इतिहास

बौद्ध धर्म के उत्थान के कारण | Reasons for the rise of Buddhism in Hindi

बौद्ध धर्म के उत्थान के कारण | Reasons for the rise of Buddhism in Hindi

बौद्ध धर्म के उत्थान के कारण

तथागत की ज्ञान प्राप्ति के क्षण से प्रारम्भ होकर, भारतीय सीमाओं को लाँघ कर बौद्ध धर्म लंका, बर्मा, चीन, जापान, स्याम, तिब्बत, जावा, सुमात्रा तथा चम्पा आदि देशों में अपनी जड़ें जमाकर मध्य एशिया तक जा पहुँचा। इन सभी देशों में बौद्ध धर्म ने गहरी जड़ें जमा ली तथा साथ ही एशिया  के अधिकांश में इसका व्यापक प्रसार हो गया। एक लेखक के अनुसार, “परिस्थितियों के अनुकूलन, वैचारिक, दार्शनिक तथा व्यावहारिक क्षेत्रों में श्रेष्ठ होने की वजह से बौद्ध धर्म शीघ्र ही प्रगति विस्तार, विकास तथा उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो गया। यह धर्म जन-साधारण का, जन- साधारण के लिये तथा जन-साधारण द्वारा था, अतः इसके प्रसार में आनुपातिक वृद्धि हो गई और एक दिन देशकाल की सीमाओं को लाँघ कर यह चिरस्थायी हो गया। धर्म चक्र प्रवर्तन की धुरी घूमती रही, दीप से दीप जलते गये।”

बौद्ध धर्म के आश्चर्यजनक उत्थान के अनेक कारणों का विवरण निम्नलिखित है-

  1. बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की सरलता-

बौद्ध धर्म के उत्थान तथा प्रसार का प्रमुखतम कारण इसकी सरल जीवन प्रणाली, नियमों की बोधगम्यता तथा सरल व्यावहारिक सिद्धान्त थे। इसने जिन सिद्धान्तों का पालन करने के नियमों की व्यवस्था की, वे पूर्वगामी वैदिक धर्म के जटिल, दुर्बोध तथा कठिन नियमों की अपेक्षा अधिक लचीले, अनुकरण योग्य तथा व्यावहारिक थे। इस धर्म ने जिस नैतिकता का प्रतिपादन किया वह समस्त मानव जाति के लिये शान्ति तथा कल्याणदायिनी थी। बौद्ध धर्म ने जिन समस्याओं का हल प्रस्तुत किया ये सारी मानवजाति की समस्याएँ थीं। बौद्ध धर्म के जीवन के चरमोद्देश्य यथा-निर्वाण का द्वार-स्त्री, पुरुष, युवा, वृद्ध, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, आर्य, अनार्य, देशी-विदेशी आदि सभी के लिये खुला हुआ था। ‘जाति मत पूछ, आचरण पूछ’ का धम्म घोष समस्त प्रताड़ित मानवता के लिये था। बौद्ध धर्म विश्लेषणात्मक न होकर जीवन- यापन की सरल प्रणाली पर आधारित था। जिस धर्म का आदि, मध्य तथा वर्तमान (अन्त तो है ही नहीं) मानव कल्याणकारी भावना से ओत-प्रोत हो, वह जनता में कैसे प्रसारित न होता। श्री जे० एम० पत्रिकर ने ठीक ही लिखा है-

“To the common man this (Buddhism) was indeed a new gospel. There were no secret mantras, no expensive yagyas or sacrifices and deed, no difficult doctrincs as in the Upnishads.”

डा० यदुनाथ सरकार ने बौद्ध धर्म के सरल स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है-

“It gave us a popular religion; without any complicated or unintelligible ritual such as could be performed only by a priestly class.”

  1. हिन्दू धर्म की विरोधी प्रतिक्रिया-

बौद्ध धर्म के प्रचार में, परोक्ष रूप से, हिन्दू धर्म के आडम्बर का विशेष योगदान था। यह बात कहने में हमारा अभिप्राय यह है कि क्योंकि बौद्ध धर्म ने आडम्बर, विशद याज्ञिक आयोजनों, बलियों, कर्मकाण्डी जटिलताओं आदि का विरोध किया, अतः इसे शीघ्र ही सर्वमान्यता प्राप्त हो गई। बुद्ध धर्म की मान्यता थी कि धर्म किसी भी जाति, सम्प्रदाय तथा वर्ग की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होता, मोक्ष प्राप्ति के लिये किसी भौतिक माध्यम की आवश्यकता नहीं होती तथा उपास्य एवं उपासक के बीच कोई पुरोहित नहीं होता। इस समय ऐसे ही सिद्धान्तों की आवश्यकता थी। लोग हिन्दू धर्म की रूढ़िवादिता से उकता कर किसी नवीन कल्याण मार्ग की प्रतीक्षा में थे। बौद्ध धर्म ने इस आकाँक्षा की पूर्ति करके अपने लिये उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर लिया।

