अर्थशास्त्र

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धी रिकार्डों के विचार | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में रिकार्डो का योगदान

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धी रिकार्डों के विचार | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में रिकार्डो का योगदान

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धी रिकार्डों के विचार

रिकार्डो मुख्यत: विशुद्ध अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अपने योगदान के लिये प्रसिद्ध हैं। लेकिन मौद्रिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी उन्होंने एक स्थाई एवं बहुमूल्य योग दिया है :-

  1. कैसल का क्रयशक्ति समता सिद्धान्त रिकार्डों से प्रभावित है- अपनी पुस्तक The High Price of Bullion में रिकार्डों ने स्वर्णमान एवं अपरिवर्तनशील पत्रमान के अन्तर्गत विभिन्न दरों के सिद्धान्त का पर्याप्त विस्तार से विवेचन किया है। विनिमय दर स्वर्णमान के अन्तर्गत टकसाली क्षमा द्वारा (देशी एवं विदेशी मुद्राओं के स्वर्ण अनुपात द्वारा) निर्धारित होगी और इसमें परिवर्तन स्वर्ण बिन्दुओं तक ही सीमित रहेंगे; लेकिन अपरिवर्तनशील पत्रमान की दशा में रिकार्डो ने बड़ी चतुराई से यह इंगित किया कि विनिमय दर दोनों करेंसियों को क्रयशक्ति के द्वारा निर्धारित होती है। वह लिखते हैं-“जब चलन का माध्यम अनिकृष्ट सिक्कों (Undebased Coins) के रूप में है या ऐसी कागजी मुद्रा के रूप में है जो कि अनिकृष्ट सिक्कों में विनिमय साध्य हो, तो विनिमय दर समता से, बहुमूल्य धातुओं के यातायात व्यय को सीमा तक हो ऊँची या नीची हो सकती है, अधिक नहीं। लेकिन जब चलन-माध्यम डेप्रिसियेटेड पत्र मुद्रा के रूप में हो, तब वह हास्य (deprecation) की मात्रा के अनुसार ऊँची या नौची हो जायेगी।”
  2. मूल्यों में उतार-चढ़ावों का उपयुक्त उपचार सुझाने में रिकार्डो ने विकसैल के पूर्ववर्ती का कार्य किया- यह भी रोचक बात है कि मूल्यों में उतार-चढ़ावों को रोकने के लिये रिकार्डो ने जो सुझाव दिये उनमें विकसैल के विचारों की पूर्व-झलक मिलती है। विकसैल को भाँति उसने भी यह विचार किया कि मूल्यों में अस्थिरता रहने का कारण ब्याज को मौद्रिक दर (money rate of interest) तथा स्वाभाविक दर में भिन्नता होना है। दूसरे शब्दों में, रिकार्डो को विकसैल की भाँति यह ज्ञान था कि एक ऐसी अर्मूत (intangible) स्वाभाविक ब्याज दर (natural rate of interest) होती है, जो कि मूल्यों में तथा आर्थिक प्रणाली में स्थिरता ला सकती है। किन्तु वह इस बात को नहीं दिखा सके कि आर्थिक उतार-चढ़ाव क्यों ‘मौद्रिक ब्याज दर’ एवं ‘स्वाभाविक ब्याज-दर’ में भिन्नता से उदय होते हैं। (बैंक-दर की इस कार्य प्रणाली को केन्ज ने अपने मौलिक समीकरणों (Fundamental Equations) में स्पष्ट किया है।)
  3. करेंसी की अधिकता, विनिमय ह्रास और धातुओं के ऊँचे मूल्यों के लिए रिकार्डो ने एक उपयोगी सुझाव यह दिया कि बैंक नोटों को धीरे-धीरे वापस लेने की नीति अपनाई जाय।
  4. मुद्रा के मूल्य को प्रभावित करने वाले घटकों का विश्लेषण- उसने अपनी पुस्तक (Proposals for Economic and Secure Currency में उन घटकों का सावधानी से विश्लेषण किया है, जो कि मुद्रा के मूल्य को निर्धारित करते हैं। पूर्ति की प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थितियों (competitive conditions of supply) में मुद्रा का मूल्य उत्पादन लागत तक घट जायेगा, लेकिन, एकाधिकारिक पूर्ति की दशा में, वह मांग की अपेक्षा पूर्ति की दुर्लभता पर निर्भर होगा। इस प्रकार, मुद्रा-पूर्ति के नियन्त्रण द्वारा मुद्रा-मूल्य को किसी भी इच्छित ऊँचाई पर बनाये रखा जा सकता है तथा स्वर्ण-धातु में मुद्रा के मूल्य को, परिवर्तनशीलता (convertibility) की युक्ति प्रचलित करके, स्थिर किया जा सकता है।
  5. रिकार्डो ने पत्र मुद्रा के गुण-दोषों पर प्रकाश डाला उसने बताया कि व्यापार के लिये एक सुनियन्त्रित पत्र करेंसी बहुत लाभदायक है। यह मितव्ययो, स्वचालित तथा मूल्य को स्थिर रखने वाली भी है। इसके विपरीत, सोना-चाँदी एक महगा माध्यम है। यदि किसी समय सोने की उत्पत्ति कम जो जाय, तो सोने का मूल्य बढ़ जायेगा और वस्तुओं के मूल्य कम हो जायेंगे। इस समस्या का पत्र-मुद्रा के प्रकाशन द्वारा दूर किया जा सकता है। उसने परिवर्तनशील पत्र-मुद्रा का सुझाव दिया, ताकि जनता का उसमें विश्वास रहे।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में रिकार्डो का योगदान

