इतिहास

उन्नासवीं सदी के सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन | ब्रह्म समाज | प्रार्थना समाज | आर्य समाज | राधा स्वामी सत्संग | थियोसोफिकल सोसाइटी | रामकृष्ण मिशन | उन्नीसवीं शताब्दी के प्रमुख धार्मिक तथा सामाजिक सुधारवादी आन्दोलन

उन्नासवीं सदी के सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन | ब्रह्म समाज | प्रार्थना समाज | आर्य समाज | राधा स्वामी सत्संग | थियोसोफिकल सोसाइटी | रामकृष्ण मिशन | उन्नीसवीं शताब्दी के प्रमुख धार्मिक तथा सामाजिक सुधारवादी आन्दोलन

उन्नासवीं सदी के सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन

अंग्रेजों की कूटनीति और भारतीयों की दुर्बलता से भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से परतन्त्र हो गया किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से भारत ने पराजय स्वीकार नहीं की। पाश्चात्य शिक्षा के प्रचलन और पश्चिमी विचारों के संपर्क से शिक्षित भारतीयों को अपने देश के अतीत का ध्यान करने की प्रेरणा मिली। साथ ही उन्होंने यह भी अनुभव किया कि पश्चिम की सभ्यता नई शक्ति से सम्पन्न थी और भारत अपनी उन्नति के लिए पश्चिम से बहुत कुछ सीख सकता है। इस दृष्टिकोण ने भारतीय जीवन को पूरी तरह से प्रभावित किया । धार्मिक क्षेत्र में प्राचीन धर्म पर पुनः विचार करने और नये युग के अनुसार उसे परिवर्तित करने की प्रवृति विशेष रूप से दिखाई पड़ी और धर्म के प्रचलित स्वरूप में सुधार करने के लिए अनेक आन्दोलन चल पड़े।

राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज

राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय का जन्म सन् 1774 में बङ्गाल के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनको व्यापक रूप से विदेश भ्रमण और सद्ग्रन्थों का अध्ययन करने का खूब अवसर प्राप्त हुआ था जिससे उनका दृष्टिकोण बहुत उदार और विस्तृत हो गया था। सभी धर्मों को वे समान दृष्टि से देखते थे और उनके विशाल दृष्टिकोण ने ही एक प्रकार से नए भारत की नींव डाली। कुमारी कोलेट के अनुसार-

“Raja Ram Mohan Roy stands in history, as the living bridge over which India marches from her unmeasured past to her incalculable future.”–Miss Colet

राजा राममोहन राय ने देश में राजनैतिक चेतना पैदा की और अनेक धार्मिक एवं सामाजिक बुराइयों को दूर करके देश को आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर किया। उन्होंने भारत में नए युग का सूत्रपात किया। वस्तुतः वे आधुनिक भारत के जनक थे।

प्रमुख विचार- राजा राममोहन राय ने ईश्वर की एकता का उपदेश देते हुए और विभिन्न देवी-देवताओं तथा मूर्ति-पूजा का विरोध करते हुए अपने धर्म-सुधार का कार्य आरम्भ किया। उनके विचार प्राचीन हिन्दू शास्त्रों के ही अनुकूल हैं। उन्होंने अपने विचारों का समर्थन करने के लिए कई प्राचीन धर्म ग्रन्थों का बंगला भाषा में अनुवाद किया। सन् 1828 में उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की जो आगे चलकर बहुत प्रभावशाली हुआ। इसके अनुसार ईश्वर रूपहीन, अनन्त, अनादि तथा शाश्वत सत्ता है और यही सत्ता सृष्टि का निर्माण तथा विनाश करती है। जाति-पाँति, वर्ण धर्म के भेदभाव के बिना मन्दिर के द्वार सबके लिए समान रूप से खुले रहते थे।

राजा राममोहन राय बहु-विवाह, बाल-विवाह, जाति-प्रथा, पर्दा, कर्मकांड के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने सती तथा विधवा-प्रथा का विरोध किया और स्त्रियों के लिए जीवन के सब क्षेत्रों में समानता की माँग की। उन्होंने देशवासियों के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता की माँग की। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक व राजनीतिक सुधारों की एक स्पष्ट योजना हमारे सामने  प्रस्तुत की। इनसे भारतीयों में राजनैतिक चेतना व्याप्त हुई। भारत में नव जागरण का सूत्रपात  हुआ।वस्तुतः वे आधुनिक भारत के जनक थे।

