इतिहास

पुनर्जागरण क्या है? | पुनर्जागरण के कारण | पुनर्जागरण की विशेषताएं | पुनर्जागरण का महत्त्व

पुनर्जागरण क्या है? | पुनर्जागरण के कारण | पुनर्जागरण की विशेषताएं | पुनर्जागरण का महत्त्व

पुनर्जागरण क्या है?

छठी शताब्दी ई० पू० की धार्मिक तथा सामाजिक क्रान्ति द्वारा भारत के सांस्कृतिक जीवन में अनेकानेक परिवर्तन आये थे। लगभग 2500 वर्षों के उपरान्त अनेक नबीन विशिष्ट परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, उन्नीसवीं शताब्दी ई० में, भारत पुनः धार्मिक तथा सामाजिक परिवर्तनों के लिये आतुर, चेतनायुक्त तथा उद्वेलित होने लगा। प्रश्न उठता है कि इस आन्दोलन, पुनर्जागरण, सुधारवादी प्रवृत्ति तथा नवीन चेतना के क्या कारण थे ? इसका क्या लक्ष्य था ?

पुनर्जागरण के कारण

ओमली महोदय के अनुसार जब अंग्रेजों की ईसाई धर्म प्रचार की नीति, विधि के शासन तथा विज्ञान की प्रकृति के ऊपर विजय प्राप्ति के कारण भारत पर पाश्चात्य सभ्यता का गहरा प्रभाव पड़ने लगा, तब भारतीय मनीषियों ने अपनी परम्पराओं तथा संस्कृति की रक्षा के लिए समयानुकूलन करके अपना अस्तित्व बनाये रखने की चेष्टा की। कार्ल मार्क्स के अनुसार, England was the unconscious tool of History in bringing about a social Scrolution in India”. सी० एफ० एन्ड्यूज महोदय का कथन है, “The 19th century Rimance in India was due to the regeneration of India’s ancient culture by The fertilisation’ from the culture of the west.”

इन सभी विद्वानों के कथनों तथा अन्य समसामयिक परिस्थितियों को दृष्टिगत करते हुये यह कहा जा सकता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के धार्मिक पुनर्जागरण के निम्नलिखित कारण थे।

(1) भारतीय धर्म तथा समाज में अन्धविश्वासों तथा कुप्रथाओं का बाहुल्य था।

(2) अंग्रेजी शासन के प्रभाव के कारण तथा स्वयं अंग्रेजों की संस्कृति के प्रभाव के कारण भारत के सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तनों की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा। अंग्रेजों ने समाज सुधार के लिये अनेक कुप्रथाओं का विरोध किया तथा भारतीयों को सुधार करने के लिये प्रोत्साहित किया।

(3) अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव के कारण भारतीयों के सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन होने लगा तथा उन्होंने संकीर्णता, रूढ़िवादिता एवं अन्धविश्वासों के निवारण के लिये प्रयत्न किये।

(4) ईसाई धर्म के विस्तार तथा प्रचार के कारण भारतीयों ने यह अनुभव किया कि इस विदेशी प्रसार को रोकने के लिये स्वयं अपनी मान्यताओं का समयानुकूलन किया जाना आवश्यक है।

(5) वैज्ञानिक प्रगति, औद्योगिक क्रान्ति एवं आधुनिकीकरण के कारण प्राचीन एवं मध्यकालीन परम्पराएँ, विश्वास तथा मान्यताएँ खण्डित होने लगी थीं। ऐसी अवस्था में अपनी संस्कृति, धर्म तथा समाज में परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी।

(6) राष्ट्रीय चेतना के प्राबल्य ने भारतीय राष्ट्रीयता को सजीव एवं चेतनायुक्त बनाया। इसके फलस्वरूप आदर्शों एवं संस्कृति की रक्षा करके भारत को पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त करने के लिये सामाजिक एवं धार्मिक चेतना प्रबल हो गई।

(7) समय की पुकार तथा परिस्थितियों की माँग के अनुसार अनेक सुधारों का जन्म हुआ। इन सुधारकों ने भारतीय धर्म तथा समाज को पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त करके समयानुकूलन की शक्ति प्रदान की।

प्रेरणा तथा स्रोत

उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य तथा भारतीय संस्कृति में वास्तविक टकराव हुआ। पं० नेहरू के अनुसार, “विचारों के क्षेत्र में धक्का लगा और परिवर्तन हुआ, और वह क्षितिज, जो बहुत समय से एक संकरे खोल में घिरा हुआ था, विस्तृत हुआ।” अंग्रेजों ने धार्मिक तथा सामाजिक एकता को नष्ट करने तथा राष्ट्रवादी तत्वों को निर्बल बनाने के लिये प्रतिक्रियावादी तत्वों को बढ़ावा दिया। इसके फलस्वरूप अल्पसंख्यक अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों ने प्रत्येक पश्चिमी वस्तु तथा विचार की प्रशंसा करनी प्रारम्भ कर दी तथा अपनी संस्कृति को निर्जीव बताया। अनेक लोग ईसाई बनने लगे तथा अनेक अपनी संस्कृति में ही संदेह करने लगे। इस दशा से उबरने के लिये अनेक तत्कालीन धार्मिक तथा सामाजिक विभूतियों ने अपनी संस्कृति तथा धर्म के प्राचीन महत्व से प्रेरणा ली तथा धर्म एवं समाज को सुषुप्तावस्था से जगाया। इस प्रेरणा के फलस्वरूप जो पुनर्जागरण हुआ वह एक सुधारवादी आन्दोलन, धर्म युद्ध तथा बाहरी आक्रमणों के विरुद्ध अपने सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करने के लिये एक संगठित प्रयास था।

