अर्थशास्त्र

एडम स्मिथ के आर्थिक विकास का सिद्धान्त | स्मिथ द्वारा आर्थिक विकास की परिभाषा | आर्थिक विकास के सम्बन्ध में स्मिथ के प्रमुख विचार

एडम स्मिथ के आर्थिक विकास का सिद्धान्त | स्मिथ द्वारा आर्थिक विकास की परिभाषा | आर्थिक विकास के सम्बन्ध में स्मिथ के प्रमुख विचार

एडम स्मिथ के आर्थिक विकास का सिद्धान्त

(Adam Smith’s Theory of Economic Growth)

एडम स्मिथ ने आर्थिक विकास का कोई विशेष माडल तो प्रस्तुत नहीं किया, किन्तु अपने चतुराईपूर्वक दिये सुझावों के द्वारा उसने एक ऐसे सिद्धान्त का ढाँचा खड़ा कर दिया, जो कि आर्थिक विकास के सिद्धान्त से बहुत सादृश्य रखता है। श्री लोकायमन के अनुसार-“स्मिथ का अधिकांश विश्लेषण ऐसा प्रतीत होता है मानो वह आज के अर्द्ध-विकसित देशों को मस्तिष्क में रख कर लिखा गया है।”

सच तो यह है कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र में दो विभिन्न अवस्थायें हैं-एक ओर तो यह वितरण की समस्या और साम्य विश्लेषण (अर्थात्, एक स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धात्मक बाजार में उत्पत्ति साधनों के कुशल वितरण की समस्या) से सम्बन्धित है तथा दूसरी ओर यह उत्पादन की समस्या (अर्थात् कालक्रमानुसार भौतिक उत्पादकता की वृद्धि की सम्भावना) से सम्बन्धित है। अब लोग प्राय; यह मानने लगे हैं कि प्रतिष्टित अर्थशास्त्र के उक्त दो विभिन्न पहलू असंगत मान्यताओं (inconsistent assumptions) को जन्म देते हैं। इन दो असंगत दृष्टिकोणों का मिलान (compromise) करना आसान काम नहीं है।

यह कहना बहुत सीमा तक सत्य होगा कि स्मिथ के विचार सामान्यतः भौतिक उत्पादकता को बढ़ाने की समस्या से सम्बन्धित थे। उसने वेल्थ ऑफ नेशन्स के प्रथम खण्ड में वितरण का एक सिद्धान्त भी दिया है। किन्तु यह उसका एक ‘बाद का विचार’ (after thought) था और फ्रांसीसी निर्वाधावादियों से स्मिथ के सम्पर्क का अनिवार्य परिणाम था। स्मिथ का “केन्द्रीय एवं समन्वय करने वाला सिद्धान्त” मुख्यत: उत्पादन की भौतिक समस्या (अर्थात् आर्थिक विकास की समस्या) पर बल देने से ही उदय हुआ। निःसन्देह स्मिथ उत्पादन की समस्या में इतना व्यस्त रहा था कि रोबिन्स ने उस पर अस्वस्थ भौतिकवादी’ पक्ष लेने का आरोप लगाया है।

स्मिथ द्वारा आर्थिक विकास की परिभाषा

(Definition of Economic Growth as given by Smith)

अपनी पुस्तक ‘वेल्थ ऑफ नेशन्स’ की भूमिका और योजना में स्मिथ ने ‘आर्थिक विकास की आश्चर्यजनक आधुनिक परिभाषा प्रस्तुत की है। उन्होंने आर्थिक विकास को वार्षिक उपन (अर्थात् राष्ट्रीय आय) के आकार के रूप में परिभाषित किया है। उनका तर्क है-“अत: इस उपज का (अथवा इसके द्वारा जो वस्तुयें आदि खरीदी जा सकें उनका) उन लोगों की संख्या से जो कि इसका उपभोग करेंगे, अनुपात कम या अधिक होने की अनुसारता में ही राष्ट्र की आवश्यकताओं और सुविधाओं की पूर्ति न्यूनता या प्रचुरता के साथ होना निर्भर करता है।” इस प्रकार, स्मिथ ने आर्थिक प्रगति के एक मापक के रूप में प्रति व्यक्ति आय’ की धारणा पर बल दिया है।

आर्थिक विकास के सम्बन्ध में स्मिथ के प्रमुख विचार

(Toughts of Smith in relation to Economic Growth)