ब्रह्म समाज

सिद्धान्त- ब्रह्म समाज के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(1) ईश्वर एक है।

(2) जीवात्मा अमर है।

(3) ईश्वर की पूजा सत्य तथा प्रेम द्वारा होनी चाहिए।

(4) मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं करना चाहिये।

(5) सब धमों तथा उपदेशों की शिक्षाओं को सत्य मानना चाहिये।

(6) जाति-प्रथा, छुआछूत तथा अंधविश्वासों में विश्वास नहीं करना चाहिये।

(7) ईश्वर में पितृ-भावना, मातृ-भावना तथा प्राणी-मात्र में दया-भाव है।

(8) यह कर्मफल के सिद्धान्त में विश्वास करता है। इसके अनुसार ईश्वर पुण्य कर्म का पुरस्कार और पाप का दण्ड देता है।

सुधार कार्य- ब्रह्म समाज ने पर्दा-प्रथा, बहु-विवाह और बाल-विवाह की कुप्रथाओं को हटाने, विधवा-विवाह को मान्यता दिलाने तथा स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था करने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की और आधुनिक हिन्दू समाज ने ब्रह्मों के इन सुधारों को अनेक अंशों में अपनाया है। ब्रह्म समाज ने अन्य सामाजिक सुधारों के लिए भी प्रयत्ल किया। इसने सामाजिक या अन्य अवसरों पर सहभोजों की प्रथा चलाई जिसके कारण जाति-पाँति की कट्टरता कम होने लगी। इस संस्था के प्रभाव के कारण हिन्दुओं में कई दृष्टियों से प्रगतिशील विचार उत्पन्न हुए और समुद्र पार देशों की यात्रा करने से जाति-च्युत होने का भय काफी अंशो में जाता रहा। हिन्दू समाज को विधवा-विवाह या अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता देनी पड़ी।

प्रार्थना समाज

पूर्वी भारत में नवीन धार्मिक चेतना और समाज-सुधार के प्रसार का जो कार्य ब्रह्म समाज ने किया वही कार्य महाराष्ट्र में प्रार्थना समाज ने किया। 1866 में प्रार्थना-समाज की स्थापना केशवचन्द्र सेन ने की थी। यद्यपि दोनों समाजों में बहुत साम्य है तथापि इन दोनों के अन्तर को भी स्पष्ट समझना चाहिये। प्रार्थना समाज के अनुयायियों ने कभी अपने को इस रूप में नहीं देखा कि वे सामान्य हिन्दू मत के बाहर और उसके पास ही एक नवीन धर्म या एक नवीन पंथ के अवलम्बी हैं बल्कि इसके अन्तर्गत एक आन्दोलन-मात्र है। वे भक्ति-भावपूर्ण आस्तिकजन थे तथा नामदेव, तुकाराम एवं रामदास-जैसे मराठी सन्तों की महान् धार्मिक परम्परा के अनुयायी थे। लेकिन धार्मिक चिन्तन के बदले उन्होंने अपना मुख्य ध्यान सामाजिक सुधार की ओर लगाया, जैसे विभिन्न जातियों के बीच अन्तर्भोजन एवं अन्तर्विवाह, विधवाओं का पुनर्विवाह और स्त्रियों एवं दलित वर्गों की अवस्था में उन्नति।

