इतिहास

मनसबदारी प्रथा | मनसबदारी व्यवस्था के गुण | मनसबदारी व्यवस्था के दोष

मनसबदारी प्रथा | मनसबदारी व्यवस्था के गुण | मनसबदारी व्यवस्था के दोष

मनसबदारी प्रथा

मुगलकालीन सैनिक तथा सिविल प्रशासन का मूल आधार मनसबदारी प्रथा ही थी। मनसब की संख्या से व्यक्ति के स्थान का बोध होता था। यही मुगल अमीरवर्ग (अभिजात्य वर्ग) भी था। यह मनसबदारी प्रथा मुगल काल में लोक सेवा अभिजात्य वर्ग एवं सेना का मिश्रित नाम था। मुगल साम्राज्य की दक्षता, सफलता तथा असफलता मनसबदारी की कार्यक्षमता पर निर्भर करती थी। मनसबदार शब्द का अर्थ पद, प्रतिष्ठा अथवा श्रेणीबद्ध पर था। इरविन के अनुसार मनसब का उद्देश्य पद की श्रेष्ठता निर्धारण तथा वेतन दर का वर्गीकरण था। इसका अभिप्राय किसी विशेष पद या कार्य के सम्पादन से नहीं था। इसका अर्थ मात्र इतना था कि मनसब प्राप्तकर्ता सरकारी सेवा में है एवं वह आवश्यकतानुसार किसी भी प्रकार की सेवा करने के लिए बाध्य है।

मनसबदारी प्रथा का संगठन दाशमिक प्रणाली के आधार पर घुड़सवार सेना का विभाजन था। इसके अनुसार सम्राट किसी भी व्यक्ति को एक संख्या का दस, वीस सौ, पाँच सौ, एक हजार या उससे अधिक मनसबदार नियुक्त करता था। इस आधार पर मनसबदार को राज्य से नकद या जागीर के रूप में वेतन प्राप्त होता था जिसके बदले में उसे नियमानुसार घोड़े, हाथी, बैलगाड़ी व भारवाहक पशु इत्यादि रखने पड़ते थे। इनके खर्च से जो धन बचता था वही उसका वेतन होता था। मनसबदार को राज्य द्वारा निर्धारित सेना तथा राज-सम्बन्धी नियमों का पालन करना पड़ता था। बाह्य रूप में सरल प्रतीत होने वाली मनसबदारी व्यवस्था से सम्बन्धित नियमों में इतने परिवर्तन हुए कि व्यावहारिक रूप में वह अन्यान्य गुत्थियों से भरी हुई है।

यद्यपि अकबर के पूर्व दाशमिक प्रणाली के आधार पर घुड़सवार सैनिक रखने तथा घोड़े के दाग लगाने का प्रचलन था किन्तु मुगलकालीन मनसबदारी प्रथा में दाग एवं दार्शनिक प्रणाली तो है ही उसके साथ ही साथ उसके संगठन एंव नियमों में इतने परिवर्तन हुए कि इसके पूर्वकालीन स्वरूप से इसकी तुलना नहीं हो सकती। अकबर ने सैनिकों की संख्या निश्चित करने के लिए दार्शनिक प्रणाली ही अपनाई। समकालीन लेखक अबुल फजल के अनुसार अकबर ने प्रारम्भ में घुड़सवारों को 66 श्रेणियाँ निर्धारित की थीं। किन्तु आइने अबकरी में मनसबदारों की जो श्रेणियाँ और नामों की तालिका है उसमें 3.3 श्रेणियों का ही उल्लेख है। इस भिन्नता के सम्बन्ध में डा० कुरेशी का मत है कि मनसबदारों की वास्तविक श्रेणियाँ 3.3 ही थी, शेष 35 श्रेणियों सैशान्तिक ही थीं। सिद्धान्ततः मनसबदार सीधे सम्राट द्वारा नियुक्त होते थे तथा प्रायः उन्हें समार के समक्ष उपस्थित होना पड़ता था। मनसबदार की पदोन्नति भी सम्राट पर ही निर्भर करती थी। इसकी संस्तुति वे शहजादे तथा सेनानायक करते थे जिनके अधीन मनसबदार कार्यरत रहते थे। शुभ अवसरों पर मनसबदारों के मनसबों में वृद्धि की जाती थी। कभी-कभी किसी नये पद पर नियुक्ति के समय भी उनका मनसब बढ़ा दिया जाता था।

