इतिहास

इस्लाम तथा हिन्दू धर्म का एक-दूसरे पर प्रभाव | Impact of Islam and Hinduism on each other in Hindi

इस्लाम तथा हिन्दू धर्म का एक-दूसरे पर प्रभाव | Impact of Islam and Hinduism on each other in Hindi

इस्लाम तथा हिन्दू धर्म का एक-दूसरे पर प्रभाव

धार्मिक क्षेत्र में दोनों वर्गों में संघर्ष का होना आवश्यक ही था। दोनों धर्म अपनी- अपनी विशेषताएँ लिए हुए थे और दोनों के मौलिक सिद्धान्त इतने भिन्न थे कि दोनों में मतैक्य होना एक कठिन कार्य था, इसलिए दोनों धर्मों का समन्वय तथा संसर्ग सुगम न था। दोनों के मध्य में एक विशाल खाई थी और दोनों एक-दूसरे के घोर शत्रु थे। दीर्घकाल तक यह शत्रुता बनी रही।

भारत से बाहर मुस्लिम धर्म का प्रचार इतिहास, अग्नि तथा रक्त से लिखा हुआ था। मुसलमानों के आँधी और तूफान के समान दल राजनैतिक विजय के साथ-साथ धर्म प्रचार में भी संलग्न रहते थे और अब तक उनको महान् सफलतायें प्राप्त हुई थीं। देश के देश राजनैतिक पराजय के साथ-साथ धार्मिक क्षेत्र में भी आत्मसमर्पण करते जा रहे थे, परन्तु भारत में मुसलमानों का स्वप्न भंग हो गया। यहाँ पर उनका अनुभव प्राचीन अनुभवों से भिन्न प्रकार का हुआ। इस महान् देश में उनको एक ऐसे धर्म से टक्कर लेनी पड़ी जिसकी शक्ति सबल तथा प्रभावशाली थी। जिसके सम्मुख आकर मुस्लिम धर्म प्रचार’ रुक सा गया और उसके अलौकिक प्रसार में रुकावट आई। अब मुसलमानों ने हिन्दुओं को अपने धर्म की ओर आकर्षित करने के लिए दूसरी नीतियाँ अपनाई। राजकीय पद, धन का लालच, आनन्द तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन, विभिन्न प्रकार की अन्य सुविधायें, सामाजिक समानता ये सब मिलकर भी हिन्दुओं को न हिला सकी और वह मुस्लिम धर्म के प्रलोभनों से विशेष रूप से प्रभावित न हुए। अब न तो प्रलोभन ही और न भीषणता ही हिन्दू धर्म के अभेद्य दुर्ग में दरार कर सकी और मुस्लिम धर्म खिन्न सा हो गया।

एशिया तथा अफ्रीका के अन्य देशों में जिस विशाल पैमाने पर मुसलमानों ने धर्म परिवर्तन कराये थे और वहाँ पर जो सफलतायें उनको प्राप्त हुई थीं, वह सफलतायें उनको भारत में न मिल सकी। इस्लाम धर्म अपने निर्दिष्ट नियम, कानून, प्रथायें, रीति-रिवाज, आचार-विचार, जीवन प्रणाली, धार्मिक सिद्धान्त रखता था। इसलिए उसका किसी भी धर्म के सम्मुख आत्म- समर्पण करना सम्भव न था।