  1. जात-पात का विरोध तथा समानता की भावना-

महात्मा बुद्ध ने वैदिक सभ्यता की कठोर वर्ण-व्यवस्था द्वारा सन्त्रस्त समाज के लिये समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। वैदिक वर्ण-व्यवस्था के अनेक दोषों-यथा ऊँच, नीच, धनी, निर्धन, जात-पात, भेद-भाव आदि की वजह से समाज का रूप विकृत होता जा रहा था। शूद्रों को उच्चजातीय तथा उच्चवर्ग के अकथनीय अत्याचार सहने पड़ रहे थे। वे मूक विद्रोही की भाँति चहुँ ओर आशा भरी दृष्टि डालते थे परन्तु कोई परित्राण दिलाने वाला नहीं था । स्त्री की दशा भी पतनोन्मुख हो रही थी। ठीक ऐसे ही समय तथागत ने समस्त भेदभावों के स्थान पर समान, सम्यक व्यवहार की स्थापना की। उन्होंने कहा कि जन्म के आधार पर समस्त मानव जाति एक है। किसी भी जाति का सदस्य शुद्ध आचरण तथा सत्कर्मों द्वारा निर्वाण प्राप्त कर सकता है। तथागत के धम्मघोष ने समाज के सभी वर्गों को आकर्षित किया तथा केवल निम्नवर्ण ही नहीं अपितु कितने ही उच्चवर्ण वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों ने खुले हृदय से बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।

  1. प्रचार शैली की रोचकता-

महात्मा बुद्ध की प्रचार शैली साधारण तथा विद्वत् वर्ग के लिये रोचक एवं विचारोत्तेजक थी। उनकी सरल, सुविधाजनक तथा लोकरुचि शैली के कारण भारी संख्या में लोग उनके उपदेशों को सुनते थे। हृदयतन्त्र को झंकृत कर, वे बड़ी आसानी से जनसमुदाय के मन में उतर जाते तथा वहाँ पर दिव्य प्रकाश आलोकित कर देते थे। वे अपने उपदेशों में लोकोक्तियों, लोककथाओं तथा मुहावरों का प्रयोग करते थे। हास्य तथा संयमित व्यंग द्वारा वे विरोधियों को निरुत्तर बना देते थे। बौद्ध पाली ग्रन्थों के अनेक प्रसंगों से यह निष्कर्ष निकलता है कि महात्मा बुद्ध को मनोविज्ञान का पूरा ज्ञान था तथा सन्यासी होने पर भी उन्हें गृहस्थ जीवन का गहरा अनुभव था। अपनी इस गुण विशेषता का सफल प्रयोग करके जब वे उपदेश देते तो उन्मत्त व्यक्ति भी शान्त हो जाते थे। वे अपने सिद्धान्तों का प्रचार प्रश्नोत्तर द्वारा भी करते थे-इस प्रकार कठिन से कठिन प्रश्न का उत्तर देकर वे जिज्ञासु हृदय को ज्ञान देते थे। पहले वह विपक्षी से सहमत होकर, धीरे-धीरे उसी से प्रश्न करते और अन्त में विपक्षी अपनी वैचारिक तथा मान्यता सम्बन्धी पराजय स्वीकार करके धन्य हो जाता था। उनकी प्रचार शैली की सर्वाधिक प्रभावशाली विशेषता उनकी मृदुवाणी तथा शान्त स्वभाव था। वे कभी क्रोध नहीं करते थे तथा प्रबल विरोधी के लिये भी अपशष्ट का प्रयोग नहीं करते थे। तथागत के निर्वाणोपरान्त बौद्ध भिक्षुओं ने इस शैली का अनुसरण करते हुए, बौद्ध धर्म का प्रसार तथा विकास किया।

  1. लोकभाषा का प्रयोग-

बौद्ध धर्म ने लोकभाषा का प्रयोग करके जनसाधारण का हृदय जीत लिया। विद्वत वर्ग में प्रचलित संस्कृत भाषा का परित्याग करके लोकभाषा पाली में धर्म चर्चा करना-एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था। इस कारण बौद्ध धर्म सरल तथा बोधगम्य हो गया। लोक- भाषा का प्रयोग और फिर महात्मा बुद्ध के मर्मस्पर्शी उपदेश-सोने में सुहागा बन गये। इस विशिष्टता के कारण बौद्ध धर्म अति लोकप्रिय हो गया।