अकबर के शासन काल में मनसबदारी प्रथा के प्रारम्भ होने एवं घुड़सवार मनसब के प्रचलन तक मनसबदारों को अपने मनसब के अनुरूप अश्व रोही सैनिक रखने पड़ते थे। कुछ दिनों के पश्चात् देखा गया कि मनसबदार अपने मनसब के अनुरूप सैनिक नहीं रखते थे जबकि वे वेतन तथा जागीर का उपभोग करते थे। इस सन्दर्भ में सन् 1594-95 ई० में ‘सवार मनसब’ का प्रचलन हुआ जिसके अनुसार यह आवश्यक कर दिया गया कि मनसबदार सवार के अनुरूप अश्वारोही रखे। अकबर के शासनकाल के अन्तिम समय में ‘जात’ के साथ ‘सवार’ मनसब का उल्लेख प्राप्त होता है। सन 1594 ई० में शहजादे सलीम को बारह हजार जात के अतिरिक्त दस हजार सवार का मनसब प्रदान किया गया था। इस घटना में सवार मनसब का सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है। स्पष्टतः अकबर के ही काल में जात एवं सवार मनसब स्थापित हो चुका था। परन्तु जहाँगीर के काल में मुगल सम्राटों द्वारा द्वैध मनसब देने की प्रथा पूर्णतः स्थापित हो चुकी थी।

‘जात’ तथा ‘सवार’ शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में इतिहासकारों में गम्भीर विवाद है। डा० आर० पी० त्रिपाठी के अनुसार ‘जात’ मनसब के आधार पर मनसबदार को सैनिक रखने पड़ते थे और ‘सवार’ मनसब के आधार पर उसे भत्ता प्राप्त होता था। डा० त्रिपाठी के मतानुसार, यह भत्ता दो रुपया प्रति सवार था। लैण्ड महोदय के अनुसार अकबर के काल में जब ‘सवार’ मनसब प्रारम्भ हुआ तो उस समय ‘जात’ को मानसूचक तथा वेतन का मापदण्ड स्वीकार किया गया एवं सवार मनसब वास्तविक संख्या में रखे जाने वाले घुड़सवार सैनिकों का परिचायक था। बाद में पूरे सवार संख्या के घुडसवार नहीं रखे जाते थे अत: इसमें संशोधन कर नियमानुकूल करने के लिए शाहजहाँ ने नवीन नियम बनाये तथा सवार संख्या में कम घुड़सवार सैनिक रखने का नियम बना।

उपरोक्त विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि ‘जात’ मनसब लोकप्रशासन में मनसबदार के स्थान एवं पद का सूचक था। इसके आधार पर प्राप्त वेतन में वह अपनी पद एवं प्रतिष्ठा के अनुरूप अपना तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करता था। सवार मनसब के आधार पर वह नियमानुकूल अश्वारोही रखता था। किन्तु मनसबदार सदैव निश्चित अश्वारोही नहीं रखते थे। ऐसी स्थिति में सम्राट को नये-नये नियम लागू करने पड़ते थे।

अकबर ने निश्चित संख्या में सैनिक रखने हेतु मनसबदारों पर नियन्त्रण रखा किन्तु जहाँगीर के काल में यह नियन्त्रण ढीला हो गया। अन्त में मनसबदारों के अश्वारोहियों की संख्या सवार मनसब के चौथाई से भी कम हो गयी थी। इसमें सेना में दुर्बलता आना स्वाभाविक था। शाहजहाँ के काल में इसमें कोई सुधार नहीं हो पाया किन्तु उसने अपने शासन के 22 वें वर्ष में कुछ नियम प्रतिपादित किये, जिसके अनुसार यदि मनसबदर उस क्षेत्र में नियुक्त हो जहाँ उसकी जागीर हो तो उसे अपने सवार मनसब का एक तिहाई यदि वह अल्दज नियुक्त हो तो एक चौथाई तथा यदि बल्ख एवं बदख्शा में नियुक्त हो तो 1/5 अश्वारोही रखना अनिवार्य है। जिन लोगों को वेतन नकद प्राप्त होता था उन्हें भी इसी आधार पर घोड़े रखने पड़ते थे। यह नियम औरंगजेब के काल तक चलता रहा। इन उल्लेखों से यह प्रमाणित हो जाता है कि ‘जात’ पद का बोध था एवं ‘सवार’ के आधार पर मनसबदार को सैनिक रखने पड़ते थे।