पुनर्जागरण की विशेषताएं

(1) उन्नीसवीं शताब्दी के पुनर्जागरण के फलस्वरूप भारत के निवासियों ने स्वयं अपने लिये, अपनी ही संस्कृति में एक नवीनता का विकास किया। यह नवीनता परिवर्तनशील प्रवृत्तियों तथा परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालते हुए, अधिकाधिक समृद्ध होती गई। इसके पारिणामस्वरूप वैदिक काल से लेकर आज तक की भारतीय संस्कृति में तारितम्यता तथा निरन्तरता स्थापित हो गई।

(2) पुनर्जागरण के फलस्वरूप विभिन्न जातियों के, विभिन्न भाषा-भाषी, अलग-अलग संस्कृतियों के लोग भारतीय धरती पर एकाकार हो गये। उनके मध्य सहिष्णुता तथा समन्वय स्थापित हो गया। डा० राधाकृष्णन् के अनुसार, “अब एक ऐसी संस्कृति का जन्म हुआ जिसके प्रमुख गुण हैं। सभी जीवधारियों में व्यक्त एक अदृश्य वास्तविकता के प्रति आस्था, आध्यात्मिक अनुभव का महत्व, संस्कारों तथा सिद्धान्तों की सापेक्षता, बौद्धिक आदर्शों के प्रति रूढ़ अवलम्बन और प्रत्यक्ष विरोधों को सम करने की आतुरता।”

(3) पुनर्जागरण की एक अन्य विशेषता यह थी कि समस्त परिवर्तनों तथा सुधारों के बावजूद भारतीय संस्कृति की आत्मा अपरिवर्तित रही। पाश्चात्य संस्कृति ने भारत को प्रभावित मात्र किया, पराजित नहीं।

(4) पुनर्जागरण के उपकरण, स्रोत तथा प्रेरणा विशुद्धतः भारतीय थे। इसका आधार वेदों की प्रमुख शिक्षाएँ, उपनिषद, भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र आदि थे। राजा राममोहन राय ने उपनिषदों से, दयानन्द सरस्वती ने वेदों से; रामकृष्ण मिशन भारतीय धार्मिक मतों से; तिलक, अरविन्द तथा महात्मा गाँधी ने भगवद्गीता से प्रेरणा ली थी।

(5) इस समय के धार्मिक आन्दोलनों की प्रवृत्ति धर्म निरपेक्ष, जनतन्त्रीय, समन्वयकारी, सहिष्णु तथा उदार थी।

(6) धार्मिक सुधार तथा सामाजिक आन्दोलनों की अन्यतम विशेषता उनके राजनैतिक महत्त्व से सम्बन्धित थी। इन आन्दोलनों ने आत्मविश्वास की भावना को जागृत करके विकासमान राष्ट्रीयता को प्रबल बनाया। कालान्तर में इसी राष्ट्रीयता ने भारत को स्वाधीनता दिलवाई।

पुनर्जागरण का महत्त्व

उन्नीसवीं शताब्दी के धार्मिक पुनर्जागरण के फलस्वरूप भारतीय धर्म, संस्कृति तथा दर्शन ने आधुनिक मूर्त रूप धारण किया। धार्मिक तथा सामाजिक पुनर्जागरण का नेतृत्व करने वाले महापुरुषों ने जीवन की एक ऐसी प्रणाली का निर्धारण किया जो वेदों, पुराणों तथा भगवद्गीता आदि प्राचीन धर्म ग्रन्थों की शिक्षा पर आधारित थी। पुनर्जागरण का विशेष महत्त्व उसके लक्ष्य में परिलक्षित होता हैं। इस लक्ष्य के अनुसार आधुनिक ज्ञान तथा विचारों के आधार पर भारतीय धर्म तथा समाज का पुनर्गठन किया गया । परम्परागत रूप से स्वीकृत, किन्तु पुरानी पड़ चुकी जीवन प्रणालियों से विलग होकर भारतीय संस्कृति ने समर्थता तथा गतिकी प्राप्ति की। सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के फलस्वरूप भारत में राजनैतिक जागरण हुआ और एक दिन विदेशी सत्ता के पैर उखड़ गये। भारतीय संस्कृति अपराजित, अजेय तथा ओजस्वी बनी रही।

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Pankaja Singh

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