प्रार्थना समाज की ओर से पण्ढरपुर में अनाथालय, विधवाश्रम तथा इसी प्रकार की समाज सुधार सम्बन्धी संस्थाएं स्थापित हुई और दलित जातियों की दशा सुधारने के लिये भी इस समाज ने प्रयत्न किये। प्रार्थना-समाज की सफलताओं में जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे का बहुत बड़ा हाथ था। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रार्थना समाज के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने में लगा दिया। अखिल भारतीय कांग्रेस में भी उनका हाथ था और कांग्रेस के राजनीतिक कार्यक्रम में उन्होंने समाज सेवा के कार्यों पर बहुत जोर दिया। राजनीतिक और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों का विवेचन करते हुये श्री रानाडे ने इस बात पर जोर दिया था कि राजनीतिक अधिकारों की माँग और सामाजिक सुधार के प्रयत्न को साथ ही साथ चलना चाहिये। सुधार के सम्बन्ध में रानाडे का मत था कि विकास के तरीकों को अपनाना अधिक हितकर है। सुधार के कार्य को बलात् लादना वांछनीय नहीं है, “हम लोगों में से ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि सुधार का काम यहीं तक सीमित है कि अतीत से नाता तोड़ने का साहसपूर्ण संकल्प किया जाये तथा अपना तर्क जिसे उचित और ठीक कहे, केवल उसे ही किया जाये। ऐसा सोचने में बहुत समय से बनी हुई आदतों और प्रवृत्तियों की शक्ति की उपेक्षा कर दी जाती है।” रानाडे ने ऐसा कहने का साहस कर परिस्थितियों का अधिक वास्तविक ज्ञान प्रदर्शित किया। “सच्चे-सुधारक को किसी साफ कागज पर नहीं लिखना है। उसका काम बहुधा अर्धलिखित वाक्य को पूर्ण करना होता है।”

आर्य समाज

दयानन्द सरस्वती

महत्व और प्रसार की दृष्टि से आर्य समाज का अधिक महत्व है। उत्तर प्रदेश और पंजाब में आर्य समाज का बहुत अधिक प्रचार हुआ। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती भारत के प्राचीन गौरव पर अभिमान करते थे और वर्तमान हिन्दू धर्म की बुराईयों को दूर करके इसे एक सशक्त धर्म बनाना चाहते थे।

महर्षि दयानन्द सरस्वती प्रत्येक दृष्टि से एक महान पुरुष थे। विद्वता, प्रतिभा, निर्भीकता, साहस, ध्येय, निष्ठा, आत्म-त्याग और संयम आदि गुण उनमें कूट-कूट कर भरे हुये थे। हिन्दू धर्म और समाज का ऐसा कोई भी दोष नहीं था जिसकी ओर उनकी दृष्टि न गई हो। धर्म की रूढ़ियों का बहिष्कार, सामाजिक कुरीतियों का निराकरण, स्त्रियों की दशा सुधार, अछूतोद्धार, राजनीतिक चेतना का प्रसार आदि बहुमुखी कार्यों द्वारा महर्षि दयानन्द ने सम्पूर्ण राष्ट्र को जागृत करने का प्रयत्न किया। महर्षि दयानन्द यों तो प्रमुख रूप से धार्मिक नेता थे किन्तु राजनीतिक चेतना को फैलाने में उनका बहुत बड़ा योग है। 1874 ई० में उन्होंने अपना विख्यात ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखा और 1875 ई० में आर्य समाज की स्थापना की। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने कहा कि सुशासन ही काफी नहीं है हमें स्वशासन की माँग करनी चाहिये। भारत के उज्ज्वल अतीत का चित्र खींचते हुये उन्होंने भारतीयों को अतीत से प्रेरणा लेकर उज्जवल अनागत के निर्माण का उपदेश दिया। उन्होंने जो आन्दोलन चलाया वह कालान्तर में एक जन-आन्दोलन हो गया और इस आन्दोलन ने उनके अनुयायियों में एक नये उत्साह और नये जीवन का संचार किया।

आर्य समाज के सिद्धान्त- धर्म के क्षेत्र में आर्य समाज की सफलता हिन्दू धर्म को एक नया स्वरूप देने में है। यह एकेश्वरवाद का समर्थन है और मूर्तिपूजा, छुआछूत, बालविवाह, जाति-प्रथा तथा उन समस्त कुरीतियों तथा विश्वासों की भर्त्सना करता है जो विकृत हिन्दू धर्म में उत्पन्न हो गये थे।

10 प्रमुख नियमः-

(1) सब सत्य विद्या है और जो पदार्थ विद्या द्वारा जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।

