गुणक त्वरक अन्तर्प्रक्रिया | गुणक एवं त्वरक की परस्पर क्रिया का महत्त्व | अति-गुणक

गुणक त्वरक अन्तर्प्रक्रिया | गुणक एवं त्वरक की परस्पर क्रिया का महत्त्व | अति-गुणक

गुणक त्वरक अन्तर्प्रक्रिया

गुणक व त्वरक की परस्पर क्रिया के बारे में पहला विवरण आर० एफ० हैरोड (R.F. Harrod) की पुस्तक “Business cycles” में मिलता है जिसमें हैरोड ने त्वरक, गुणक तथा गतिशील निर्धारकों के विचारों का प्रयोग किया है। गुणक तथा त्वरक की परस्पर क्रिया की इस प्रकार से व्याख्या की जा सकती है। गुणक की धारणा के अनुसार विनियोग में वृद्धि से आय में कई गुणा वृद्धि होती है। आय में वृद्धि से उपभोग में वृद्धि होती है और उपभोग में वृद्धि से त्वरक की क्रियाशीलता के कारण निवेश में कई गुणा वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप तेजी की अवस्था उत्पन्न हो जाती है। जब उपभोग व्यय में होने वाली वृद्धि धीमी पड़ जाती है तथा त्वरक के कारण निवेश में कमी आती है तो अधोगति प्रारम्भ हो जाती है। अत: किसी अर्थव्यवस्था में होने वाले आर्थिक उतार-चढ़ावों की व्याख्या में यद्यपि गुणक की भूमि महत्त्वपूर्ण है तथापि त्वरक की भूमिका उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।

प्रो० हिक्स ने अपनी पुस्तक “A contribution to the theory of Trade Cycle” में कहा गया है कि “त्वरक सिद्धान्त और गुणक सिद्धान्त उतार- चढ़ावों के सिद्धान्त के दो पक्ष हैं जिस प्रकार माँग का सिद्धान्त और पूर्ति का सिद्धान्त मूल्य के सिद्धान्त के दो पक्ष हैं।” गुणक के निवेश वृद्धि और उसके परिणामस्वरूप होने वाली आय वृद्धि के बीच स्थित सम्बन्ध का प्रतिनिधित्व करता है जबकि त्वरक उपभोग व्यय वृद्धि और उसके परिणामस्वरूप होने वाली निवेश वृद्धि के बीच स्थित सम्बन्ध का प्रतिनिधित्व करता है। यदि हम आय-प्रजनन (Income Propagation) की प्रक्रिया का पूर्णरूप से अध्ययन करना चाहते हैं तो हमें गुणक प्रभाव तथा त्वरक प्रभाव दोनों को ही देखना होगा। निवेश में वृद्धि होते ही गुणक क्रियाशील हो जाता है तथा उपभोग व्यय में वृद्धि होते ही त्वरक क्रियाशील हो जाता है। इस प्रकार गुणक तथा त्वरक एक-दूसरे की क्रियाओं में सहयोग प्रदान करते हैं।

प्रो० हेन्सन (Hansesn) ने अपनी पुस्तक “Business cycles and National Income” में गुणक तथा त्वरक की परस्पर क्रिया का अध्ययन किया है तथा इन दोनों की संयुक्त क्रिया को उत्तोलक प्रभाव (Leverage effect) के नाम से पुकारा है। हेन्सन ने गुणक का प्रयोग त्वरक के साथ क्यों किया? इसके बारे में सोवियत अर्थशास्त्री आर० खाफिजोव (R. Khafijov) ने कहा है कि “गुणक की धारणा उपभोग तथा निवेश की पारस्परिक निर्भरता का केवल एक पक्षीय चित्र प्रस्तुत करती है।”

इसी प्रकार के०के० कुरीहारा (K.K. Kurihara) ने अपनी पुस्तक “Introduction to Keynesian Dynamics” में निवेश तथा गुणक दोनों धारणाओं की संयुक्त परस्पर क्रिया द्वारा नयी धारणा “महागुणक” (Super-Multiplier) का विकास किया है। अन्य अर्थशास्त्रियों जैसे हिक्स व सैम्युल्सन आदि ने भी इन दोनों धारणाओं का संयुक्त रूप से प्रयोग किया है। गुणक तथा त्वरक की क्रियाओं के पारस्परिक प्रभावों का विवेचन निम्नलिखित तालिका द्वारा पूरा किया जा सकता है-

