एडम स्मिथ के प्रमुख आर्थिक विचार | आर्थिक विचारों के क्षेत्र में एडम स्मिथ का मूल्यांकन
एडम स्मिथ के प्रमुख आर्थिक विचार
(Main Economic thought of Adam Smith)
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प्रकृतिवाद तथा आशावाद-
एडम स्मिथ का पहला विचार यह है कि ‘आर्थिक संस्थाओं का जन्म स्वयं हुआ है और दूसरा विचार यह है कि ये संस्थाएं लाभदायक हैं।’ एडम स्मिथ के ये दोनों विचार इस प्रकार एक-दूसरे से इस प्रकार सम्बन्धित हैं कि इन्हें एक-दूसरे से अलग रख कर नहीं समझा जा सकता।
एडम स्मिथ का कहना था कि आर्थिक संस्थाओं का जन्म और विकास स्वतः हुआ है। इन संस्थाओं को मनुष्य द्वारा किसी योजना के अनुसार नहीं बनाया गया है। वे समझते थे कि जो आर्थिक स्थिति विद्यमान है वह असंख्य लोगों की आकस्मिक क्रियाओं का परिणाम है यही स्मिथ का प्रकृतिवाद है। उदाहरण स्वरूप श्रम विभाजन की क्रिया को समझाते हुए स्मिथ ने लिखा है कि “श्रम विभाजन किसी मनुष्य की बुद्धि का परिणाम नहीं है। यह मानव स्वभाव की विनिमय प्रकृति का क्रमिक परिणाम है।”
इसी प्रकार एडम स्मिथ ने प्रकृतिवाद और आशावाद में परस्पर सम्बन्ध स्थापित किया है। आर्थिक संस्थाओं का स्वेच्छानुरूप जन्म होने के अतिरिक्त इन संस्थाओं के विषय में ध्यान देने योग्य दूसरी बात ये है कि ये सभी संस्थायें मनुष्य के लिये लाभप्रद भी सिद्ध हुई हैं। इसी प्रकार क्रमिक वृद्धि आशावाद को जन्म देती है। स्मिथ ने प्रकृतिवाद का अर्थ आर्थिक संस्थाओं की व्युत्पत्ति तथा आशावाद का अर्थ आर्थिक संस्थाओं की लाभदायकता से जोड़ा है।
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एकाधिकार एवं वणिकवाद-
एडम स्मिथ के अनुसार वणिकवादी प्रणाली राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में गम्भीर बुराई बनी हुई थी। इसमें धन की प्रकृति के सम्बन्ध में गलत विचारों को स्वीकार किया गया था। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के नियति उपादानों तथा आयात करों द्वारा अधिक स्वर्ण प्राप्त करने का प्रयास किया जाता था। वणिकवाद के समान एकाधिकार की प्रक्रिया भी एक प्रकार की बुराई थी। स्मिथ के समय में ब्रिटिश तथा डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी इसका उदाहरण थी। स्मिथ ने इन कम्पनियों के बारे में लिखा है कि “इस प्रकार की एकाधिकारी कम्पनियाँ सभी दृष्टिकाणों से बुराई है तथा जिन देशों में स्थापित होती हैं उनके लिये असुविधा होती है” एडम स्मिथ एकाधिकार भावना के अत्यधिक विरुद्ध थे।
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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा संरक्षण-
एडम स्मिथ मुक्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के समर्थक थे तथा साथ ही संरक्षण की नीति के विरोधी भी थे। संरक्षण की आलोचना करते हुए स्मिथ ने लिखा है कि संरक्षण पूँजी के निवेश को अधिक उत्पादक उद्योगों से हटाकर कम उत्पादक उद्योगों की ओर मोड़ देता है फलस्वरूप राष्ट्र की उत्पादन शक्ति तथा कुल राष्ट्रीय उत्पादन में कमी हो जाते हैं, जिससे समुदाय के आर्थिक कल्याण में कमी हो जाती है। केवल सुरक्षा के लिये ही स्मिथ ने संरक्षण का समर्थन किया है।
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मुद्रा (Money)-
एडम स्मिथ ने मुद्रा के महत्त्व तथा वास्तविक अस्तित्व सम्बन्धी प्राचीन वणिकवादी विचारधारा की कड़ी आलोचना की है। मुद्रा के विनिमय साधन, धन संचय, श्रम विभाजन, बैंक की उत्पत्ति सम्बन्धी अनेक लाभों को जानते हुए भी वे वणिकवादियों की इस विचारधारा से सहमत नहीं थे कि मुद्रा देश की वास्तविक सम्पत्ति है। उनके अनुसार देश की वास्तविक सम्पत्ति उस देश का श्रम, भूमि, भवन इत्यादि होते हैं। किसी देश की वास्तविक राष्ट्रीय आय उस देश के श्रम तथा भूमि के साधनों द्वारा उत्पादित विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं का वार्षिक उत्पादन होता है।
स्मिथ के अनुसार मुद्रा स्वयं में बिलकुल अनुत्पादक है। स्वर्ण और रजत के भण्डारों पर अन्न उगाया नहीं जा सकता । इस प्रकार मुद्रा अधिक होने से देश धनी नहीं हो सकता।
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मूल्य निर्धारण का सिद्धान्त (Theory of Value)-