दूसरी ओर हिन्दू धर्म था! राजनैतिक हार को उसने हार न मानी। उसकी महानता विशाल थी। उसके साथ युगों की एकत्रित की हुई सम्पत्ति थी! कल का पैदा हुआ इस्लाम धर्म उसकी दृष्टि में जंच ही कैसे सकता था। उसका अपना गौरव, सम्मान तथा अपना विकास था जो उसमें शक्ति का संचार करता था और उसको प्रेरणा देता था। वह राजनैतिक क्षेत्र में पराजित अवश्य हुआ था, धार्मिक क्षेत्र में नहीं। उसकी अपनी संस्कृति पूर्णतया बनी. रही। धार्मिक गौरव को वैसे का वैसा ही बनाये रखा। मुस्लिम धर्म उस पर अपना कोई विशेष प्रभाव न डाल सका। ई० बी० हैवेल जैसे पाश्चात्य इतिहासकार तथा प्रोफेसर शर्मा ने इस मत का प्रतिपादन किया है। उनका मत है कि अपनी राजनैतिक दुर्बलता के होते हुए भी मध्यकालीन भारत की संस्कृति तथा धर्म में इतनी चैतन्यता थी कि वह उस वृक्ष के समान थे जो शत्रुओं को भी छाया देता है, जो उनकी कोमल शाखाओं को भी काट डालता है। इस्लाम ने भारतीय राजवंशों को पराधीन कर दिया। उनकी शक्ति को नष्ट किया। उनके सैनिक संगठन को चूर-चूर कर दिया परन्तु हिन्दुओं के बौद्धिक साम्राज्यों को नीचा न दिखा सका। उसकी धार्मिक उग्रता हिन्दू धर्म को भयभीत न कर सकी।

हिन्दू धर्म दृढ़ता तथा कठोरता को प्राप्त कर चुका था, जिसको विचलित करना असम्भव था। वह उन अग्नि परीक्षाओं से गुजर चुका था, जिनमें गुजर कर कोई भी धर्म आघातों के सहन करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। हिन्दू धर्म का अपना विधान उच्च कोटि का था, जिनके कारण उस पर हावी होना या उसको पद-दलित करना कुछ सहज काम न था। मुस्लिम आधातों का उल्टा ही प्रभाव पड़ा। जिस शक्ति से आघात किये जाते थे हिन्दू धर्म उससे अधिक शक्ति का प्रदर्शन करता था। और वह अपने आपको सुरक्षित करने के लिए नवीन साधनों का सहारा लेता था। फल यह होता था कि संघर्ष की ज्वाला और अधिक प्रचण्ड होती थी। हिन्दुओं में प्रतिरोध अधिक मात्रा में हो जाता था। जब हम यह देखते हैं कि लगभग 800 वर्ष भारत की राजनैतिक सत्ता मुसलमानों के हाथ में रही फिर भी वह हिन्दुओं के सांस्कृतिक प्रतिरोध की कमर न तोड़ सके तो यह इतिहास का एक अचरज प्रतीत होता है। परन्तु इसका कारण हिन्दुओं की अमर शक्ति में ही मिलता है।

हिन्दुओं के सम्मुख एक समस्या थी कि अपने धर्म को कैसे सुरक्षित रखा जाए, किस प्रकार म्लेच्छों से अपनी प्रिय संस्कृति को बचाया जाए, किस प्रकार, अपनी सुन्दर परम्पराओं तथा प्रभावों को स्थापित रखा जाए। वह अपने विरोधी की भावना को समझ गया था कि वह प्रत्येक उचित या अनुचित शस्त्र का प्रयोग करके हिन्दू धर्म को नष्ट करना चाहता है। इसलिए ब्राह्मण विद्वान् उठे। उन्होंने हिन्दू धर्म के विधान को वह कठोरता प्रदान की है कि उसका लचीलापन जाता रहा। उसका प्रवेश द्वार बन्द कर दिया गया। मुसलमानों के प्रचार तथा प्रसार को पूर्णतया रोकने के लिए प्रभावशाली शस्त्र सिद्ध हुआ। जातियों की कठोरता तथा अपरिवर्तनशीलता की वृद्धि कर दी गई।