  1. प्रचारकों का उत्साह-

बौद्ध धर्म प्रचारकों में अदम्य उत्साह था। महात्मा बुद्ध ने कहा था कि “अशन, पान, खादन, शयन, निद्रा तथा थकावट के समय को छोड़कर तथागत की धर्म देशना सदा अखण्ड रहेगी।’ वे धम्म-प्रचारकों का आदर्श थे। परिणामस्वरूप वे समस्त कठिनाइयों तथा बाधाओं को लाँघ कर दूर-दूर तक प्रचार कार्य करते थे। ऐसे उत्साह योग्य प्रचारकों के रहते हुए बौद्ध धर्म ने शीघ्र ही भारत के कोने-कोने, यहाँ तक कि विदेशों में भी, अपने चरण जमा लिये।

  1. संगठनात्मक विशेषता-

संगठन में शक्ति होती है। महात्मा बुद्ध इस बात से भली भाँति परिचित थे कि सुदृढ़ संगठन के अभाव में धर्म चिरस्थायी नहीं हो सकता। अतः उन्होंने धम्म संघों की स्थापना की। यहाँ पर बौद्ध भिक्षुओं को बौद्ध धर्म के दार्शनिक तथा व्यावहारिक सिद्धान्तों के अनुसार जीवन-यापन करना पड़ता था। उनके आचार-विचार का नियमन संघ संहिता द्वारा होता था। संघों का स्वरूप प्रायः प्रजातान्त्रिक होता था। सारा संघ एक परिवार था। यहाँ पर समस्त भिक्षुओं के व्यक्तित्वों का सामूहिक रूप बन जाता था। न तो परिवार था न सम्पत्ति। त्याग तथा नैतिकता के इस वातावरण में बौद्ध धर्म ने भिक्षुओं में अनुपमेय भक्ति निष्ठा उत्पन्न कर दी। किसी ने ठीक ही कहा है कि “बौद्ध संघों ने संगठित रूप से जिस त्याग, सदाचार, अध्ययनशीलता तथा नैतिकता का दृष्टान्त उपस्थित किया, उससे प्रभावित होकर जनता उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगी।” बौद्ध धर्म के प्रचार में उसकी संगठनात्मक विशेषता का विशेष योगदान है।

  1. राज्याश्रय की प्राप्ति-

बौद्ध धर्म को प्रचुर मात्रा में ही नहीं अपितु अत्यधिक मात्रा में राजाओं का संरक्षण प्राप्त हुआ था। राज्याश्रय की प्राप्ति के कई कारण थे जिनमें प्रमुख कारण तो स्वयं महात्मा बुद्ध का ही राजवंश से सम्बन्धित होना था। इसके अतिरिक्त अनेक समकालीन राजा उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनका बड़ा सम्मान करते थे। राज्याश्रय तथा राजाओं का संरक्षण प्राप्त करने का एक अन्य प्रमुख कारण यह भी था कि तत्कालीन समाज का अधिकांश बौद्ध धर्म में मान्यता रखता था, अतः राजा इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे। मगध, कोशल, अवन्ति तथा कौशाम्बी के राजाओं ने तो बौद्ध धर्म को स्वीकार भी कर लिया था। कालान्तर में मौर्य सम्राट अशोक महान न इस धर्म को अतिशय प्रोत्साहन दिया। उसने साम्राज्य के प्रत्येक प्रान्त में ‘धम्म महामात्याँ’ की नियुक्ति की तथा धम्म प्रचार एवं शिक्षा की व्यवस्था की। अशोक की प्रचार व्यग्रता के परिणामस्वरूप धर्म प्रचारकों ने विदेशों में भी बौद्ध धर्म का प्रसार किया। अशोक के पश्चात कनिष्क ने उत्साहपूर्वक बौद्ध धर्म का प्रचार किया। हर्षवर्द्धन के समय बौद्ध धर्म ने पुन: अपनी तीव्रता प्राप्त कर ली तथा अब कन्नौज बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। हर्ष ने बौद्ध भिक्षओं के सम्मेलन का भी आयोजन किया तथा बौद्ध धर्मको प्रचुर आर्थिक सहायता दी।

अनेक राज्यों, राजाओं तथा सम्राटों द्वारा प्रदत्त राज्याश्रय के कारण बौद्ध धर्म सभी दिशाओं में व्याप्त हो गया। क्योंकि राजा प्रजा तथा प्रजा राजा की अनुगामिनी होती है, अतः इस समन्वयी प्रवृत्ति द्वारा बौद्ध धर्म ने अद्भुत प्रगति की।

