर्ण घटक है और यह निवेश, रोजगार तथा आय का स्तर निर्धारित करती है। बचत आय का फलन है और बचतों की माँग, आय में वृद्धि का फलन है। हैरोड के अनुसार बचतें तीन उद्देश्यों के लिए की जाती हैं- (अ) सामान्य बचतें (hump savings) अर्थात् भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बचतें। (ब) उत्तराधिकार (Inberitence) सम्बन्धी बचतें अर्थात् अपनी संतान को धन हस्तान्तरण करने की लालसा हेतु की गयी बचतें। (स) निगम (Corporate) बचतें अर्थात् औद्योगिक संस्थाओं द्वारा बचतें।

हैरोड द्वारा प्रयुक्त विकास-दरें तथा समीकरण

हैरोड का विश्लेषण दो आधारभूत मान्यताओं पर आधारित है- (1) एक निश्चित समयावधि में समाज की शुद्ध बचतें उसी समयावधि की आय का एक निश्चित अनुपात होती है। (2) उद्यमियों द्वारा निवेश की इच्छा इस बात पर निर्भर करती है कि उत्पादन किस दर से बढ़ रहा है। चूँकि बचत तथा निवेश आय का एक निश्चित अनुपात होते हैं और निवेश की दर आय-वृद्धि की दर का फलन होती है इसलिए उद्यमी वास्तविक निवेश से तभी सन्तुष्ट होंगे जबकि आय बढ़ रही हो। यदि आय-वृद्धि की दर काफी ऊँची है तो उद्यमी वास्तविक निवेश को ऐच्छिक निवेश से कम पायेंगे और आय-वृद्धि की दर कम होने पर वास्तविक निवेश अत्यधिक पाया जाएगा। इस प्रकार आय-वृद्धि की वह दर जो उद्यमियों को उनके वास्तविक निवेश के सम्बन्ध में सन्तुष्ट करने के लिए पर्याप्त हो, उसे ही विकास की आवश्यक दर कहा जा सकता है। हैरोड के अनुसार मूलभूत समस्या आय-वृद्धि की दर के निर्धारकों का पता लगाना है।

हैरोड ने अपना विकास मॉडल तीन प्रकार की वृद्धि दरों पर आधारित किया है।

(1) वास्तविक वृद्धि-दर (Actual Growth Rate)- वास्तविक वृद्धि दर (G) वह दर है जिस दर पर देश विकास कर रहा है। इस दर को बचत-अनुपात तथा पूँजी-उत्पाद अनुपात (COR) निर्धारित करते हैं और यह दर अल्पकालीन चक्रीय परिवर्तनों को प्रकट करती है। समीकरण रूप में-

GC=S।       …………(i)

G= आय की वृद्धि-दर अर्थात् ∆Y/Y1 C = पूँजी में किया गया शुद्ध योग (addition) है अर्थात् पूँजी-उत्पाद-अनुपात अर्थात् C =I/∆Y; s= औसत बचत प्रवृत्ति अर्थात् S/Y उपरोक्त समीकरण में इन अनुपातों को आदिष्ट करने पर-

ΔY/Y × I/ΔΥ = S/Y या I/Y = S/Y या I = S

यह समीकरण इस सत्य का निरूपण करता है कि-

वास्तविक बचतें (ex-post savings) = वास्तविक निवेश (ex-post investments)

उपरोक्त सम्बन्ध को आय का व्यवहार स्पष्ट करता है। बचत (s) आय पर निर्भर करती है, निवेश (I) आय में वृद्धि (∆Y) पर निर्भर होता है अर्थात् एक प्रकार से यह त्वरण सिद्धान्त (acceleration principle) ही है। अत: यदि किसी समग्र आय 2000 करोड़ रु० है, बचतें 160 करोड़ रु० हैं और पूँजी-उत्पाद अनुपात 4 है तो वास्तविक वृद्धि-दर-

G = s/C = 160/2000 × ¼ = 1/50 = 2% होगी।

(2) अभीष्ट या आवश्यक वृद्धि-दर (Warranted Growth Rate)- हैरोड के शब्दों में, “आवश्यक वृद्धि-दर (Gw) विकास की वह दर होती है जिसे यदि प्राप्त कर लिया जाये तो उद्यमी ऐसी मानसिक स्थिति में होते हैं कि वे इसी प्रकार से विकास करते रहने के लिए प्रेरित होंगे।” स्पष्ट है कि यह दर किसी अर्थव्यवस्था की आय की ‘पूर्ण क्षमता वृद्धि दर’ होती है क्योंकि यह पूँजी के बढ़ते हुए स्टॉक का पूरा उपयोग करती है। यह दर “उद्यमी सन्तुलन” की द्योतक है अर्थात् उद्यमी इस विकास दर से परम सन्तुष्ट रहते हैं। हाँ! इस विकास दर के प्राप्त होने पर भी समाज में थोड़ी बहुत “अनैच्छिक बेराजगारी बनी रह सकती है। अतः सतत् वृद्धि-दर के