(2) ईश्वर सच्चिदानन्द है- वह शास्वत् मूर्त तथा आनन्दकारी है, वह निराकार सर्वशक्तिमान न्याय रूप, दयालु, अजन्मा, अनन्त, अमर, अभय, सबका रक्षक, सबका स्वामी, सृष्टि की उत्पत्ति का कारण तथा उसका पालन करने वाला है।

(3) वेद ही सत्य-ज्ञान के आदि-स्रोत हैं । वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है।

(4) सत्य को स्वीकार करने और असत्य का त्याग करने के लिये सदा प्रस्तुत रहना चाहिये।

(5) समस्त कार्य में सत्य और असत्य का विचार करना चाहिये।

(6) समाज का मुख्य उद्देश्य संसार का उपकार करना है।

(7) पारस्परिक सम्बन्ध का आधार प्रेम, न्याय और धर्म होना चाहिये।

(8) अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि होनी चाहिये।

(9) प्रत्येक मानव को अपनी भलाई से ही सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये।

(10) मनुष्य को आचरण की स्वतन्त्रता होनी चाहिये परन्तु उसे लोक-कल्याण को सदैव दृष्टिगत रखना चाहिये।

सुधार कार्य- आर्य समाज के कार्यक्रम में सामाजिक सुधारों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। ‘समाज’ बालविवाह तथा बेमेल विवाह को बुरा मानता है। इसने लड़कों के विवाह की आयु कम से कम 22 तथा लड़कियों की 16 वर्ष निश्चित की है। विधवा-विवाह तथा स्त्रियों की दशा में उन्नति के लिये भी पर्याप्त सराहनीय कार्य आर्य समाज ने किया है। विवाह सम्बन्धी रीति-रिवाजों तथा अन्य सामाजिक दोषों के निराकरण की ओर भी इसका ध्यान आकर्षित हुआ। इसने शुद्धि आन्दोलन चलाकर बहुत से उन हिन्दुओं को फिर से हिन्दू धर्म में शामिल कर लिया जो ईसाई या मुसलमान बन गये थे। इस प्रकार आर्य समाज ने हिन्दू धर्म की बड़ी रक्षा की।

यह घोषणा करके किसी व्यक्ति का सामाजिक स्थान कर्म पर निर्भर है, जन्म पर नहीं। इसने अस्पृश्यता को बड़ा आघात पहुँचाया। सन् 1908 ई० में दलित जातियों के उद्धार के लिये सक्रिय आन्दोलन प्रारम्भ किया गया। किसी भी अन्य संगठन के साथ में इतनी शिक्षण- संस्थाएं नहीं है जितनी कि इस संस्था के। समाज द्वारा संचालित पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में अनेक डी० ए० वी० कालेज तथा स्कूल हैं जहाँ विद्यार्थियों को आधुनिक शिक्षा दी जाती है। ‘समाज’ ने हिन्दी के पक्ष में भी आन्दोलन किया। पंजाब में हिन्दी भाषा की रक्षा के लिये ‘समाज’ की ओर से बड़ा प्रचार किया गया जिसमें इसको पर्याप्त सफलता मिली। उसी के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप हिन्दी भाषा के जानकारों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई।

राधास्वामी सत्संग

इसका प्रचार मुख्य रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब में हुआ था। इस समाज के संस्थापक श्री शिवदयाल खत्री थे। 1878 ई० में उनकी मृत्यु के बाद राधास्वामी संत्सग, में पांच और गुरु हुये किन्तु इस सत्संग का सबसे अधिक प्रभाव छठे गुरु आनन्द स्वरूप के समय में हुआ। इन्हीं के समय में आगरा के निकट दयाल बाग की स्थापना हुई जिसको राधास्वामियों गयीं।