  1. महात्मा बुद्ध का प्रभावशाली व्यक्तित्व-

तथागत के व्यक्तित्व में सर्वांगीण श्रेष्ठता थी। उनमें चिन्तक, विचारक, उपदेशक, जनसेवक, आदर्शनीति प्रचारक, चरित्र, व्यवहार, सौम्यता, शान्त स्वभाव आदि समस्त गुणों का समावेश था। ऐसे व्यक्तित्व के सपक्ष सभी गद्गद् हो जाते, हृदय में ऐसी भावना उत्पन्न होती-मानों किसी देवता के दर्शन हो रहे हों। उनके दर्शन के लिये जनता आँधी की भाँति उमड़ आती थी। लोग कहते “आज वह मुण्डित शीश, काषाय वस्त्रधारी इसी ग्राम में आ रहा है। कोई पूछता “कौन है ?” तो उत्तर मिलता “वही जिसने पीड़ित मानवता का करुण रोदन सुनकर राजसुखों का परित्याग कर दिया, जिसे नवयौवना पत्नी का प्यार, नवजात शिशु का स्नेह भी नहीं बाँध सका। जिसकी वाणी में जादू है, जिसके मुख पर तेज है।” इस विषय में महात्मा के प्रभावशाली व्यक्तित्व के विषय में हम उस लेखक से सहमत हैं, जिसने ठीक ही कहा है कि- “वे एक राजकुमार थे किन्तु ‘धम्म विजय’ तथा मानव कल्याण के लिये उन्होंने भौतिक सर्वस्वों को त्यागकर, मानव व्रत धारण किया। इससे उनका व्यक्तित्व अति प्रभावशाली हो गया। उनके समकालीन शासक, राजप्रासादों को छोड़कर अपने राज्यों की सीमाओं पर उनका स्वागत करते थे। महात्मा बुद्ध में विलक्षण तथा अतिमानवीय गुण थे। वे कभी भी क्रोध नहीं करते थे तथा अपशब्द सुनकर भी उनका मानसिक सन्तुलन स्थिर रहता था। उनके हृदय में अपार दया, स्नेह तथा करुणा का वास था।” महात्मा बुद्ध के व्यक्तित्व के प्रभावशाली होने के कारण बौद्ध धर्म जनता का धर्म बन गया तथा इसका प्रसार अबाधंगति से हुआ।

  1. प्रबल विरोध का अभाव-

बौद्ध धर्म के शीघ्र प्रसार का कारण प्रबल विरोध का अभाव भी था। प्रबल विरोध के अभाव के भी कई कारण थे। लोग हिन्दू धर्म से तो उकता ही चुके थे,साथ ही हिन्दू धर्म भी अब कुछ-कुछ शक्तिहीन सा हो रहा था। बौद्ध धर्म ने इस परिस्थिति का लाभ उठाया तथा हिन्दू धर्म के अनेक श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण भी किया। डा० वी० डी० महाजन के अनुसार आरम्भ में बौद्ध धर्म का कोई घोर विपक्षी नहीं था। इस्लाम तथा ईसाई धर्म अभी तक भविष्य के गर्भ में थे। विपक्षियों के अभाव के कारण बुद्ध धर्म के प्रचार में न तो कोई अड़चन ही उपस्थित हुई और न ही इसका विरोध किया गया।

  1. ब्राह्मणों तथा विद्वानों का समुचित आदर-

महात्मा बुद्ध ने ब्राह्मणों को समुचित आदर प्रदान किया। ललित विस्तार के उल्लेखानुसार, “बुद्ध केवल क्षत्रिय या ब्राह्मण के घर ही जन्म ले सकता है, चाण्डाल, शूद्र, या अन्य निम्नकोटि की जाति में वह जन्म नहीं ले सकता।” अनेक ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि ब्राह्मणों को तथागत से मिलने की छूट थी। बौद्ध धर्म में ब्राह्मण तथा सन्यासियों के लिये संघ प्रवेश में कोई प्रतिबन्ध नहीं था। इसका कारण यह था कि इस वर्ग के लोग आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ तथा ऊँचे माने जाते थे। अशोक ने भी इस प्रकार के आदेश दिये थे कि ब्राह्मणों का समुचित आदर किया जाये। इन कारणों से ब्राह्मण तथा विद्वानों ने बौद्ध धर्म का सण्डन मण्डन करने की प्रवृत्ति को त्याग कर उसके प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई।

  1. अनुकूलन की शक्ति-

किसी भी परिस्थिति, वातावरण तथा बिरोध के साथ अनुकूलन शक्ति से सम्पत्र होने के कारण बौद्ध धर्म सदैव फलता-फूलता रहा। अपनी अनुकूलन शक्ति के कारण बौद्ध धर्म ने विदेशों में तो तहलका मचा दिया तथा चीन, जापान, बर्मा, कोरिया, तिब्बत आदि में अपनी जड़ें मजबूत की।

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Pankaja Singh

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