तालिका-गुणक एवं त्वरक के प्रभावों का स्पष्टीकरण

मान्यताएँ-

(1) सीमान्त उपयोग प्रवृत्ति (MPC) = 0.5

(2) त्वरक – 2

गुणांक                                               करोड़ रु०

गुणक समय अवधि प्रारम्भिक निवेश प्रेरित उपभोग प्रेरित निवेश राष्ट्रीय आय में कुल वृद्धि
1

2

3

4

5

40

40

40

40

40

0

20

50

75

82.50

0

40

60

50

15

40

100

150

165

137.50

उपरोक्त तालिका में यह स्पष्ट करती है कि प्रथम अवधि में 40 करोड़ रु० निवेश किया जाता है। चूंकि प्रथम अवधि में न तो गुणक कार्य करता है और न ही त्वरक, इसलिए न तो किसी प्रकार का प्रेरित निवेश होगा और न ही प्रेरित उपभोग (अर्थात् दोनों शून्य होंगे)। कुल आय में 40 करोड़ रु० के बराबर वृद्धि होगी जो कि प्रारम्भिक निवेश (40 करोड़ रु०) के बराबर है। दूसरी अवधि में प्रेरित उपभोग 20 करोड़ रु० है क्योंकि सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति 0.5 है। दूसरे शब्दों में, व्यक्तियों द्वारा प्राप्त कुल आय का आधा हिस्सा उपभोग वस्तुओं पर खर्च कर दिया जाता है। इस अवधि में प्रेरित निवेश 40 करोड़ रुपये हैं क्योंकि त्वरक गुणांक का मूल्य 2 है। दूसरी अवधि में आय बढ़कर 100 करोड़ रु० हो जाती है। तीसरी अवधि में प्रेरित उपभोग 50 करोड़ रु० है और इसी अवधि में प्रेरित निवेश 60 करोड़ रु० है (तीसरी और दूसरी अवधियों में प्रेरित उपभोग के बीच के अन्तर का दुगुना अर्थात् 50 – 20 = 30×2 = 60 करोड़ रु०) तीसरी समय अवधि में कुल आय में वृद्धि 150 करोड़ रुपये है। इसी प्रकार चौथी अवधि में कुल आय वृद्धि 165 करोड़ है। पांचवीं अवधि में कुल आय कम होकर 137.50 करोड़ रु० रह जाती है क्योंकि गुणक तथा त्वरक दोनों कमजोर (Week) हो जाते हैं।

उपरोक्त तालिका की रेखाचित्र द्वारा भी व्याख्या की जा सकती है-

निम्नलिखित रेखाचित्र में Ox रेखा पर समय-अवधि तथा OY रेखा पर आय-वृद्धि को दिखाया गया है।

रेखाचित्र में KLT वक्र पांच समय-अवधियों में गुणक तथा त्वरक की परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप कुल उत्तोलक प्रभाव (Total leverage effect) में आय-प्रजनन की वास्तविक प्रक्रिया को प्रदर्शित करता है। गुणक तथा त्वरक की परस्पर क्रिया द्वारा राष्ट्रीय आय 40 करोड़ रु० से बढ़कर 165 करोड़ रु० तक पहुँच जाती है (बिन्दु K से L तक चार समय अवधियों में)। परन्तु पांचवीं अवधि में राष्ट्रीय आय 165 करोड़ रु० से कम होकर 137.50 करोड़ रु० हो जाती है (बिन्दु L से T तक)। इस प्रकार गणुक तथा त्वरक की परस्पर क्रिया द्वारा हम राष्ट्रीय आय पर प्रारम्भिक निवेश के पड़ने वाले कुछ प्रभावों की व्याख्या कर सकते हैं।

गुणक एवं त्वरक की परस्पर क्रिया का महत्त्व

गुणक एवं त्वरक को परस्पर क्रिया का बहुत अधिक महत्त्व है। इनकी परस्पर क्रिया द्वारा व्यापार चक्रों की वैज्ञानिक एवं उचित व्याख्या की जा सकती है। यह परस्पर क्रिया हमें यह बताती है कि उपभोग वस्तु उद्योगों की अपेक्षा निवेश वस्तु उद्योगों में अधिक उतार-चढ़ाव आते हैं। इसके साथ-साथ यह परस्पर क्रिया हमें यह जानकारी भी देती है कि उपभोग वस्तु उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं की माँग में थोड़ा परिवर्तन होने पर भी निवेश वस्तु उद्योगों में व्यापक परिवर्तन होते हैं जिससे प्रेरित निवेश में वृद्धि होती है।

