इतिहास

बौद्ध धर्म के पतन के कारण | Due to the decline of Buddhism in Hindi

बौद्ध धर्म के पतन के कारण | Due to the decline of Buddhism in Hindi

बौद्ध धर्म के पतन के कारण

महात्मा बुद्ध ने कहा था, “जिस प्रकार जन्म का कारण होता है उसी प्रकार मृत्यु का भी कारण होता है। सत्कमों द्वारा ही कारणों का मूलोच्छेदन किया जा सकता है।’ तथागत की यह उक्ति बौद्ध धर्म के उत्थान तथा पतन के कारणों की सारगर्भित अभिव्यक्ति का प्रतीक है। जिस मार्ग पर चलने से बौद्ध धर्म का उत्थान तथा शीध्र प्रसार हुआ उस मार्ग से पथभ्रष्ट हो जाने पर यह धर्म पतनोन्मुख हो गया। इसके पतन के कारण का वर्णन निम्नलिखित है-

(1) राज्याश्रय की समाप्ति-

यद्यपि बहुत काल तक बौद्ध धर्म जनप्रिय रहा परन्तु कालान्तर में उसकी अवनति हो गयी। बौद्ध धर्म की अवनति का प्रमुख कारण राज्याश्रय की समाप्ति थी। कुछ सप्राटों का विश्वास था कि बौद्ध धर्म से सामरिक भावना का नाश हो जाता है, अतः कालान्तर में बौद्ध-धर्म, राज्य–धर्म न रह सका । मौर्यों एवं कुषाण राज्यवंशों के पश्चात् बौद्धों को राजकीय सहायता एवं संरक्षण अनुपलब्ध हो गया। हर्ष तथा पाल–सम्राटों के अतिरिक्त शेष सभी ने हिन्दू धर्म की पुनः स्थापना की।

(2) ब्राह्मण-धर्म की स्थापना-

मौर्यवंश के पतनोपरान्त तथा नाग राजाओं और गुप्त सम्राटों के उत्कर्ष के साथ-साथ ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के आन्दोलन भी अत्यधिक गतिशील हो गए। इन सम्राटों ने ब्राह्मण धर्म और उसकी संस्कृत भाषा को राज्याश्रय दिया। बौद्ध धर्म का महायान सम्प्रदाय तो ब्राह्मण-धर्म के अत्यधिक निकट आ गया था। बौद्ध धर्म की उदारता, सहिष्णुता, सक्रिय सहयोग और संरक्षण से प्रभावित होकर ब्राह्मण-धर्म के विचारकों और दार्शनिकों ने ब्राह्मण-धर्म के दोषों को दूर करके उसे अधिक आकृष्ट एवं श्रेष्ठ धर्म बना दिया। भक्ति मार्गी संतों ने भी इसी बीच भक्ति के सरल माध्यम द्वारा ब्राह्मण-धर्म को और भी लोकप्रिय बना दिया। इस सबका परिणाम यह हुआ कि वैदिक धर्म में आस्था बढ़ने लगी तथा ब्राह्मण-धर्म का पुनरुत्थान होना बौद्ध-धर्म के हास का कारण बन गया।

(3) हिन्दू-धर्म का उत्थान एवं एकीकरण-

ब्राह्मण-धर्म में अन्य धर्मों के सिद्धान्तों, विश्वासों, धारणाओं आदि को अपनाकर उनका समन्वय करने की विलक्षण शक्ति है। ब्राह्मण-धर्म में बौद्ध-धर्म के श्रेष्ठ सिद्धान्तों का एकीकरण कर लिया गया और बुद्ध को ईश्वर का अवतार मान लिया गया। इससे ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। हिन्दू धर्म की जिस शिथिलता के कारण बौद्ध-धर्म का अभ्युदय हुआ था-अब स्वयं हिन्दू धर्म उस शिथिलता को दूर करने लगा। शंकराचार्य, कुमारिलभट्ट, प्रभाकर तथा रामानन्द जैसे उद्भट विद्वान एवं उत्साही प्रचारक सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करके बौद्ध भिक्षुओं से शास्त्रार्थ करने लगे। जनता में पुनः हिन्दू-धर्म में आस्था जाग्रत होने लगी। फलतः बौद्ध भिक्षुओं का ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि” का गगन-घोष क्षीण पड़ने लगा। बड़े-बड़े धनीमानी व्यक्ति तथा सम्राट् हिन्दू-धर्म को प्रोत्साहन देने लगे। समयानुसार हिन्दू-धर्म में एकीकरण की प्रवृत्ति प्रबल होने लगी। हिन्दू धर्म ने एकीकरण के प्रयास द्वारा बौद्ध-धर्म के सर्वमान्य सिद्धान्तों, नियमों एवं व्यवहारों को स्वयं में विलीन कर लिया। परिणामतः बौद्ध-धर्म की पृथकता एवं नवीनीकरण का भेद समाप्त हो गया। अब वह हिन्दू-धर्म की छाया मात्र रह गया । बौद्ध मतावलम्बी भी धीरे-धीरे हिन्दू-धर्म को अपनाने लगे तथा बौद्धों की संख्या शनैः-शनैः घटने लगी।