(Ricardo’s Contribution in the Sphere of International Trade)

  1. तुलनात्मक लागत सिद्धान्त का निर्माण- दो देशों के बीच श्रम को पूर्णतया अगतिशील तथा उत्पत्ति समता नियम को विद्यमान मानते हुए रिकार्डो ने निरपेक्षा एवं तुलनात्मक लागत-अन्तरों के सन्दर्भ में राष्ट्रीय व्यापार का औचित्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया।

(अ) निरपेक्ष लागत अन्तर (Absolute Cost Differences)- मान लीजिए कि ‘प्रथम’ देश ‘अ’ वस्तु की एक इकाई 10 श्रम-इकाइयों से और ‘ब’ वस्तु की एक इकाई 20 श्रम-इकाइयों से उत्पन्न करता है, जबकि ‘द्वितीय’ देश ‘अ’ वस्तु की एक इकाई 20 और ‘ब’ वस्तु की एक इकाई 10 श्रम-इकाइयाँ लगा कर उत्पन्न करता है। ऐसी दशा में प्रथम’ देश ‘अ’ वस्तु के उत्पादन में और ‘द्वितीय’ देश ‘ब’ वस्तु के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त करेगा।

(ब) तुलनात्मक लागत का अन्तर (Comparative Cost Difference)-  रिकार्डों एक अन्य व्यक्ति का भी विवेचन करता है, जिसमें दोनों में से एक देश दोनों ही वस्तुएँ दूसरे देश को अपेक्षा कम श्रम लागत पर बना सकता है। मान लीजिए कि इंग्लैण्ड में कपड़े की एक इकाई की लागत 100 और शराब की एक इकाई की लागत 120 श्रम-इकाइयाँ हैं। जबकि पुर्तगाल में कपड़े व शराब की एक-एक इकाई की लागत क्रमश: 90 और 80 श्रम-इकाइयाँ हैं। स्पष्ट है कि पुर्तगाल शराब और कपड़ा दोनों को ही इंग्लैण्ड को अपेक्षा सस्ता बना सकता है। फिर भी 90/100 की अपेक्षा 80/120 कम होने के कारण पुर्तगाल को शराब के उत्पादन में तथा इंग्लैण्ड को कपड़े के उत्पादन में तुलनात्मक लाभ है। अतः पुर्तगाल को शराब का और इंग्लैण्ड को कपड़े का उत्पादन करने में विशिष्टता प्राप्त करनी चाहिए।

इस प्रकार, हम देखते हैं कि जो नियम एक देश में वस्तुओं के सापेक्ष मूल्य का नियमन करता है वह दो या अधिक देशों के मध्य विनिमय की गई वस्तुओं के सापेक्षिक मूल्य का नियमन नहीं करता।

  1. स्वतन्त्र व्यापार का समर्थन- विदेशी व्यापार के सम्बन्ध में रिकार्डो, स्मिथ एवं निर्बाधावादियों की अपेक्षा स्वतन्त्र व्यापार का अधिक समर्थक था। उसके विदेशी व्यापार सम्बन्धी विचारों में कहीं भी निराशावाद की झलक नहीं मिलती और वह पूर्णरूप से आशावादी प्रतीत होता है। यहाँ वह विभिन्न वर्गों के हितों में कोई संघर्ष नहीं देखता। उसका विश्वास था कि विदेशी व्यापार से व्यक्तिगत हित के साथ-साथ सामाजिक हित की भी वृद्धि होती है।

स्वतंत्र व्यापार के पक्ष में उसका एक महत्वपूर्ण तर्क प्रादेशिक श्रम विभाजन के लाभ पर आधारित है। इस सम्बंध में उसने लिखा था कि उद्योगों को बढ़ावा देकर, कुशलता का उपायुक्त पुरस्कार देकर एवं प्रकृति की विशिष्ट भेंट का सर्वोत्तम ढंग से प्रयोग करके स्वतन्त्र व्यापार श्रम  को सबसे प्रभावी एवं मितव्ययिता पूर्ण ढंग से वितरित करता है।

3. विदेशी व्यापार के सन्तुलन का सिद्धान्त- रिकार्डों का यह भी कहना था कि प्रतिबन्ध न होने पर विदेशी विनिमय दर के परिवर्तन द्वारा विदेशी व्यापार का सन्तुलन हो जायेगा। रिकार्डों की यह धारणा विदेशी विनियम के सिद्धान्त सम्बन्धित है। रिकार्डों का कहना है कि यदि किसी देश का व्यापार सन्तुलन प्रतिकूल है तो अन्तर का भुगतान करने के लिये उसे दूसरे देश को स्वर्ण (बुलियन) भेजना पड़ेगा। इससे वहाँ द्रव्य की मात्रा कम हो जायेगी और वस्तुओं के मूल्य गिर जायेगे। किन्तु जिसे भुगतान किया गया वहाँ न दव्य की मात्रा बढ़ेगी वस्तुत: वहाँ वस्तुयें महंगी हो जायेगी। ऐसी दशा में वह देश पहले वाले देश से वस्तुयें मंगाने लगेगा क्योंकि वहाँ वस्तुएं सस्ती मिलती है। इससे उस देश का निर्यात बढ़ने से और आयात कम होने से वहाँ का दिया गया सोना वापस आने लगता है। यह चक्र बराबर चलता रहता है और प्रत्येक देश में द्रव्य की उतनी ही मात्रा रहती है जो कि उस देश के लिए आवश्यक है।

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Pankaja Singh

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