  1. आर्थिक विकास के लिए राज्य का हस्तक्षेप अनिवार्य नहीं- एडम स्मिथ व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे। इनके अनुसार मानव को न तो कोई संगठन बनाने की आवश्यकता है, न किसी सर्वसाधारण इच्छा में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है और न किसी प्रकार के पारस्परिक समझौते ही करने की आवश्यकता है। स्मिथ ने ऐसे सभी राजकीय और निजी कार्यों का विरोध किया जो अर्थव्यवस्था की स्वतन्त्रता तथा प्रतियोगिता में बाधा डालते हैं। एडम स्मिथ का विचार था कि जब व्यक्ति स्वहित से प्रेरित होकर आचरण करेगा तब स्वत: ही एक समृद्धिशाली समाज का निर्माण करेगा जो सभी व्यक्तियों के लिए हितकारी होगा।
  2. श्रम विभाजन आर्थिक प्रगति का मुख्य पहिया- स्मिथ ने आर्थिक प्रगति के निर्धारण में श्रम विभाजन को एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। श्रम विभाजन (चाहे व्यावसायिक हो या क्षेत्रीय) आन्तरिक एवं बाह्य मिव्ययितायें पैदा करता है। एडम स्मिथ के शब्दों में “प्रत्येक राष्ट्र का वार्षिक श्रम एक कोष है, जो मुख्य रूप से राष्ट्र द्वारा प्रतिवर्ष उपभोग की जाने वाली समस्त आवश्यक वस्तुएँ एवं सुविधाएँ प्रदान करता है।” इसमें टेक्नोलॉजी की कला में सुधार भी सम्मिलित है। टेक्नोलॉजीकल सुधार से न केवल उत्पादन लागत घट जाती है, वरन् अर्थव्यवस्था की भावी उत्पादन क्षमता भी बढ़ जाती है। उल्लेखनीय है कि स्मिथ ने टेक्नोलॉजी की धारणा का प्रयोग एक विशेष अर्थ में किया है और यह (टेक्नोलॉजी) श्रम से प्रतिस्पर्धात्मक न होकर इसकी प्रति-पूरक है। अत: श्रम विभाजन आर्थिक प्रगति का एक मुख्य पहिया समझा जाता है।

श्रम विभाजन के सिद्धान्त की चर्चा करने के उपरान्त स्मिथ अपने बाजार-नियम का विवेचन करता है। दीर्घकाल में किसी अर्थव्यवस्था की बढ़ी हुई उत्पादन क्षमता को तब ही कायम रखा जा सकता है, जबकि उत्पादन के लिए पर्याप्त प्रभावी माँग हो। यह प्रभावी माँग (effective demand) दो भागों में विभाजित की जा सकती है-घरेलू और विदेशी। स्मिथ अत्यन्त दृढ़तापूर्वक स्वतन्त्र व्यापार का समर्थन करता है, क्योंकि उसका विश्वास है कि इसके द्वारा विदेशी मांग में बहुत वृद्धि की जा सकती है। वास्तव में स्वतन्त्र व्यापार द्वारा बाजार का समतलीय या क्षैतिज विस्तार (horizontal expansion) होता है तथा प्रादेशिक श्रम विभाजन को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार उत्पादन की टेक्नीकल अविभाज्यताओं पर विजय प्राप्त करने से भौतिक उपज के बढ़ने से जो लाभ प्राप्त हो सकते हैं, उनकी प्राप्ति के आसार बढ़ जाते हैं।

स्मिथ के विशाल जनसंख्या एवं श्रम को ऊँची वास्तविक मजदूरी देने का समर्थन किया। ऊँची वास्तविकता मजदूरियाँ (real wages) व बढ़ती हुई जनसंख्या दोनों मिलकर घरेलू प्रभावी माँग को बढ़ायेंगी एवं घरेलू अर्थव्यवस्था में व्यावसायिक श्रम विभाजन को प्रोत्साहित करेंगी। इस प्रकार आर्थिक प्रगति की प्रक्रिया संचयी (cumulative) हो जाती है। श्रम विभाजन लगातार आन्तरिक एवं बाह्य मितव्ययिताओं को जन्म देता है। निःसन्देह स्मिथ एक आशावादी विचारक था।