समीकरण रूप में-

Gw Cr = S या Gw = S/Cr         ………..(ii)

Gw = आवश्यक वृद्धि-दर, S= सीमान्त बचत प्रवृत्ति (MPS)

Cr = पूँजीगत आवश्यकताएँ (Capital requirement) अर्थात् Gw को बनाए रखने के लिए आवश्यक पूँजी की मात्रा अर्थात् आवश्यक पूँजी उत्पाद-अनुपात। यह I/∆Y का मूल्य है।

यह समीकरण सतत् प्रगति के लिए सन्तुलन की दशाओं को बतलाता है। सरल शब्दों में आय में वृद्धि विकास की आवश्यक’ दर के अनुसार होने पर अर्थव्यवस्था के पूँजी स्टॉक का पूर्ण शोषण होता है और अर्थव्यवस्था सतत् प्रगति के मार्ग पर आरूढ़ हो जाती है। दूसरे शब्दों में, यदि अर्थव्यवस्था Gw की सतत् दर पर प्रगति करना चाहती है जिससे कि उसकी पूर्णक्षमता का उपयोग हो सके, तो आय को S/Cr प्रति वर्ष की दर से बढ़ना चाहिए अर्थात्-

Gw = ∆Y/Y = S/Cr या Gw = सीमान्त बचत-प्रवृत्ति (S)/पूँजी उत्पाद-अनुपात (Cr)

पूर्ण रोजगार प्राप्त करने के लिए-G = Gw और C = Cr

हैरोड-वृद्धि मार्ग को रेखाचित्र द्वारा भी स्पष्ट किया गया है। चित्र में OS बचत-फलन है। आय में Y1 से Y2 तक परिवर्तन A (Y2 आय-स्तर) पर S1 बचत के बराबर होने के लिए I2 निवेश को प्रोत्साहित करता है। बदले में यह निवेश आय को Y3 स्तर तक बढ़ा देता है। फलतः निवेश फलन Y1I1 से उठकर Y212 हो जाता है और नया बचत निवेश-सन्तुलन S3 पर होगा। Y212 को Y1I1 के सामान्तर दिखाया गया है जो इस बात का प्रतीक है कि पूँजी उपज अनुपात (Cr) स्थिर रहता है। इसी प्रकार Y2 आय निवेश I2 को और Y2 आय निवेश I2 को प्रोत्साहित करती है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था नये बचत-निवेश सन्तुलन के सहारे विकास-मार्ग पर अग्रसर होती रहती है। सार यह है कि “निवेश गुणक में कोई परिवर्तन न होने पर बचतों का अनुपात जितना अधिक होगा सन्तुलन बनाये रखने की खातिर पर्याप्त निवेश को प्रेरित करने के लिए उत्पादन में वृद्धि की दर भी उतनी ही अधिक होगी।”

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि सतत् विकास के लिए G = Gr और C = Cr की दशाएँ पूरी होनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो उद्यमियों को पूँजी की आवश्यक मात्रा के बराबर बचतें प्राप्त होती रहेंगी जिससे “प्रावैगिक साम्य की स्थिति” उत्पन्न होगी अर्थात् सतत् विकास सम्भव हो सकेगा।

किन्तु हैरोड ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि अर्थव्यवस्था का विस्तार असीमित काल तक नहीं चल सकता क्योंकि आर्थिक विकास का क्रम श्रम तथा प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता के कारण सीमित हो सकता है। सरल शब्दों में, विकास की आवश्यक दर अर्थव्यवस्था द्वारा प्राप्त की जा सकने वाली अधिकतम विकास-दर नहीं है। इस उद्देश्य हेतु हैरोड ने विकास की प्राकृतिक दर’ का विचार रखा है।