ने एक औधोगिक केन्द्र के रूप में भी स्थापित किया है और यहाँ पर राधास्वामियों का एक अत्यन्त सुन्दर मन्दिर भी निर्मित हो रहा है। इस औद्योगिक केन्द्र और मन्दिर को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। इस धर्म में गुरु की बड़ी महत्ता है। ये लोग गुरु की प्रत्येक वस्तु को बड़े आदर तथा श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। गुरु ही सत्य है और सत्य का ज्ञान कराने वाला भी वही है। ये लोग ईश्वर, संसार और जीवात्मा को सत्य मानते हैं। इनका युनर्जन्म में विश्वास है। इनकी सामूहिक उपासना में गुरु नानक, कबीर तथा दादू आदि सन्तों की वाणियाँ बहुधा सुनाई देती हैं। इनमें प्रेम और भाई-चारे का स्थान ऊँचा है।

थियोसाफिकल सोसाइटी

थियोसाफिकल समाज की स्थापना पहले-पहल न्यूयार्क में एक रूसी महिला मदास क्लेवात्सकी Madam H. P. Blavatsky और एक अमेरिकन कर्नल आलकाट Col. H.P. Olcott द्वारा 1875 ई० में की गई थी। भारत आने पर मदाम ब्लेवात्सकी तथा कर्नल आलकाट ने अपने धार्मिक विचारों को फैलाने का प्रयल किया। इनके व्याख्यानों में हिन्दू धर्म की बहुत प्रशंसा रहा करती थी। साथ ही कुरीतियों की ओर भी हिन्दुओं का ध्यान आकृष्ट किया जाता था! जिनके कारण अन्य धर्मों के प्रचारक हिन्दू धर्म को बदनाम करने का प्रयल किया करते थे। तीन वर्ष तक देश के विभिन्न स्थानों का भ्रमण कर चुकने के बाद इन दोनों महानुभावों ने पद्रास प्रान्त में अदयार नामक स्थान में थियोसाफिकल समाज की स्थापना की। बड़ी शीघ्रता से इस समाज की शाखाएं अन्य भागों में भी खुल गयीं।

सोसायटी के मुख्य सिद्धान्त- इसके अनुसार समस्त धर्मों में हिन्दू तथा बौद्ध धर्म उच्च है। इसका पुनर्जन्म और कर्मकाण्ड में विश्वास है। इनमें जाति-पाँति का भेद नहीं है। इनका विश्वास है कि इस लोक के अतिरिक्त एक और लोक है जहाँ आत्माएं निवास करती हैं। जो इन लोक की आत्माओं की सदा सहायता करने को तत्पर रहती हैं। इस सोसायटी ने आयरिश महिला श्रीमती एनी बेसेंट (Annie Besant) के नेतृत्व में विशेष उन्नति की! थियोसाफिकल सोसायटी के एक सदस्य के रूप में वे 1866 ई० में भारत आईं और बाद में वे सोसायटी की प्रमख कार्यकर्ता बन गयीं। उन्होंने वेदों तथा उपनिषदों में अपना विश्वास व्यक्त किया तथा हिन्दू संस्कृति को पाश्चात्य संस्कृति की तुलना में श्रेष्ठ बताया।

रामकृष्ण मिशन

अब तक जिन धार्मिक आन्दोलनों का उल्लेख किया गया है उनका प्रचार बहुत कुछ स्थानीय था और भारतीय भावना का विकास करने में इनमें विशेष मदद न मिल सकी। किन्तु रामकृष्ण मिशन के संस्थापकों ने इस कमी को दूर दिया।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस- रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के समीप बैलूर मन्दिर में निर्धन पुजारी थे। उन्हें नाममात्र की भी शिक्षा नहीं मिली थी किन्तु घोर एकान्त में निरंतर आध्यात्मिक साधना करते रहने के कारण उनका व्यक्तित्व अवर्णनीय आनन्द से ओत-प्रोत रहता था। केवल तर्क के आधार पर धार्मिक सिद्धांतों का विश्लेषण करने की प्रवृत्ति से परमहंस जी को चिढ़ थी। उनका जीवन उच्चकोटि की धार्मिक साधना का मूर्तिमान स्वरूप था। उनके सम्बन्ध में एक आधुनिक इतिहासकार ने लिखा है, “परमहंस जी में हिन्दू धर्म और दर्शन के सभी रूपों- मूर्तिपूजा, अवतार, भजन, कीर्तन अद्वैत दर्शन आदि का अद्भुत समन्वय था। वे धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता से बिल्कुल रहित थे और उन्होंने न केवल अपनी शिक्षाओं में ही बल्कि अपने आचरण द्वारा यह प्रतिपादित कर दिया कि विभिन्न धर्म सत्य को जानने और ईश्वर को प्राप्त करने के अलग-अलग मार्ग हैं।” स्वामी रामकृष्ण परमहंस के उत्कृष्ट सिद्धांतो को देश- विदेश में फैलाने का श्रेय उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द को है।