मुस्लमानों की धार्मिक कट्टरता का एक और भी परिणाम हुआ । मुस्लिम सुल्तानों की देखा- देखी हिन्दू राजाओं ने भी धार्मिक उत्साह का प्रदर्शन किया। उनमें हिन्दू धर्म को बचाने के लिए नवीन शक्ति का संचार हुआ। मेवाड़ के राणा अपने समस्त शस्त्रों को धारण कर पूर्ण रूप से कटिबद्ध हो मुसलमानों के धर्म आघातों को रोकने के लिए उठ खड़े हुए। उन्होंने मुस्लिम विजेताओं के विरुद्ध निरन्तर युद्ध छेड़ा। इसी प्रकार हिन्दुओं की ओर से दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य का एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम धर्म के प्रचार तथा प्रसार को दक्षिण में आगे बढ़ने से रोकना था। विजयनगर की प्रतिभा इसी कारण से चमक उठी। वह राजनैतिक प्रतीक न रहकर धार्मिक प्रतीक बन गया! दक्षिण भारत की हिन्दू जनता अपनी धर्म रक्षा के लिए विजयनगर के सम्राटों की ओर निहारने लगी। इस प्रकार मुस्लिम धर्म की उग्रता के कारण हिन्दू राजाओं की ओर से ऐसी घोर प्रतिक्रिया हुई और हिन्दू धर्म एक सुरक्षित वर्ग बन गया। एक ओर ब्राह्मण विद्वान् और आचार्य अपनी विलक्षण बुद्धि के द्वारा नये-नये नियम बनाते थे दूसरी ओर राजा- महाराजाओं के चारों ओर हिन्दू जनता एकत्रित हो शस्त्र धारण करती थी तथा तीसरी ओर हिन्दू परम्परायें अपना गौरव लिए हुए थीं। भारत में आकर इस्लाम ऐसे धर्म से टकरा गया जिसकी जड़े पाताल में और जिसका शिखर आकाश में था, जिसकी आयु मानवता की आयु के समान थी। उस धर्म से टकरा कर इस्लाम को मुँह की खानी पड़ी और वह खीज कर रह गया। फिर भी वह हाथ पैर हिलाता ही रहा।

अन्त में इस विरोध तथा प्रतिरोध के कारण मुसलमान उकता गये। मुसलमान सुल्तानों ने भली-भाँति समझ लिया कि भारत में रहकर भारत के हिन्दुओं से बैर–भाव अधिक दिनों तक नहीं चल सकता। इसलिए उनकी नीति में परिवर्तन हुआ। उनमें सरलता तथा सरसता उत्पन्न हुई। उनमें उदारता तथा सहनशीलता की प्रवृत्ति आई और हिन्दू धर्म के प्रति उनके दिलों में श्रद्धा जागी। इस प्रकार मुसलमानों में धार्मिक सहिष्णुता आई और जनसाधारण भी इस समन्वय की भावना से प्रभावित हुए। मुसलमानों ने हिन्दू संन्यासियों तथा संतों के प्रति सम्मान की भावना दिखाई। काफी अच्छी प्रतिक्रिया हुई। मुहम्मद तुगलक जैसा सुल्तान अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए हिन्दू योगियों के पास जाता था। इस प्रकार वातावरण में धीरे-धीरे सुधार हो गया था और दोनों ने स्थिति को समझा और एक-दूसरे के प्रति नर्म रुख अपना लिया और दोनों सभ्यताओं में समन्वय आरम्भ हो गया।

