अर्थशास्त्र

डोमर का विकास मॉडल | डोमर के विकास मॉडल की मान्यताएँ | डोमर के मॉडल की मुख्य विशेषताएँ

डोमर का विकास मॉडल | डोमर के विकास मॉडल की मान्यताएँ | डोमर के मॉडल की मुख्य विशेषताएँ

डोमर मॉडल

(Domar’s Model)

ई०डी० डोमर ने कीन्स के विश्लेषण की कमियों को दूर करके इस प्रणाली में प्रावैगिक तत्व सम्मिलित करने का प्रयास किया है। दूसरे शब्दों में, डोमर महोदय ने कीन्स के गुणक सिद्धान्त का, प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के उत्पादकता सिद्धान्त से सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा की है। डोमर ने दीर्घकालीन समस्याओं का अध्ययन अल्पकालीन साधनों से किया है और विकास की समस्या का अध्ययन गुणक, त्वरक एवं पूँजी अनुपातों के द्वारा पूरा किया है।

डोमर के विकास मॉडल की मान्यताएँ

(Assumptions)

मॉडल देने से पूर्व डोमर ने निम्न मान्यताएँ स्वीकार की है-

(1) अर्थव्यवस्था का आय-स्तर प्रारम्भिक पूर्ण रोजगार की अवस्था में पहुँच चुका है।

(2) समायोजन में अन्तराल नहीं पाया जाता अर्थात् निवेश तथा उत्पादक क्षमता निर्माण के बीच समायोजन होने में समय नहीं लगता।

(3) सरकारी हस्तक्षेप तथा विदेशी सहायता का अभाव है।

(4) सामान्य कीमत स्तर स्थिर रहता है अर्थात् मौद्रिक आय तथा वास्तविक आय समान है।

(5) औसत तथा सीमान्त बचत प्रवृत्तियाँ समान हैं अर्थात् APS = MPS;

(6) पूंजी गुणांक अर्थात पूँजी-स्टॉक तथा आय के बीच अनुपात स्थिर है।

डोमर के मॉडल की मुख्य विशेषताएँ

(Features)

डोमर ने अपने विकास मॉडल रूप से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि चूकि राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने पर उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है इसलिए निवेश की दर इतनी होनी चाहिए। कि आय व उत्पादन में समान दर से वृद्धि हो सके। उन्होंने अपना सारा ध्यान इस बात पर कन्द्रित किया कि पूर्ण रोजगार को बनाए रखने के लिए आवश्यक निवेश की दर क्या होनी चाहिये, उसकी किस प्रकार गणना की जाये और इस स्थिति को किस प्रकार साम्य में बनाए रक्खा जा सकता है डोमर के विकास-मॉडल की मुख्य बातें इस प्रकार हैं-

(1) निवेश का आर्थिक विकास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इससे एक ओर आय में वृद्धि होती है तो दूसरी ओर उत्पादन क्षमता को बढ़ावा मिलता है।

(2) बढ़ी हुई उत्पादन क्षमता अर्थव्यवस्था पर दो प्रकार से प्रभाव डाल सकती है- (i) या तो इससे प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि होकर और अधिक उत्पादन होने लगता है अथवा (ii) प्रभावपूर्ण माँग के कम रहने पर बेरोजगारी में वृद्धि हो सकती है।

(3) इन दोनों प्रभावों में से पहला प्रभाव अधिक उचित माना जाएगा। पर यह इस बात पर निर्भर करता है कि आय-वृद्धि का व्यवहार (income attitude) किस प्रकार का है। इस दृष्टि से यदि पूर्ण रोजगार को बनाये रखना है तो आय में वृद्धि निम्न दर से होनी चाहिए-

(अ) हैरोड के अनुसार- आय में वृद्धि = सीमान्त बचत प्रवृत्ति/पूँजी-उत्पाद-अनुपात

(ब) डोमर के अनुसार- आय में वृद्धि = बचत प्रवृत्ति/पूँजी-उत्पाद-अनुपात

(4) डोमर का विश्वास था कि यदि निवेश-वृद्धि से उत्पन्न होने वाली आय इतनी पर्याप्त है कि उसके द्वारा सम्पूर्ण अतिरिक्त उत्पादन उपभोग कर लिया जाता है तो प्रभावपूर्ण माँग के कम रहने की कोई गुंजाइश नहीं रहती बशर्ते कि मौद्रिक तथा वास्तविक आय समान रहें।

(5) विकसित देशों के संदर्भ में डोमर का कहना है कि आय-वृद्धि इतनी अधिक नहीं होनी चाहिए कि माँग और पूर्ति का सन्तुलन भंग हो जाय और फलस्वरूप स्फीतिक दशाएँ उत्पन्न होने लगे। इसके विपरीत आय-वृद्धि इतनी कम भी नहीं होनी चाहिए कि निवेश की प्रेरणाएँ समाप्त हो जायें और विस्फीतिक शक्तियाँ उत्पन्न होने लगे।