जहाँगीर के शासनकाल में मनसब के साथ दो अस्पा (दो घोड़े) और सेह अस्पा (तीन घोड़े) जोड़ा जाने लगा। उसके शासन के दसवें वर्ष में महावत खां को उसके मनसव में 17 सौ घुड़सवारों को दो अस्पा सेह अस्पा बना दिया गया। शाहजहाँ के शासनकाल में मनसब के साथ यह प्रचलन और बढ़ गया और औरंगजेब के काल में यह संख्या और बढ़ी। वस्तुतः दो अस्पा सेह अस्पा सवार मनसब का भाग था जिसके अनुसार बिना मनसब बढ़ाये हुए सम्राट किसी मनसबदार को अधिक सवार रखने की आज्ञा दे देते थे एवं मनसबदार को संख्या के आधार पर अधिक वेतन मिलता था।

सन् 1710 ई० में मनसब के साथ मंश्रूत मनसब भी जोड़ा जाने लगा। मंश्रूत का अर्थ होता है कि किसी शर्त के साथ निर्धारित हो। उदाहरणार्थ यदि कोई मनसबदार किसी ऐसे भू-भाग में फौजदार या अन्य पद पर ऐसे क्षेत्र में भेजा जाता था जहाँ उसके कार्यपालन के लिए उसे अधिक सवारों की आवश्यकता पड़ती थी उस समय उसका मनसब अल्पकाल के लिए उस पद के आवश्यकतानुसार बढ़ा दिया जाता था और उसी के अनुसार उसे जागीर अथवा वेतन प्राप्त होता था परन्तु स्थानान्तरण के पश्चात् साधारणतः यह अतिरिक्त मनसव निरस्त कर दिया जाता था।

वेतन-

मनसबदारों के वेतन नकद व उसके अनुरूप जागीर में दिया जाता था। मनसबदारों को अपने वेतन से ही राज्य की सेवा के लिए घोड़े, हाथी, भारवाहक पशु, आदि रखनी पड़ती थी। इनका खर्च काटकर जो वेतन बचता था, वह उनके तथा उनके परिवार खर्च के लिए होता था। अबुल फजल ने आईन-ए-अकबरी में मनसबदारों की जो सूची दी है उसमें विभिन्न श्रेणियों। उसमें विभिन्न श्रेणियों के मनसबदारों को किस प्रकार के और कितने घोड़े, हाथी, भारवाहक पशु, गाड़ियां आदि रखनी पड़ती थीं इसका उल्लेख है। आईन-ए-अकबरी के अनुसार एक अस्पा (एक घोड़े वाला) अश्वरोही का वेतन इस प्रकार था-अगर उसका घोड़ा राकी होता था तो उसे तीस रुपया प्रति मास वेतन, यदि मुजनास हुआ तो बारह रुपया दिया जाता था। अबुल अजीज के अनुसार अकबर के काल में साधारण अश्वारोही का औसत वार्षिक वेतन 9,600 दाम (रु० 240) था। जहाँगीर के काल में भी यह प्रचलित रहा। शाहजहाँ के दो फरमानों के आधार पर मोरलैण्ड ने प्रत्येक अश्वारोही का वार्षिक वेतन 1630 में 8,800 दाम (220 रु०) तथा 1638-39 में 8,000 दाम निश्चित किया है।

इरविन का कथन है कि औरंगजेब के काल में प्रत्येक अश्वारोही को 8000 दाम प्रतिवर्ष वेतन प्राप्त होता था। उससे प्रकट होता है कि अकबर के काल से शाहजहाँ के काल में अश्वारोही का वेतन 9,600 दाम से घटाकर 8,000 दाम कर दिया गया था।

इरविन तथा बी. ए. स्मिथ का मत है कि मनसबदारों को पूरे 12 महीने के स्थान पर चार से बारह महीने का वेतन दिया जाता था।