दोनों धर्म वालों ने एक दूसरे के सन्तों को आदर प्रदान करना आरम्भ कर दिया। यदि एक ओर हिन्दू मुस्लिम सन्तों का आदर करते, उनके मजारों तथा कब्रों पर मिष्ठान चढ़ाते तो दूसरी ओर मुसलमान भी हिन्दू साधुओं के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करते थे। हिन्दुओं में अनेक मुस्लिम सन्तों के नियमों का पालन आरम्भ कर दिया था। रावलपिण्डी के ब्राह्मण अब्दुल कादिर जिलानी के मुरीद बन गये थे। मुईनुद्दीन चिश्ती के मरीदों में अनेक हिन्दू सम्मिलित थे। बहराइच में सदैव सालार मसूद के मजार पर अनेक हिन्दू एकत्रित हुआ करते थे। इस प्रकार मुस्लिम सन्तों ने हिन्दुओं को अपनी ओर आकर्षित करना आरम्भ कर दिया था। मुसलमान भी हिन्द धर्म से विशेष रूप से प्रभावित हुए। मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी होते हुए भी बंगला के मुसलमान काली देवी का पूजन करने लगे। शीतला में भी उनकी श्रद्धा हो गई। दोनों धर्मों की बढ़ती हुई सद्भावना का फल यह हुआ कि जिंदागाजी तथा सत्यपीर जैसे देवताओं का उदय हुआ। असरफ के अनुसार मुसलमानों ने हिन्दुओं की शिवरात्रि के ढंग पर शबेरात मनाना प्रारम्भ किया। बंगला में यह ‘मिलन क्रिया’ सुविधा के साथ चली। यह घुलन-मिलन इतना बढ़ा कि बाद में तैमूर ने इस्लाम के इस अशुद्धता के परिष्कार का बहाना लेकर हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की थी।

मुसलमानों में सूफी धर्म के सन्त विशेष रूप से हिन्दुओं के श्रद्धापात्र रहे। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन औलिया, शेख सलीम चिश्ती ऐसे प्रसिद्ध सूफी सन्त थे जिनका हिन्दू भी उतना ही आदर करते थे जितना मुसलमान। दोनों धर्मों में ऐसे समुदाय का प्रादुर्भाव होना प्रारम्भ हुआ जिनमें हिन्दू तथा मुसलमान समान रूप से प्रवेश कर सकते थे। सत्यपीर, सत्तगामी, नारायणी ऐसे ही सम्प्रदाय थे जिनमें दोनों धर्म वालों के लिए स्थान था। मुसलमानों ने हिन्दू प्रभाव में आकर सन्त पूजा की प्रथा अपना ली और विधिपूर्वक उसका पालन करने लगे। धार्मिक सामंजस्य तथा समन्वय की भावना धीरे-धीरे विससित होती जा रही थी। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रही थी। बंगाल के हुसैन शाह तथा कश्मीर के जईनुलअबीदीन जैसे शासकों ने दोनों धर्मों के सहयोग में महान् कार्य किया। उन्होंने संस्कृत के धार्मिक ग्रन्थों का अनुवाद फारसी में कराने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया और इस सुविधा का लाभ उठाया। मुस्लिम विद्वानों ने दोनों ओर उदारतापूर्ण प्रोत्साहन का वातावरण बनाने का कार्य किया।

इस प्रकार बढ़ते हुए सामञ्जस्य एवं समन्वय के बड़े ही प्रभावशाली फल निकले। दोनों धर्मों में सहिष्णुता की भावना जागृत हुई। एक वर्ग के प्रति दूसरे में सद्भावना जागी और विश्वास का वातावरण फैला। बलबन तथा अलाउद्दीन की अनुदार नीति में परिवर्तन आया और एक ओर हिन्दू राजाओं ने मुसलमानों को महत्वशाली पदों पर रखने में संकोच नहीं किया तो दूसरी ओर मुस्लिम सुल्तानों ने हिन्दुओं को उच्च पद प्रदान किये। बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्यों में अनेक उच्च पदाधिकारी हिन्दू थे। इसी प्रकार विजयनगर साम्राज्य में अनेक मुस्लिम राज्य सेवा कर रहे थे। उस समय के ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जबकि मुस्लिम सेवकों ने हिन्दू स्वामियों के हित के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था। इसके दूसरी ओर हिन्दू सेवकों की स्वामीभक्ति के भी अनगिनत उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

इस बढ़ती हुई सद्भावना ने अनेक धार्मिक परिवर्तनों को जन्म दिया। दोनों धर्मों में मेल- जोल की प्रवृत्ति ने दोनों धर्मों के अच्छे-अच्छे सिद्धान्तों का सम्मिश्रण करने का प्रयास किया और बड़ी सीमा नक उनको सफलता भी मिली।

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Pankaja Singh

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