इसके अतिरिक्त गुणक त्वरक की परस्पर क्रिया व्यापार चक्रों में मोड़-बिन्दुओं (Turning Points) की विस्तारपूर्वक व्याख्या करती है। अर्थव्यवस्था में त्वरक की क्रियाशीलता और सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति के इकाई से कम होने के कारण ही व्यापार चक्रों के ऊपरी मोड़ बिन्दु (Upper Turning Point) तथा निचले मोड़ बिन्दु (Lower Turning Point) आते हैं।

त्वरक सिद्धान्त की आलोचनाएँ

(Criticisms of the acceleration Principle)

यद्यपि त्वरक की धारणा अर्थशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक खोज है परन्तु फिर भी यह धारणा आलोचनाओं से मुक्त नहीं है। इस धारणा की मुख्य आलोचनाएँ इसकी मान्यताओं से ही सम्बन्धित हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

(1) पूँजी उत्पाद अनुपात में परिवर्तन- त्वरक सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि पूँजी-उत्पादन अनुपात स्थिर रहता है परन्तु वास्तव में यह अनुपात स्थिर नहीं रहता। उत्पादन तकनीक में सुधार, नये आविष्कार एवं खोज तथा नयी क्रियाओं का निर्माण होते रहने के कारण इसमें परिवर्तन होते रहते हैं।

(2) निवेश वस्त्र उद्योगों में अतिरिक्त उत्पादन क्षमता- यह धारणा इस मान्यता पर आधारित है कि निवेश वस्तु उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता होती है, परन्तु वास्तव में इन उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता नहीं होती।

(3) अतिरिक्त उत्पादन क्षमता- यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि उपभोग वस्तु उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता नहीं होती। अर्थात् अर्थव्यवस्था में विद्यमान उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपभोग हो रहा है। यदि उपभोग वस्तुओं की माँग में 10% की वृद्धि होती है तो उसे पूर्णतया नयी मशीनों से पूरा किया जायेगा। इससे मशीन निर्माण क्षमता दुगनी हो जायेगी।

(4) मांग का स्वभाव- यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि त्वरक प्रभावों हेतु उपभोग वस्तुओं की माँग में होने वाली वृद्धि स्थायी प्रकृति की होनी चाहिए। परन्तु यदि उपभोग वस्तुओं की माँग में होने वाली वृद्धि अस्थायी प्रकृति की है तो इसके परिणामस्वरूप उद्यमी पूँजीगत पदार्थों में अतिरिक्त निवेश नहीं करेंगे अर्थात् प्रेरित निवेश प्रोत्साहित नहीं होगा और त्वरक की कार्यविधि समाप्त हो जायेगी।

(5) साधनों की पूर्ति लोचता- यह धारणा इस मान्यता पर आधारित है कि क्रियाशीलता हेतु अर्थव्यवस्था में उपलब्ध साधन पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए। परन्तु यह भी तभी संभव है जबकि अर्थव्यवस्था में व्यापक बेरोजगारी हो। परन्तु जब एक बार किसी अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की अवस्था स्थापित हो जाती है तो औद्योगिक क्षेत्र के लिए पूँजीगत वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि करना कठिन हो जाता है। इस प्रकार गुणक की कार्यविधि की उच्चतम सीमा पूर्ण रोजगार स्तर है। पूर्ण रोजगार स्तर के बाद इसकी कार्यविधि समाप्त हो जाती है।

(6) साख की लोचपूर्ण पूर्ति- यह धारणा इस मान्यता पर आधारित है कि अर्थव्यवस्था में साख पूर्ति लोचदार होती है अर्थात् अर्थव्यवस्था में मौद्रिक साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। परन्तु वास्तव में साख की पूर्ति लोचदार नहीं होती विशेष रूप से अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में।