(4) संघीय व्यवस्था का विकारग्रस्त होना तथा भिक्षुओं में आचरण की पथ- भ्रष्टता-

बौद्ध संघों को राज्याश्रय प्राप्त हुआ, अतः वहाँ अतुलित धन-राशि जमा हो गयी। इसके अतिरिक्त बौद्ध बिहारों में उपहार एवं भेट स्वरूप प्राप्त स्वर्ण, चांदी, रल तथा सम्पत्ति आदि अत्यधिक धन इकट्ठा हो गया। फलस्वरूप विहार भोग-विलास, सुख-वैभव औप षड्यन्त्रों का केन्द्र बन गये। बुद्ध के अनुशासन के दस नियमों की अवहेलना की जाने लगी और भिक्षु तथा भिक्षुणियों का सादा, सरल, पवित्र, त्याग, सेवा और परोपकार का जीवन सा हो गया। मगध के विहारों में हजारों भिक्षु एवं भिक्षुणियाँ आनन्दमय जीवन बिताने लगे। अब वे नाप-मात्र के भिक्षु रह गये थे- भिक्षा-पात्र लेकर मांगने एवं प्रचार करने की आवश्यकता समाप्त हो गयी। बौद्ध भिक्षु पथभ्रष्ट, विलासी, कामुक एवं विलासमय जीवन में रुचि लेने लगे विहार तथा मठों में युवकों तथा युवतियों का भिक्षु तथा भिक्षुणी रूप में साथ निवास करने के कारण उनके आचरण तथा संयम में गिरावट आ गयी। अब विहारों का सात्विक एवं शुद्ध वातावरण समाप्त हो गया। इससे जनसाधारण की दृष्टि में बौद्ध-भिक्षुओं के प्रति श्रद्धा विनष्ट हो गयी तथा बौद्ध संघ और विहारों का पतन हो गया। इन समस्त ‘दोषों के विरुद्ध हिन्दू धर्म के प्रवर्तकों ने प्रचार किया तथा बौद्ध-धर्म की उपेक्षा एवं ब्राह्मण-धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने में सफलता प्राप्त की।

(5) बौद्ध-धर्म में दोषों का प्रवेश-

बौद्ध-धर्म का प्रादुर्भाव और प्रचार एक सादे, सरल, सुबोध धर्म के रूप में हुआ था किन्तु कालान्तर में वह विविध नियमों और निषेधों से परिपूर्ण हो गया। इसका कठोर अनुशासन एवं संघ का संयमी जीवन इसके मानने वालों के लिए कष्टकारक हो गया। परिणामस्वरूप अनेक बौद्ध धर्मावलम्बियों ने अन्य धर्म अपना लिया ! इसके अतिरिक्त जिन दोषों के विरूद्ध महात्मा बुद्ध ने आवाज उठायी थी वे ही धीरे-धीरे बौद्ध-धर्म में प्रवेश करने लगे। महात्मा बुद्ध के सरल एवं बोधगम्य उपदेशों के स्थान पर मूर्तिपूजा, रथोत्सव तथा अन्य संस्कार आदि जन्म लेने लगे। धर्म की सरलता नष्ट हो गयी तथा ढकोसलों, अन्धविश्वासों एवं मिथ्याचार ने प्रबलता धारण कर ली। बौद्ध-आचार्य सैद्धान्तिक मतभेदों का शिकार होने लगे तथा इनमें आपस में प्रतिस्पर्धा एवं द्वेष की भावना उत्पन्न हो गयी। एक तरफ तो बौद्ध-भिक्षु घोर अनीश्वरवादी हो गये, दूसरी ओर उनमें देवत्व के प्रति श्रद्धा भी हो गयी। इस अन्तर्भेद के कारण उनकी मतैक्यता नष्ट हो गयी। सुधारात्मक प्रवृत्ति का स्थान अनुकरणात्मक प्रवृत्तियों ने ले लिया। फलतः बौद्ध-धर्म में अनात्मवाद और अनीश्वरवाद या उसकी नास्तिकता की प्रवृत्ति से अनेक लोग बौद्ध-धर्म से अलग हो गए। वे बौद्ध-धर्म को नास्तिक धर्म समझने लगे थे। इस प्रकार बौद्ध-धर्म अपने उच्च आदर्शों से गिर कर पतनोन्मुख हो गया।