अकबर नकद वेतन देने पर जोर देता था। जहाँगीर के काल में जागीर प्रथा ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया ।इस तरह वेतन का संबंध भूमि कर से था। अकबर के काल में भूमि की पैमाइश के समय कुछ दोष रह गए थे। इसके फलस्वरूप क्षेत्र की निर्धारित मालगुजारी (जमा) तथा वस्तुतः वसूल होने वाली मालगुजारी (हासिल) में अन्तर पड़ गया। जहाँगीर के काल में वेतन के एवज में दी गई जागीर निर्धारित मालगुजारी (जमा) के आधार पर होती थी। मनसबदार जब जागीर में पहुंचता था तो उसे ज्ञात होता था कि उसके वेतन के बराबर की जागीर (जमा) मिली है पर वास्तव में उसे जो आय प्राप्त (हासिल) होती थी वह बहुत कम थी। इस तरह जमा तथा हासिल के अंतर से बड़ी असुविधा हो जाती थी। शाहजहाँ के शासन के अंतिम वर्षों में दक्कन का ‘हासिल’ (वास्तविक आय) जमा (निर्धारित लगान) का एक चौथाई अर्थात् 12 महीने के स्थान पर 3 महीने का ही था। इस कठिनाई को दूर करने के लिए शाहजहाँ के काल में यह आज्ञा दी गई कि यदि प्राप्तकर्ता मनसबदार की जागीर ‘हासिल’जमा का आधार हो तो उसे शशमहा तथा एक-चौथाई हो तो सेहमाहा (तीन माही) कहा जाए। इस तरह तिमाही, उमाहौ, नौमाही नामों से यह प्रचलित हुआ। जब किसी मनसबदार को शशमाही (छमाही) मनसबदार नियुक्त किया जाता तो उसे उसी अनुपात में वेतन प्राप्त होता था।

शाहजहाँ ने अपने शासन के 27वें वर्ष यह आज्ञा दी कि नकद वेतन (तनख्वाह-ए-नकदी) आठमाही से अधिक तथा चार माही से कम न निश्चित किया जाय । कुछ उच्च उमराओं को इस नियम से छूट थी। शाहजादों को दसमाही मापक्रम से वेतन प्राप्त होता था। औरंगजेब ने अपने शासन के 21 वें वर्ष आज्ञा दी कि नकदी आठमाही या सातमाही के आधार पर न देकर छमाही के तालिका से दिया जाए।

मनसबदारों के वेतन में कटौती के संबंध में अबुल फजल लिखता है हर वर्ष घोड़े के साज-समान के लिए एक महीने का वेतन काट लिया जाता था जिसकी कीमत उसके वास्तविक मूल्य से पचास प्रतिशत अधिक बढ़ा दी जाती थी। क्योंकि घोड़ों के खरीदने में बड़ी सावधानी बरती जाती है, इसलिये इस वृद्धि से सैनिक को कोई हानि नहीं होती। शाहजहाँ तथा औरंगजेब के काल में खुराक-ए-दबाव (सद ए-खुराको) के नाम से एक कटौती होती थी।

मनसबदारों के अधीन जानवरों (हाथी, घोड़े आदि) के चारे का खर्च मनसबदारों के वेतन से काट लिया जाता था। इस संबंध में सबसे अधिक कटौती दक्खिनी (बीजापुरी, मराठी, हैदराबादी) अधिकारियों से ली जाती थी जो वेतन का चौथाई थी। इसी से इसे ‘वजा-ए-चौथाई’ अर्थात् दाम में एक-चौथाई कटौती कहा जाता था। इसके अतिरिक्त जुर्माना तथा मनसबदारों को दिया गया अभिम (मुतालिबा) भो वेतन से काट लिया जाता था। अलीमर्दन खाँ की मृत्यु के समय उसके ऊपर 50 लाख का मुतालिबा था।