स्मिथ के अनुसार मूल्य के लिये किसी वस्तु में दो गुण होने चाहिये (1) उपयोगिता तथा (2) दुर्लभता। यदि वस्तु में उपयोगिता का गुण नहीं होगा तो उसे कोई क्रय नहीं करेगा इसके अतिरिक्त दुर्लभता न होने पर (वायु, पानी) वस्तु बिना क्रय किये ही मिल जायेगी। अत: मूल्य प्राप्त होने के लिये वस्तु में उपयोगिता के गुण के अतिरिक्त दुर्लभता की विशेषता भी होनी चाहिये।
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वितरण का सिद्धान्त (Theory of Distribution)-
मूल्य निर्धारण की समस्या के आधार पर ही उन्होंने वितरण की समस्या का अध्ययन किया है। मूल्य में लगान, मजदूरी तथा लाभ आदि का हिस्सा होता है और वस्तु की प्राकृतिक कीमत इतनी होनी चाहिये कि इन सभी का हिस्सा उन्हें दिया जा सके। स्मिथ के अनुसार प्रारम्भिक समाज में एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण उत्पादन करता था तब वितरण की कोई समस्या नहीं थी किन्तु धीरे-धीरे उत्पादन विधियों के विकसित होने से पूँजी तथा भूमि श्रमिक की मजदूरी, पूँजीपति का लाभ तथा भूमि का लगान भी मूल्य में सम्मिलित होने लगा। इस प्रकार वितरण की कठिन समस्या ने जन्म लिया। स्मिथ ने इन्हीं तीन साधनों के प्रतिफलों लगान, मजदूरी तथा लाभ अथवा ब्याज के निश्चित होने की बात वितरण में कही है।
लगान- स्मिथ ने इस विषय में कोई विकसित सिद्धान्त नहीं दिया है उनके अनुसार लगान एकाधिकार की कीमत है तथा ये भी कहते हैं कि लगान प्रकृति का उपहार है इस प्रकार उनका लगान सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण तथा असन्तोषजनक है।
लाभ अथवा ब्याज- स्मिथ ने लाभ अथवा ब्याज में कोई भेद नहीं किया है। परन्तु यह विचार गलत है एडम स्मिथ के इस विचार का कारण यह है कि उनके समय में उद्योगपति तथा उद्यमकर्ता दो पृथक् व्यक्ति नहीं थे। वे कहते हैं कि ब्याज की दर इतनी होनी चाहिये कि पूँजी के उपभोग से जो हानि उठानी पड़ती है उसकी क्षतिपूर्ति ब्याज द्वारा की जा सके।
मजदूरी- स्मिथ ने लिखा है मजदूरी मालिकों तथा श्रमिकों के मध्य प्रतियोगिता के द्वारा निर्धारित होती है। वस्तुत: मालिकों को सौदा करने की शक्ति श्रमिकों की सौदा करने की शक्ति की अपेक्षाकृत अधिक होती है, यद्यपि श्रमिकों की सौदाशक्ति मालिकों से कमजोर होती है तथापि जीवननिर्वाह स्तर से कम नहीं हो सकती।
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काराधान (Taxation)-
एडम स्मिथ ने काराधान के सम्बन्ध में चार सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है-
समानता अथवा योग्यता का सिद्धान्त- प्रत्येक नागरिक को अपनी योग्यता के अनुपात में सरकार की सहायता के लिये धन देना चाहिये।
निश्चितता का सिद्धान्त- करदाता की कर राशि निश्चित होनी चाहिए।
सुविधा का सिद्धान्त- कर ऐसे समय तथा इस प्रकार लगाना चाहिये जिससे करदाता को देने में सुविधा हो।
मितव्ययता का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार करदाताओं से कर वसूलने का तरीका ऐसा होना चाहिये जिससे न्यूनतम खर्च हो।
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पूँजी का सिद्धान्त (Theory of Capital)-
एडम स्मिथ ने पूँजी को उत्पादन के लिए महत्त्वपूर्ण माना है। पूजा का वह बचत का ही स्वरूप मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि बचत दो प्रकार की होती है : प्रथम बचत का वह भाग जो उत्पादक श्रम को रोजगार पर लगाये रखने के लिये काम आता है तथा दूसरी बचत का वह हिस्सा है जिसको हम तुरन्त उपभोग में लाते हैं । बचत के पहले भाग को उन्होंने पूँजी की संज्ञा दी है। पूँजी दो प्रकार की होती है चल, अचल। चल पूँजी हस्तांरित हो सकती है; जैसे-कच्चा माल, विनिर्मित वस्तु। अचल पूँजी जैसे मकान, मशीन जिसे हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है।
पूँजी का उपभोग तीन कार्यों में होता है (1) कृषि, (2) उद्योग, (3) व्यापार । स्मिथ ने कृषि में पूँजी का प्रयोग उत्पादक माना है क्योंकि कृषि में प्रकृति मनुष्य के साथ मिलकर कार्य करती है परन्तु अपना कोई पारितोषक नहीं मांगती । क्रमानुसार उन्होंने कृषि, उद्योग तथा व्यापार के लिये पंजी के प्रयोग की बात कही है।
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