(6) सम्प्रदायवाद का जन्म-

कालान्तर में बौद्ध मतावलम्बियों में कई गहन सैद्धान्तिक मतभेद हो गये। बौद्ध-धर्म में सम्प्रदायवाद जन्म ले चुका था जिसके कारण आपसी मतभेद बढ़ गये तथा संघ छिन्न-भिन्न होने लगा। महात्मा बुद्ध की मृत्योपरान्त ही संघ-भेद की आशंका से प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया था। मतभेद का क्रम बढ़ता ही गया तथा चार संगीतियों के आयोजन द्वारा भी विघटनकारी प्रवृत्तियाँ नष्ट नहीं हई। पाँचवीं शताब्दी में बौद्ध-धर्म अट्ठारह सम्प्रदायों में विभक्त हो चुका था। इनमें हीनयान, महायान, वज्रयान तथा महासांधिक प्रमुख हैं। इस सम्प्रदायवाद ने बौद्ध धर्म को आन्तरिक रूप से जर्जरित कर दिया। फलतः बौद्ध-धर्म से लोगों की आस्था उठ गयी।

(7) बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों में परिवर्तन-

शनैः शनैः बौद्ध धर्म के मूल सिद्धान्त परिवर्तित और नये-नये सम्प्रदायों का उदय हुआ, जैसे महायान, मन्त्रयान, तन्त्रयान, वज्रयान आदि। इन नवीन परिवर्तनों के अन्तर्गत बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियाँ निर्मित कर पूजी जाने लगी। इस मत का प्रतिपादन किया जाने लगा कि बुद्धदेव की मूर्ति की पूजा, अर्चना और भक्ति मात्र से ही निर्वाण प्राप्ति हो सकती है । वज्रयान सम्प्रदाय के अन्तर्गत बौद्ध धर्म में हठयोग, तन्त्र-मन्त्र, सुरा, सुन्दरी और भोग-विलास का प्रवेश हुआ जो बौद्ध-धर्म की नैतिकता के सर्वदा विपरीत थी। बौद्ध भिक्षु और विद्वान अब सरल, पवित्र एवं सन्यासी न रहे। वे तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोने के निपुण पंडित हो गए और वे अनैतिक कार्य की ओर प्रेरित हुए। वे तन्त्र-मन्त्र द्वारा ब्रह्म और आत्मा सम्बन्धी शक्तियों और आध्यात्मिक सत्ता प्राप्त करने का दावा करने लगे। फलतः बौद्ध धर्म की समस्त पवित्रता और नैतिकता नष्ट हो गयी और बौद्ध विहार तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोने के गढ़ बन गए। वे अपने उच्चादों से गिर गए और अपना गौरव खो दिया।