मनसबदारों की संख्या

मनसबदारों की संख्या सम्राट की इच्छा तथा शासन की आवश्यकता पर निर्भर करती थी। साधारणतया उच्च मनसब सम्राट के पुत्रों तथा निकट के सम्बन्धियों को ही प्रदान किया जाता था। सम्पूर्ण मुगलकाल में मुगल शाहजादों में सर्वाधिक मनसब दाराशिकोह को ही प्राप्त था। उसे साठ हजार जात एवं 40 हजार सवार का मनसब प्राप्त था। मनसबदारी व्यवस्था मुगल प्रशासन तथा सैन्य संगठन का मूल आधार थी। सम्राट के अतिरिक्त शासन के समस्त उच्च तथा अर्द्धकर्मचारियों को मनसब प्राप्त था। राजपूत राजवंशों को छोड़कर यह वंशानुगत नहीं था। इस प्रकार जहाँ एक ओर मनसबदारी प्रथा की अनेक विशेषताएँ थी वहीं इसमें कतिपय दुर्बलताएं भी लक्षित होती हैं।

मनसबदारी प्रथा के दोष व गुण-

मनसबदारी प्रथा मुगल प्रशासन तथा संगठन का प्रमुख आधार थी। सम्राट को छोड़कर शासन के सभी उच्च तथा अर्ध-उच्च कर्मचारियों को मनसब प्राप्त था। सम्राट स्वयं मनसब प्रदान करता था। इसलिए उसको मनसब प्राप्त करने का प्रश्न न था। पूरे मुगलकाल में किसी महिला को मनसब प्राप्त न था।

मनसबदार की मृत्यु के पश्चात् संपत्ति जप्ती (एसचीट) प्रथा के आधार पर राज्य उनकी संपत्ति अधिकृत कर लेता था। मनसबदार मुगल साम्राज्य का अभिजात वर्ग धा। मनसबदार कला तथा साहित्य के पोषक भी थे। सम्राट की तरह इनके पास भी साहित्यकार तथा कलाकार रहते थे। दरबार के शान-शौकत तथा रहन-सहन की तरह ही इनका जीवन था। मनसबदार सम्राट के प्रति स्वामिभक्त रहते थे। इसी पर उनका अस्तित्व तथा पदोन्नति निर्भर थी। सम्राट उनके महत्व को समझते थे। शाहजहाँ ने दाराशिकोह को उमराओं के साथ सद्व्यवहार का परामर्श दिया था। औरंगजेब कहता था कि ये स्वामिभक्त उमरा खरे सोने के समान है। सैनिकों को एकत्र करने तथा उनके रखरखाव का उत्तरदायित्व मनसबदारों को दे देने से सरकार बहुत सी प्रशासनिक परेशानियों से बच जाती थी। सैनिकों को भर्ती कर मनसबदार उनका वेतन देते थे। उनकी पदोन्नति भी वे ही करते थे। इससे प्रत्येक मनसबदार के सैनिकों की स्वामिभक्ति उनकी तरफ रहती थी। भिन्न-भिन्न मनसबदारों की सेनाओं के अनुशासन तथा रखरखाव में भी अंतर था। सैनिकों में राष्ट्रीय भावना का अभाव था। सेना का केन्द्रीयकरण न होने से भी इसमें कमजोरी आ जाती थीं।

मनसबदारों की सेनाओं में वैमनस्य रहता था। इससे राष्ट्रीय सेना संभव न हो सकी। सैनिकों का तबादला नहीं होता था। साधारणतया एक सैनिक एक ही मनसबदार के पास जीवनपर्यन्त रह जाता था। सैनिकों का वेतन मनसबदारों द्वारा वितरित होने के कारण अक्सर भ्रष्टाचार की शिकायतें आती रहतीं जिसके लिए शासन को बार-बार नियमों में परिवर्तन करना पड़ता था।

मनसबदार पूर्णतया सैनिक अधिकारी नहीं थे। सैनिक अभियानों से उन्हें अचानक सिविल प्रशासन में भेज दिया जाता था। इसी तरह मनसबदार होने से ऐसे व्यक्तियों को सैनिक अभियानों में भेज दिया जाता था जिसके वे योग्य नहीं थे। बीरबल तथा टोडरमल को भी सैनिक अभियानों में जाना पड़ता था। इससे सेना की दक्षता तथा कार्यक्षमता में कमी आ जाती थी।

मनसबदारी प्रथा में दोष होने पर भी मुगल शासन की आवश्यकताओं के अनुरूप थी। समकालीन इतिहासकार एवं विदेशी यात्री इसकी उपयोगिता का उल्लेख करते हैं। इस प्रणाली ने सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी के मुगल साम्राज्य को स्थिरता एवं गौरव प्रदान किया।

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Pankaja Singh

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