(7) मात्र अग्रगामी स्वरूप- त्वरक सिद्धान्त गुणक की धारणा की अपेक्षा कम सामान्य (Less General) है क्योंकि गुणक अग्रगामी (Forward) तथा अधोगामी (Backwards) दोनों दिशाओं में कार्य करता है जबकि त्वरक केवल अग्रगामी दिशा में ही कार्य करता है। इसीलिए केन्ज ने अपनी पुस्तक “सामान्य सिद्धान्त” में त्वरक सिद्धान्त की पूर्ण अवहेलना की है। केन्ज ने त्वरक की तकनीकी प्रकृति को महत्त्व देने की अपेक्षा मनोवैज्ञानिक धारणाओं जैसे गुणक, पूँजी का सीमान्त उत्पादकता व तरलता आदि को अधिक महत्त्व दिया है। केन्ज का विश्वास था कि व्यापारिक आशंकाओं की निरन्तर परिवर्तन की प्रकृति त्वरक सिद्धान्त की अपेक्षा निवेश आय और रोजगार स्तर के आकार को निर्धारित करने में अधिक महत्त्वपूर्ण है। क्लेक्सी ने अपनी “Essays in theory of Economic Fluctuations” में कहा है कि “उनके (केन्ज) लिए त्वरक सिद्धान्त आर्थिक विश्लेषण का एक असभ्य या अपक्व, अशुद्ध और अयोग्य यन्त्र था।”

अति-गुणक

(Super-Multiplier or Compound Multiplier)

प्रो० हैन्सन ने कीन्स द्वारा प्रतिपादित गुणक एवं अफ्तालियन द्वारा प्रतिपादित त्वरक के विचार को मिलाकर उनके संयुक्त प्रभाव को लीवरेज प्रभाव (Leverage Effect) नाम दिया। प्रश्न उठता है कि इस प्रकार के सम्मिश्रण से क्या आशय है? प्रो० हैन्सन की धारणा है कि प्रारम्भिक निवेश अथवा .स्वतन्त्र निवेश की कुल वृद्धि, कुल रोजगार एवं आय पर कई गुना बड़ा प्रभाव डालती है और उसके परिणामस्वरूप व्यक्गित उपभोग वस्तुओं की माँग को कई गुना बढ़ा देती है (यह तो हुआ गुणक प्रभाव) और उपभोग वस्तुओं की माँग के फलस्वरूप निवेश वृद्धि इसलिए होती है कि उपभोग वस्तुओं की मांग को सन्तुष्ट करने के लिए उत्पादन के नवीन साधनों की आवश्यकता पड़ती है (यह है त्वरक प्रभाव) ये व्युत्पन्न निवेश (Derivative Investment) पुन: गुणक में गतिशीलता उत्पन्न करते हैं और रोजगार एवं आय को कई गुना बढ़ा देते हैं जिससे निवेश और भी अधिक प्रेरित हो जाता है। यही क्रिया अतिगुणक क्रिया है।

द्वि क्षेत्रीय मण्डल में अतिगुणक की गणना

Y = C + I               ………(i)

 .: I = Ia + IT        …………(ii)

इसमें Ia स्वायत तथा Ia प्ररिता विनियोग है।

Y = C + Ia + Ii       …………(iii)

∆Y = ∆C + ∆la + ∆li  ………(iv)

(∆Y से भाग देने पर)

ΔY/∆Y  = ∆C/∆Y      + ∆la/∆Y

+ ∆li/∆Y

Or  1 =  ∆C/∆Y      + ∆Ia/∆Y      + ∆In/∆Y

Or   1 = b + ∆Ia/∆Y + e

(b = MPe तथा e = MPI)

1 – b – e = ∆Ia/∆Y

Or   ∆Ia/∆Y = 1 – b – e

अथवा ∆Y/∆Ia = 1/(1 – b – e)

Or K = 1/(1 – b – e)

K = 1/(1 – MPC – MPI)

इस प्रणाली की स्थिरता के लिए यह मान्यता ली गयी है कि ‘b’ एवं ‘c’ का योग हमेशा इकाई से कम होता है किन्तु शून्य से अधिक होता है [0<b+e<1] MPC एवं MP1 को यदि जोड़ दिया जाये तो यह व्यय की प्रवृत्ति (Mariginal propensity to Spend) अथवा MPE भी कहलाती है। क्योंकि इसी व्यय में से एक भाग उपभोग-गत वस्तुओं में व दूसरा विनियोग-गत वस्तुओं में होता है। [अर्थात् MPE = MPC + MPI] यदि हम यह मान्यता लेते हैं कि b+e हमेशा अन्य से अधिक होती है तो इसका आशय हुआ 1 – b – e हमेशा धनात्मक होगा। यह तभी सम्भव है जबकि 1 – b की अपेक्षा e छोटा होगा। संक्षेप में b एवं e दोनों धनात्मक भिन्न (Positive fraction) हैं अत: 1 – b की अपेक्षा 1 – b – e छोटा होगा; परिणामस्वरूप 1/(1 – b) से 1/(1 – b – e) बड़ा होगा, इस प्रकार अतिगुणक का मान हमेशा गुणक से अधिक होता है।