(6) अर्थव्यवस्था का मुख्य उद्देश्य, पूर्ण रोजगार की स्थिति बनाए रखने के लिए, उत्पादन की माँग व पूर्ति में सन्तुलन बनाए रखना है।

डोमर के विकास मॉडल का समीकरण रूप

डोमर का मत है कि विकास के लिए निवेश आवश्यक है क्योंकि इससे आय तथा उत्पादन- क्षमता दोनों को बढ़ावा मिलता है। पर प्रश्न केवल इतना है कि उत्पादन क्षमता और आय में वृद्धि को बराबर करने के लिए निवेश किस दर से बढ़ाया जाये? ताकि पूर्ण रोजगार की स्थिति बनी रहे। प्रो० डोमर ने कुल पूर्ति और कुल माँग को संयुक्त रूप में लेकर इसका उत्तर दिया है-

पूर्ति पक्ष की दृष्टि से, मान लीजिए, कि निवेश की वार्षिक दर I है और नई पूँजी की औसत उत्पादन क्षमता S के बराबर है, जो वास्तविक आय में वृद्धि के पूँजी में वृद्धि से अनुपात को प्रकट करता है अथवा जिसे सीमान्त पूंजी-प्रदा अनुपात (COR) अथवा त्वरक का व्युत्क्रम भी कह सकते हैं। इस प्रकार निवेश (I) की उत्पादन-क्षमता I.S डालर वार्षिक होगी।

ध्यान रखने योग्य बात यह है कि नया निवेश पुराने निवेश की कुछ मात्रा को खोकर ही किया जा सकता है। फलस्वरूप पुराने प्लाटों की प्रदा घट जाएगी और अर्थव्यवस्था की वार्षिक प्रदा में I.S से कुछ कम मात्रा में वृद्धि होगी। इसे डोमर ने 1  के रूप में व्यक्त किया है। यहाँ  = निवेश की औसत उत्पादकता (= ∆YI) को प्रकट करता है और I अर्थव्यवस्था में उत्पादन की ‘समग्र शुद्ध सम्भाव्य वृद्धि’ है जिसे ‘सिग्मा प्रभाव’ (sigma fffect) भी कहा जाता है। ऐसी स्थिति में, I , IS से कम बना रहेगा।

माँग पक्ष की व्याख्या डोमर ने कीन्स’ के गुणक सिद्धान्त के आधार पर की है। इस दृष्टि से आय में वृद्धि (∆Y), निवेश-वृद्धि (∆I) और गुणक (I)  के आकार पर निर्भर होती है अर्थात् निवेश-वृद्धि की दर को गुणक से गुणा करके आय-वृद्धि की दर का पता लगाया जा सकता है।

सूत्रानुसार- ∆Y = ∆I I/                  ………….(i)

यहाँ ∆Y = आय में कुल वार्षिक वृद्धि; ∆I = कुल वार्षिक निवेश-वृद्धि,  (एल्फा) = बचत प्रवृत्ति अथवा   = ∆S/∆Y

पूर्ण रोजगार की दृष्टि से उत्पादन की माँग और पूर्ति में साम्य बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि- ∆I I/  =IO  या  ∆I I/ = I.                 …………(ii)

IO या  I उत्पादन-क्षमता में वृद्धि;             ∆I + I/ = आय में वृद्धि

इस समीकरण को हल करने के लिए इसके दोनों पक्षों को ‘ से गुणा करने पर और ‘I’ द्वारा भाग देने पर समीकरण का प्रारूप इस प्रकार होगा- ∆I/I =

समीकरण से स्पष्ट है कि यदि हम पूर्ण रोजगार बनाये रखना चाहते हैं तो निवेश और वास्तविक आय एक निश्चित वार्षिक आनुपातिक दर से बढ़ने चाहिए, जो सीमान्त बचत प्रवृत्ति () और निवेश की औसत उत्पादकता (क) का गुणनफल, होती है। अगर समीकरण के दोनों पक्षों को I/ द्वारा गुणा किया जाय तो- = ∆I/  I =∆Y

अतः स्पष्ट है कि पूर्ण रोजगार के स्तर को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि 18 विलयन डालर प्रति वर्ष विनियोग किया जाए और आय में 3% वार्षिक दर से वृद्धि हो। इस ‘सुनहरी मार्ग’ से विचलन होने पर चक्रीय उच्चावचन (cyclical fluciuations) उत्पन्न होंगे। जब  अपेक्षा ∆I/I अधिक होगा तो अर्थ-व्यवस्था में तेजी (boom) आएगी और   से ∆I/I कम होने पर अर्थ-व्यवस्था को ‘मन्दी’ (depression) का सामना करना पड़ेगा।

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Pankaja Singh

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