(8) प्रभावशाली बौद्ध धर्माचार्यों और दार्शनिकों का अभाव-

बौद्ध धर्म में पाँचवीं शताब्दी के बाद प्रकाण्ड विद्वान, प्रख्यात धर्म-परायण भिक्षु और दार्शनिकों का अभाव हो गया। बौद्धों का संगठन करने और उनकी शक्ति को बढ़ाने के लिए योग्य, अनुभवी संगठनकर्ता भी नहीं थे। इसके विपरीत इस युग में ब्राह्मण धर्म के शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, रामानुज आदि के समान बौद्ध धर्म में प्रसिद्ध प्रभावशाली विचारक, दार्शनिक, धर्म-प्रचारक और धर्माचार्य नहीं थे जो जनसाधारण को प्रभावित कर सकते और धर्म प्रसार में पूर्ण योगदान देते! बौद्ध धर्म में व्याप्त दोषों को दूर करने के लिए इस युग में कोई धार्मिक संगीति, सभायें या अधिवेशन भी नहीं हुए जो संघ में फैले भ्रष्टाचार का निवारण करते और बौद्ध धर्म की पुरातन शुचिता, सरलता और ग्राह्यता को पुनः स्थापित करते।

(9) राजपूतों का अभ्युदय-

राजपूतों का अभ्युदय भी बौद्ध धर्म के पतन का कारण बना। राजपूत जाति स्वाभिमानी, स्वतन्त्रताप्रिय थी। उनके अनुसार अहिंसा निष्क्रियता को जन्म देती है। इनकी युद्धप्रियता, आखेट में रुचि तथा सामरिक गुणों की प्रधानता बौद्ध-धर्म के अहिंसा एवं सदाचार के प्रतिकूल थी। अतः राजपूतों ने सच्चे हृदय से ब्राह्मण-धर्म को संरक्षण प्रदान किया तथा बौद्ध-धर्म का विरोध किया।

(10) विदेशियों के आक्रमण-

बौद्ध-धर्म की रही-सही शक्ति का नाश हूणों एवं मुसलमानों के आक्रमणों ने कर दिया। तुर्कों के बर्बर आक्रमण के समक्ष नैतिक एवं आचार की दृष्टि से शिथिल बौद्ध-धर्म जनता में विश्वास एवं आस्था की ज्योति नहीं जाग्रत कर सका। जनता के लिए अहिंसा का अर्थ केवल अत्याचार का सहना मात्र रह गया। तुर्कों ने बौद्ध-मठों, विहारों तथा ब्राह्मणों के मन्दिरों को विनष्ट किया परन्तु हिन्दू-धर्म के उपदेशकों ने अपनी शिक्षाओं को नैतिकता एवं सदाचार की शृंखला में जकड़ कर, जनता का आदर एवं श्रद्धा प्राप्त की। यही कारण है कि हिन्दू मन्दिरों का तो पुनरुद्धार हो गया परन्तु एक बार विनष्ट हो जाने पर बौद्ध-मठ एवं विहार खण्डहर ही बन कर रह गए, उनका पुनरुद्धार न हो सका।

मुसलमानों ने अधिकतर उत्तर भारत पर ही हमले किये। अतः मगध के महाविहार, संघाराम के नष्ट हो जाने पर भिक्षुओं का जीवन निराश्रय पूर्ण हो गया। इसके विपरीत रामानुज एवं शंकराचार्य जैसे प्रबल हिन्दू प्रचारकों के केन्द्र दक्षिण भारत की ओर थे, अतः वे मुसलमानी आक्रमणों से सुरक्षित रहे। मुसलमान आक्रमणकारियों का यह विश्वास था कि बौद्ध-संघों एवं मठों के पास अपार धन है, अतः उन्होंने नालन्दा के सुप्रसिद्ध विहार एवं विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया। इससे बौद्ध- धर्म को अपार क्षति पहुँची। नैतिक दृष्टि से पतित एवं शक्तिहीन भिक्षु मुसलमानों का सामना न कर सके तथा भारत छोड़ कर भाग निकले।

इस प्रकार चौदहवीं शती तक यह धर्म मध्यदेश से लुप्त-प्राय हो गया। अवशिष्ट रूप में स्थानीय ढंग पर कुछ दिन तक विराजमान रहने के पश्चात् बौद्ध-धर्म अपनी जन्म-भूमि को छोड़ विदेशों की ओर बढ़ गया। यह आश्चर्यजनक बात है कि जिस दीपक को महात्मा बुद्ध ने भारत-भूमि पर जलाया था वह प्रकाश सहित कहीं और चला गया। आज भी विदेशो की लगभग एक चौथाई जनसंख्या बौद्ध- सिद्धांतों में आस्था रखती है।

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Pankaja Singh

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