स्वामी विवेकानन्द- स्वामी विवेकानन्द का असली नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उनका जन्म सन् 1863 में कलकत्ते में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई थी। नरेन्द्रनाथ दत्त बड़े ही कुशाग्र बुद्धि के छात्र थे। प्रत्येक बात को वे तर्क द्वारा समझने और जानने की इच्छा रखते थे। छात्र-जीवन में ही उन्होंने पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान का विस्तृत अध्ययन कर लिया था और वे पश्चिमी विचारों के जबर्दस्त समर्थक भी थे। किन्तु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आने से उनका विचार बिल्कुल बदल गया और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सत्य या ब्रह्म या ईश्वर को जानने का सच्चा साधन साधना है। इसलिए वह परमहंस जी के शिष्य हो गये और उन्होंने अपने गुरु के विचारों को फैलाने और वेदांत की महत्ता-प्रतिपादित करने का संकल्प कर लिया।

सन् 1893 में शिकागो के सर्व-धर्म-सम्मेलन में भाग लेने का उन्हें अवसर मिला। वहाँ पर श्रोताओं को उन्होंने अपनी अपूर्व वक्तृत्व शक्ति द्वारा मन्त्र-मुग्ध कर लिया। अपने पहले ही व्याख्यान में उन्होंने हिन्दू धर्म की महत्ता प्रतिपादित की और उन्होंने यह कहा कि हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी महत्ता इस बात में है कि वह सभी धर्मों की सच्चाई को स्वीकार करता है और सभी की संकीर्णता से यह रहित है। अपने अन्य व्याख्यानों में उन्होंने अमरीका वालों की इस बात के लिये खरी आलोचना की कि वे भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिये तो असीमित धन को पानी की तरह बहा देते हैं किन्तु असंख्य भारतवासियों की गरीबी दूर करने और उनकी भूख मिटाने की कोई कोशिश नहीं करते। स्वामी जी ने कहा कि धर्म का अभाव भारतवर्ष की बुराई नहीं है, धर्म भारतवर्ष में प्रचुर परिमाण में है। भारत के क्षुधा-पीड़ित निवासी सूखे कण्ठ से रोटी की माँग करते हैं। यह एक अजीब बात है कि वे हमसे रोटी माँगते हैं और हम उन्हें पत्थर देते हैं। सिंह की तरह गर्जना करते हुए स्वामी जी ने कहा, “किसी भूखे राष्ट्र को तत्वदर्शक प्रदान करना, उसका अपमान करना है और किसी भूखे व्यक्ति को धर्मोपदेश देना उसका अपमान करना है।’ स्वामी जी के ओजस्वी और सच्चाई से भरे हुए व्याख्यानों का बड़ा जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। लोग उनको तूफानी हिन्दू कह कर याद करते थे। उनके विचारों की उच्चता, व्यक्तित्व की निर्भीकता और दलित मानवता के प्रति उनके सच्चे प्रेम को देखकर अमरीकावासी विस्मित हो गये।

अमरीका से लौट आने के बाद स्वामी जी ने सम्पूर्ण देश का दौरा किया और देशवासियों को अपने गौरवशाली अतीत की याद दिलाते हुये एक उज्जवल भविष्य के निर्माण का संदेश दिया। शिक्षित भारतीयों के हृदयों में स्वामीजी ने देश प्रेम तथा अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति श्रद्धा के भाव उत्पन्न किये।