यदि उपर्युक्त शर्त पूरी होती है तो साधारण गुणक से अतिगुणक का मूल्य अधिक होगा, लेकिन यदि (e> 1 – b) सीमान्त विनियोग प्रवृत्ति (MP1) सीमान्त व्यय प्रवृत्ति (MPS =1 –  MPC) से अधिक हो तो परिणाम भिन्न होंगे। ऐसी स्थिति में MPC + MPi का मान इकाई से अधिक हो जायेगा।

K = 1/(1- b – e)

= 1/(1 – (b + e))

यदि b + e >1 तब 1/(1 – (b + e)) का परिणाम ऋणात्मक होगा अत: अति गुणक का मूल्य ऋणात्मक होगा। इसका अर्थ हुआ यदि विनियोग में वृद्धि होगी तो राष्ट्रीय आय का स्तर पहले से कम हो जायेगा, जो कि असम्भव है। अत: यह मान लेना कि O< b + e < 1 अनूचित नहीं है।

यदि MPC एवं MPI के मान रखकर गुणक व अतिगुणक का मूल्य निकाला जाये तो अन्तर स्पष्ट हो जाता है।

माना- MPC = 0.8

MPI = 0.1

KI = 1/(1 – b) = 1/(1 -mpc) = 1/(1 – 0.8) = 1/2 = 5

K1 = 1/(1 – b – e) = 1/(1 – mpc – mpi) = 1/(1 – 0.8 – 0.1) = 1/0.1 = 10

इस प्रकार प्रेरित विनियोग ने गुणक का मूल्य 5 से बढ़ाकर 10 कर दिया है।

प्रो० हैरोड, सैम्युल्सन, हिक्स एवं कुीहारा ने भी इन दो समानान्तर धारणाओं को सम्बन्धित करने के प्रयास किये हैं। प्रो० हिक्स ने इसी गुणक त्वरक संक्रिया अथवा अतिगुणक की क्रियाविधि से व्यापार-चक्र को समझाया है। निम्न तालिका से गुणक त्वरक संक्रिया को समझाया गया है-

गुणक अवधि प्रारम्भिक निवेश (M) प्रेरित उपभोग

(MPC = 5)

प्रेरित निवेश

(a = 2)

राष्ट्रीय आय की कुल वृद्धि
1

2

3

4

5

6

7

8

100

100

100

100

100

100

100

100

_

50

125

187.50

206.25

171.87

_

_

_

100

150

125

37.50

68.76

_

_

100

250

375

412.50

343.75

203.11

_

_

गुणक एवं त्वरक के संयुक्त प्रभाव को निम्न चित्र से भी प्रदर्शित किया है-

उपरोक्त रेखाकृति में SS एवं II क्रमशः बचत एवं विनियोग वक्र हैं जो एक-दूसरे को P बिन्दु पर काटते हैं। अर्थव्यवस्था में OM आय है और ON मात्रा बचत भी है एवं विनियोग भी। यदि विनियोग बढ़कर 11 11 हो जाता है और सन्तुलन बिन्दु P से हटकर P2 हो जाता है तो राष्ट्रीय आय OM बढ़कर OM2 हो जाती है अर्थात् राष्ट्रीय आय में कुल वृद्धि M M2 हुई। यदि केवल विनियोग बढ़ता और उसमें प्रेरित विनियोग का पुट नहीं होता तो विनियोग वृद्धि चक्र x अक्ष के समानान्तर एक सीधी रेखा N2 N2 की भाँति होता और सन्तुलन बिन्दु p से p1 पर हो जाता है। यह M M1 वृद्धि शुद्ध गुणक प्रभाव होता। किन्तु विनियोग में वृद्धि को N2N2 की तरह नहीं II1 की तरह प्रदर्शित किया गया है तो प्रेरित विनियोग का पुट शामिल है अर्थात् शेष m1m2 की वृद्धि त्वरक का प्रभाव है।

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