  1. पूँजी निर्माण आर्थिक विकास के लिये एक आवश्यक तत्व- स्मिथ के मतानुसार पूँजी निर्माण आर्थिक विकास के लिये एक आवश्यक तत्व है। मितव्ययिता से पूँजी में वृद्धि होती है तथा अपव्यय और दुराचरण से पूँजी में कमी आती है। विवेकशील व्यक्ति भविष्य के उत्पादन के लिए सदैव एक संचित कोष का निर्माण करता है और इसके विपरीत फिजूलखर्ची व्यक्ति इस कोष का दुरुपयोग करता है। इस प्रकार “समाज द्वारा वास्तविक बचत किये बिना पूँजी का निर्माण और आर्थिक विकास सम्भव नहीं।”
  2. आर्थिक प्रगति का एक अन्य निर्धारक तत्व उत्पादक एवं अनुत्पादक श्रम का अनुपात- श्रम विभाजन के अतिरिक्त, आर्थिक प्रगति की दर का निर्धारण करने में दूसरा महत्त्वपूर्ण घटक है उत्पादक और अनुत्पादक श्रम का अनुपात। स्मिथ ने उत्पादक एवं अनुत्पादक श्रम में जो भेद किया है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उसका कहना है कि अनुत्पादक श्रम से उत्पादन श्रम का अनुपात पूँजी-संग्रह की दर से शासित होता है। बढ़ता हुआ पूँजी-संग्रह अधिक श्रम विभाजन के द्वारा अर्थव्यवस्था के लम्बवत् विस्तार (Vertical expansion of economy) को प्रोत्साहित करता है।
  3. आर्थिक विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया- एडम स्मिथ के अनुसार आर्थिक विकास निरन्तर चलती रहने वाली एक प्रक्रिया है, जिसका स्वरूप संचयी (cumulative) होता है। अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेनाओं की प्रभावपूर्ण माँग बने रहने के परिणामस्वरूप आवश्यक पूंजी का निर्माण होता है और उत्पादन व्यवस्था में श्रम विभाजन का प्रादुर्भाव होते हैं, जिनसे फिर उत्पादन का सामान्य स्तर ऊँचा हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि राष्ट्र की वास्तविक आय बढ़ जाती है और बाजार अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत हो जाता है। जनसंख्या में होने वाली वृद्धि बाजार विस्तार में और भी अधिक सहायक होती है। बाजार का विस्तार और श्रम विभाजन उत्पादन की नवीन पद्धतियों को प्रोत्साहित करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन स्तर और राष्ट्रीय आय और अधिक बढ़ जाती है। आय में वृद्धि से बचतें बढ़ती हैं, जिससे पूँजी की मात्रा में और अधिक वृद्धि होकर उत्पादन तीव्र गति से होने लगता है तथा विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रकार आर्थिक विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है।
  4. आर्थिक विकास की सीमाएँ-यद्यपि एडम स्मिथ ने आर्थिक विकास को अत्यधिक सुलझे ढंग से समझाया है, तथापि उनका यह भी विचार था कि आर्थिक विकास की सम्भावनाओं की एक सीमा होती है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने अपने विचार उस अर्थव्यवस्था से प्रारम्भ किये हैं, जो प्राकृतिक दृष्टि से समृद्धशाली हैं तथा जहाँ लोग नये-नये जाकर बसे हैं। ऐसी अर्थव्यवस्था में पूँजी की पूर्ति विनियोग की तुलना में कम होती है इसलिए विनियोगों से प्राप्त होने वाले लाभ की दर ऊँची रहती है। परन्तु जैसे-जैसे पूँजी संचयन होता जाता है, पूँजी की पूर्ति विनियोग की तुलना में अधिक हो जाने पर लाभ की दर गिरने लगती है। मजदूरी की दरें उसी समय तक ऊँची रहेंगी जब तक कि पूंजी का संचयन स्तर ऊंचा रहेगा। अन्त में जनसंख्या में वृद्धि हो जाने पर पूँजी संचयन स्तर गिर जायेगा, परिणामस्वरूप मजदूरी की दरें भी गिर जायेंगी। अर्थव्यवस्था के समस्त साधनों का अधिकतम प्रयोग हो जाने पर लाभप्रद विनियोगों के अवसर बहुत ही कम ह जाते हैं, जिस कारण बचत और विनियोग हतोत्साहित होंगे तथा मजदूरी की दरें और भी कम हो जायेंगी। इस प्रकार अर्थव्यवस्था गतिहीन अवस्था में पहुँच जायेगी तथा आर्थिक विकास रुक जायेगा।
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Pankaja Singh

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