स्वामी जी द्वारा हिन्दू समाज की कुरीतियों का खंडन- स्वामी जी ने शिक्षित हिन्दुओं को हिन्दू-धर्म की श्रेष्ठता और उत्कृष्टता को समझाते हुये यह बताया कि संसार के अन्य लोगों के सामने मस्तक ऊँचा करके रहना चाहिए और यह तभी सम्भव है जब हिन्दू लोग अपने समाज के प्रचलित दोषों का निराकरण करें। इस सम्बन्ध में एक आधुनिक लेखक ने इस प्रकार लिखा है, “स्वामी जी ने अपने भाषणों में हिन्दू-धर्म की कुरीतियों और कुप्रथाओं का जोरदार खण्डन किया। उन्होंने अन्धविश्वासों को आध्यात्मिक जीवन की सबसे बड़ी बाधा बताया और कहा कि बिना अपनी बुद्धि की कसौटी पर कसे धार्मिक सिद्धांतों को कभी नहीं मानना चाहिये। हिन्दू धर्म की प्रशंसा करते हुए भी वे बाह्याडम्बरों की आलोचना करने से न चूके। हिन्दुओं की चूल्हे- चौके की तथाकथित पवित्रता का उपहास करते हुये उन्होंने कहा, हमारा धर्म चौके में है। भोजन पकाने का बर्तन हमारा ईश्वर है और हमारा धर्म “मुझे छुओ मत मैं पवित्र हूँ” है।”

स्वामी जी द्वारा समाजवाद का समर्थन- जो लोग यह कहते हैं कि समाजवाद का सिद्धान्त भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है उनको स्वामी जी के इन शब्दों पर ध्यान देना चाहिए, ”मैं समाजवादी हूँ इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण व्यवस्था समझता हूँ बल्कि इसलिए कि आधी रोटी बेहतर है बिल्कुल न होने से। अन्य तरीके अपनाये गए हैं और सफल पाये गये हैं। इसे भी अमल में लाना चाहिए-अगर किसी और चीज के लिए नहीं तो इसके अनोखेपन के लिए ही सही।”

स्वामी जी का विश्वास था कि देश की गरीबी केवल समाजवाद द्वारा ही दूर की जा सकती है। उन्होंने अपने लेखों और व्याख्याओं में बड़े जोरदार शब्दों में कहा कि जो व्यक्ति अपने देशवासियों के शोषण पर ही जी रहा हो उसको मैं दुरात्मा कहता हूँ। स्वामी जी का आदेश.था कि हमें सोते, जागते दरिद्रनारायण का ध्यान रहना चाहिए और उनकी गरीबी तथा व्यथा को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। श्री दिनकर ने यह ठीक लिखा है कि जिस रास्ते पर पं० जवाहरलाल नेहरू चले वह स्वामी विवेकानन्द के द्वारा ही दिखाया हुआ रास्ता था।

पश्चिमी और पूर्व विचारधारा में समन्वय- स्वामी जी का यह विश्वास था कि योरोप के लोगों को भारतीय अध्यात्मवाद स्वीकार करना चाहिए और भारत के लोगों को पश्चिम की वैज्ञानिक तथा औद्योगिक उन्नति सीखनी चाहिए। पश्चिमी विज्ञान और पूर्वी आध्यात्मिकता के समन्वय को स्वामी जी मानवता के लिए हितकर मानते थे। अपने देशवासियों के लिये उनका यह उपदेश था, “भारत के धर्म को साथ लेते हुए योरोपीय समाज का निर्माण करो। समानता, स्वतन्त्रता, कार्यपरता और शक्ति की भावना में पश्चिमी देशों की तरह बनो और साथ ही साथ धार्मिक, सांस्कृतिक तथा भावनाओं के पक्के हिन्दू बनो।’ स्वामी जी के सिद्धान्तों की यह व्यावहारिकता थी कि उन्होंने भौतिकवादी योरोप और अमेरिका को अध्यात्मवाद का सन्देश दिया तथा आध्यात्मिक कल्याण के लिए भौतिक हित की उपेक्षा करने वाले भारत को भौतिक उन्नति का उपदेश दिया। देश की जनता में जागरण उत्पन्न करने के लिये स्वामी जी अपने व्याख्यानों में उसे सदैव ही दुर्बलता त्याग कर निर्भय बनाने का उपदेश देते रहे।

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Pankaja Singh

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