(3) प्राकृतिक वृद्धि-दर (Natural Growth Rate)- प्राकृतिक वृद्धि-दर (Gn) उत्पादन की उस प्रवृत्ति को बतलाती है जिसमें पूर्ण रोजगार बना रहता है। इसे “वृद्धि की पूर्ण रोजगार-दर” या “वृद्धि की सामान्य दर” भी कहा जाता है। यह दर देश के प्राकृतिक साधनों, श्रम की उपलब्ध मात्रा तथा तकनीकी उन्नति आदि घटकों पर निर्भर करती है। चूँकि ये घटक परिवर्तनशील है ‘अत: Gn, S के बराबर हो भी सकती है और नहीं भी अर्थात्

Gn Cr = S  या Gn Cr = S            ………….(iii)

G,Gw और Gn के बीच भिन्नता

(Divergence Among G, Gw and Gn)

पूर्ण रोजगार सन्तुलन के लिए आवश्यक है कि वास्तविक विकास दर, विकास की आवश्यक दर तथा विकास की प्राकृतिक दर एक-दूसरे के बराबर हों अर्थात्-

पूर्ण रोजगार सन्तुलन: G = Gw = Gn

किन्तु हैरोड का कहना है कि यह स्थिति एक ‘धुरी-धार सन्तुलन’ (knife adge balance) की स्थिति है जिसे सरलता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। विकास-दरों के बीच विचलन होना सम्भव है और यह भिन्नता अर्थव्यवस्था को दीघकालीन अवरोध या स्फीति की दशा में ढकेल सकती है।

(1) यदि G अधिक है Gw से, तो इसका अर्थ यह है कि अर्थव्यवस्था में निवेश बचत की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ रहा है और आय की वृद्धि-दर Gw से अधिक है। इस दशा में वास्तविक पूजी (C) आवश्यक पूंजी (Cr) से कम होगी। यह स्थिति ‘दीर्घकालीन स्फीति’ की स्थिति मानी जाएगी अर्थात्-

यदि G > Gw, तो C<Cr, दीर्घकालीन स्फीति

(2) इसके विपरीत यदि G कम है Gw से, तो बचतें निवेश की अपेक्षा अधिक तेजी से बढेगी और आय की वृद्धि-दर Gw से कम होगी। वास्तविक विकास दर का विकास की आवश्यक-दर से कम होने पर वास्तविक पूँजी (C) आवश्यक पूँजी (Cr) से अधिक होगी जिसका अभिप्राय यह है कि अनुमानित निवेश वास्तविक निवेश से कम है अर्थात् कुल माँग कुल पूर्ति से नीचे बनी हुई है। इसका परिणाम उत्पादन, रोजगार तथा आय में कमी के रूप में ‘दीर्घकालीन मन्दी’ लाने का होता है। अर्थात्-

यदि G > Gw, तो C<Cr, दीर्घकालीन मन्दी

(3) इसी प्रकार यदि G अधिक है Gn से, अर्थात् विकास की आवश्यक दर विकास की प्राकृतिक दर से अधिक है तो हैरोड के अनुसार अर्थव्यवस्था में दीर्घकालीन गतिहीनता’ (secular stagnation) की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इस दशा में Gw (आवश्यक विकास-दर) G से भी अधिक होगी क्योंकि G की ऊपरी सीमा (upper limit) Gn द्वारा ही निर्धारित होती है।

(4) इसके विपरीत यदि Gw कम है Gn से, तो C<Cr और Gw<G होगा। फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में ‘दीर्घकालीन स्फीति’ की दशाएं उत्पन्न होने लगेंगी। इस स्थिति में श्रम की अधिकता होगी और पूँजीगत वस्तुओं की कमी होगी। लाभ की दर ऊँची होगी क्योंकि वास्तविक निवेश से इच्छित निवेश अधिक होगा। व्यवसायियों का रुझान अपने पूँजी स्टाक में वृद्धि करने का होता है।

सार रूप में हैरोड के अनुसार-

स्फीति की स्थिति :G > Gw    या Gn>Gw

मन्दी की स्थिति :Gw>G या Gw>Gn

मन्दी और तेजी की सीमाएँ-

हैरोड का कहना है कि तेजी तथा मन्दी के आने की सीमाएँ भी होती हैं। उनके अनुसार (i) G, Gn से बहुत अधिक ऊपर नहीं जा सकती। (ii) जब G, Gn के बराबर होने लगती है तब Gw भी बढ़ जाती है। (iii) इसी प्रकार एक न्यूनतम सीमा से अर्थव्यवस्था नीचे नहीं जा सकती। इसका कारण यह है कि विकास शून्य की सीमा तक कभी नहीं पहुँचता क्योंकि पूँजी निर्माण कभी भी शून्य नहीं हो सकता है।

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Pankaja Singh

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